Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ (११) प्रवृत्तियों में आचार्यश्री का हमें सक्रिय योग, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त था और आज भी वह अदृश्य रूप से प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्तिबीज है। सन् १९६७ में "उत्तरज्झयणाणि" दो भागों में प्रकाशित हुआ था। पहले भाग में मूल पाठ, छाया और अनुवाद था तथा दूसरे भाग में केवल टिप्पण और अन्यान्य परिशिष्ट। द्वितीय संस्करण सन् १९६३ में दो भागों में प्रकाशित हुआ। इसमें टिप्पण संलग्न है। प्रथम भाग में आदि के बीस अध्ययन तथा दूसरे भाग में शेष सोलह अध्ययन। प्रथम संस्करण में टिप्पणों की संख्या छह सौ थी, द्वितीय संस्करण में टिप्पणों की संख्या चौदह सौ हो गई। प्रस्तुत तृतीय संस्करण दोनों भाग समाहित है। इसमें ये नौ परिशिष्ट हैं१. पदानुक्रम ६. तुलनात्मक अध्ययन २. उपमा और दृष्टान्त ७. टिप्पण-अनुक्रम ३. सूक्त ८. विशेष शब्द ४. व्यक्ति-परिचय ६. प्रयुक्त ग्रन्थ। ५. भौगोलिक-परिचय कृतज्ञता ज्ञापन जिनके शक्तिशाली हाथों का स्पर्श पाकर निष्प्राण भी प्राणवान् बन जाता है तो भला आगम साहित्य जो स्वयं प्राणवान् है, उसमें प्राणसंचार करना क्या बड़ी बात है ? बड़ी बात तो यह है कि आचार्यश्री ने उसमें प्राण-संचार मेरी और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है। संपादन कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं था, उनका मार्गदर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त था। आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए अपना पर्याप्त समय भी दिया है। इनके मार्गदर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पा हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं। मैं आचार्यश्री के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन कर भार-मुक्त होऊ, उसकी अपेक्षा अच्छा है कि अग्रिम कार्य के लिए उनके मूक आशीर्वाद का संबल पा और अधिक भारी बनूं। आगम-संपादन के कार्य में अनेक साधु-साध्वियों का योग रहा है। आज भी वे इस सारस्वत कार्य में संलग्न हैं। इस संस्करण की समायोजना में सर्वाधिक योग मुनि दुलहराजजी का है। अन्यान्य मुनियों ने भी यथाशक्ति योग दिया है। मुनि श्रीचन्दजी, मुनि राजेन्द्र कुमार जी, मुनि धनंजय कुमार जी ने टिप्पण लेखन में योग दिया है। संस्कृत छाया लेखन में सहयोगी रहे हैं मुनि सुमेरमल जी 'लाडनूं' तथा मुनि श्रीचंद जी 'कमल'। टिप्पण अनुक्रम का परिशिष्ट तैयार किया है, मुनि राजेन्द्र कुमार जी, मुनि प्रशान्त कुमार जी तथा समणी कुसुमप्रज्ञा ने। मुनि सुमेरमलजी 'सुदर्शन' ने भी प्रूफ आदि देखने में अपना समय लगाया है। इस प्रकार प्रस्तुत संपादन में अनेक मुनियों की पवित्र अंगुलियों का योग रहा है। मैं उन सबके प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं और आशा करता हूं कि वे इस महान् कार्य के अग्रिम चरण में और अधिक दक्षता प्राप्त कर गणाधिपति तुलसी द्वारा प्रारब्ध इस कार्य को और अधिक गतिमान् बनाने का प्रयत्न करेंगे। आचार्यश्री प्रेरणा के अनन्त स्रोत थे। हमें इस कार्य में उनकी प्रेरणा और प्रत्यक्ष योग प्राप्त था। इसलिए हमारा मार्ग ऋजु बन गया था। आज भी परोक्षतः उन्हीं के शक्ति-संबल से हम इस सारस्वत कार्य में नियोजित हैं, गतिमान् हैं। उनका शाश्वत आशीर्वाद दीप बनकर हमारा कार्य-पथ प्रकाशित करता रहे, यही हमारी आशंसा है। आचार्य महाप्रज्ञ ३० जून २००० जैन विश्व भारती लाडनूं Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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