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उत्तरायणाणि
दशवैकालिक और उत्तराध्ययन मुनि की जीवन-चर्या के प्रारंभ में मूलभूत सहायक बनते हैं तथा आगमों का अध्ययन इन्हीं के पठन से प्रारंभ होता है। इसीलिए इन्हें 'मूल सूत्र' की मान्यता मिली, ऐसा प्रतीत होता है। डॉ. सुबिंग का अभिमत भी यही है ।'
हमारा दूसरा अभिमत यह है कि इनमें मुनि के मूल गुणों-महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है । इस दृष्टि से इन्हें 'मूल सूत्र' की संज्ञा दी गई है। ३. मूलाचार और मूल सूत्र
'मूलाचार' आचार्य वट्टकेर की रचना है। उसमें भी उक्त अभिमत की पुष्टि होती है। मूलाचार में मुनि के मूल आचार का निरूपण है। उसमें उत्तराध्ययन के अनेक श्लोक संगृहीत हैं।
दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आवश्यक तथा ओघनिर्युक्तिपिण्डनियुक्ति को 'मूल सूत्र' वर्ग में स्थापित करने वाले आचार्य के मन में वही कल्पना रही है, जो कल्पना आचार्य वट्टकेर के मन में 'मूलाचार' के अधिकार निर्माण में रही है 'मूल सूत्रों' की विषय-वस्तु से जो अधिकार तुलनीय हैं, वे ये हैं
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(१) मूल गुणाधिकार
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मिलाइए — दशवैकालिक,
उत्तराध्ययन
(२) समाचाराधिकार मिलाइए — ओघनियुक्ति (३) पिण्ड-शुद्धि अधिकार मिलाइए पिण्डनिर्युक्ति (४) षडावश्यकाधिकार मिलाइए आवश्यक इस सादृश्य के आधार पर दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि को 'मूल सूत्र' वर्ग में रखने का हेतु बुद्धिगम्य हो जाता है ।
४. मूल सूत्र की कल्पना और श्रुत- पुरुष 'मूल - सूत्र' वर्ग की कल्पना का एक कारण श्रुत-पुरुष (आगम-पुरुष) भी हो सकता है। नंदी चूर्ण में श्रुत-पुरुष की कल्पना की गई है। पुरुष के शरीर में बारह अंग होते हैंदो पैर, दो जंघाएं, दो ऊरु, दो मात्रार्थ (उदर और पीठ), दो भुजाएं, ग्रीवा और शिर । आगम- साहित्य में जो बारह अंग हैं, वे ही श्रुत-पुरुष के बारह अंग हैं। *
9. दसवेयालिय सुत्त, भूमिका, पृ. ३ Together with the Uttarajjhaya (commonly called Uttarajjhayana Sutta) the Avassaganijjuti and the Pindanijjutti it forms a small group of texts called Mülasutta. This disignation seems to mean that these four works are intended to serve the Jain monks and nuns in the beginning (मूल) of their career.
२. मुनि कल्याणविजयजी गणी ने 'श्रमण भगवान् महावीर पृ. ३४३ पर 'मूलाचार' की रचना काल विक्रम की सातवीं शताब्दी के आस-पास माना है।
३. मूलाचार, ४१६६ मिलाइए-उत्तराध्ययन, ३६ । २५७ मूलाचार, ४।७० मिलाइए - उत्तराध्ययन, ३६ २५८
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(१३)
भूमिका
अंग बाह्य श्रुत-पुरुष के उपांग स्थानीय हैं। यह परिकल्पना अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य इन दो आगमिक वर्गों के आधार पर हुई है। इसमें 'मूल' और 'छेद' की कोई व्यर्था नहीं है। हरिभद्रसूरि (विक्रम की ८ वीं शताब्दी) और आचार्य मलयगिरि (विक्रम की १३ वीं शताब्दी) के समय तक भी श्रुत पुरुष की कल्पना में अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य- ये दो ही परिपार्श्व रहे हैं। इन दोनों आचार्यों ने चूर्णि का अनुसरण किया है। उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ी है। आचार्य मलयगिरि ने तो अंग-प्रविष्ट तथा आचारांग आदि को भी 'मूल भूत' कहा है।' श्रुतपुरुष की प्राचीन रेखा कृतियों में अंग-प्रविष्ट श्रुत की स्थापना इस प्रकार है—
१. दायां पैर
२. बायां पैर
३. दाई जंघा
४. बाईं जंघा
५. दायां ऊरु
६. बायां ऊरु
७. उदर
८. पीठ
६. दाईं भुजा
१०. बाईं भुजा
११. ग्रीवा
१२. शिर
७.
इन स्थापना के अनुसार भी ( चरण-स्थानीय) आचारांग और सूत्रकृतांग है।
श्रुत-पुरुष की अन्य रेखा कृतियों में स्थापना भिन्न प्रकार से मिलती है। उनमें मूल स्थानीय चार सूत्र हैंआवश्यक, दशवैकालिक, पिण्डनिर्युक्ति और उत्तराध्ययन। नंदी और अनुयोगद्वार को व्याख्या-ग्रन्थों (या नृतिका सूत्रों) के रूप में 'मूल' से भी नीचे प्रदर्शित किया है।
पैंतालीस आगमों को प्रदर्शित करने वाली श्रुत-पुरुष की रेखाकृति बहुत अर्वाचीन है। यदि इनकी कोई प्राचीन रेखाकृति प्राप्त हो तो प्रस्तुत विषय की प्रामाणिक जानकारी हो
८.
आचारांग सूत्रकृतांग
स्थानांग समवायांग
भगवती
ज्ञाताधर्मवत्था
उपासकदशा
अन्तकृद्दशा
अनुत्तरोपपातिकदशा
प्रश्नव्याकरण
विपाक
दृष्टिवाद
मूलाचार, ४।७२ मिलाइए - उत्तराध्ययन, ३६ । २६० मूलाचार, ४।७३ मिलाइए-उत्तराध्ययन, ३६।२६१
४. नंदी चूर्णि, पृ. ४७ इच्चेतस्स सुतपुरिसस्स जं सुतं अंगभागठित
तं अंगपविट्ठ भण्णइ ।
भी मूल स्थानीय
५.
नंदी, हारिभद्रया वृत्ति, पृ. ६० ।
६. नंदी, मलयगिरीया वृत्ति, पत्र २०३ : यद् गणधरदेवकृतं तदंगप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः, गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुतमुपरचयन्ति ।
श्री आगम पुरुषनुं रहस्य, पृ. ५० के सामने (श्री उदयपुर, मेवाड़ के हस्तलिखित भण्डार से प्राप्त प्राचीन) श्री आगम पुरुष का चित्र ।
श्री आगम पुरुषनुं रहस्य, पृ. १४ तथा ४६ के सामने वाला चित्र ।
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