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१. आगम- सूत्रों का वर्गीकरण
जैन आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में प्राप्त होता है। पूर्व संख्या में चौदह थे' और अंग
बारह।
भूमिका
दूसरा वर्गीकरण आगम-संकलन-कालीन है। उसमें आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है-अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य।*
तीसरा वर्गीकरण इन दोनों का मध्यवर्ती है। उसमें आगम-साहित्य के चार वर्ग किए गए हैं
(१) चरण-करणानुयोग, (२) धर्मकथानुयोग, (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग
एक वर्गीकरण सबसे उत्तरवर्ती है। उसके अनुसार आगम चार वर्गों में विभक्त होते हैं
(१) अंग ( २ ) उपांग (३) मूल और (४) छेद ।
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नंदी के वर्गीकरण में मूल और छेद का विभाग नहीं है। उपांग शब्द भी अर्वाचीन है। नंदी के वर्गीकरण में इस अर्थ का वाचक अनंग-प्रविष्ट या अंग बाह्य शब्द है ।
आगमों का एक वर्गीकरण अध्ययन-काल की दृष्टि से भी किया गया है। दिन और रात के प्रथम एवं अन्तिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम 'कालिक' तथा दिन और रात के चारों प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम 'उत्कालिक' कहलाते हैं
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दशवैकालिक और उत्तराध्ययन अंग बाह्य आगम हैं।
१.
समवाओ, समवाय १४: चउद्दस पुव्वा प. तं. उप्पायपुव्वमग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुव्वं । अत्थीनत्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥ सच्चप्पवायपुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्यं च । कम्मण्पवायपुव्वं, पच्चक्खाणं भवे नवमं ।। विज्जा अणुप्पवायं, अबंझपाणाउ बारसं पुव्वं । तत्तो किरियविसालं, पुव्वं तह बिंदुसारं च ।।
२. वही, समवाय ८८ दुवालसंगे गणिपडिगे प. तं. - आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विआहपण्णत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुए दिलवाए।
३. नंदी, सूत्र ७३ अहवां तं समासओ दुविहं पण्णत्तं तं जहाअंगपविट्ठ अंगबाहिरं च ।
४.
ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, भाग-२, पृ. ४६६, पादटिप्पणी-१: Why these texts are called "root-Satras" is not quite clear, Generally the word müla is used in the sense of "fundamental text" in contradistinction to the commentary. Now as there old and important commentaries in existence precisely in the case of these texts, they were probably termed "Müla-texts."
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ये दोनों 'मूल सूत्र' कहे जाते हैं। २. मूल सूत्र
दशवैकालिक और उत्तराध्ययन गणधर कृत नहीं हैं, इसलिए अंग बाह्य हैं। इन्हें 'मूल' क्यों माना गया, इसका कोई प्राचीन उल्लेख उपलब्ध नहीं है । अनेक विद्वानों ने 'मूल' शब्द की अनेक आनुमानिक व्याख्याएं की हैं। " दशवैकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन" में इनका उल्लेख हम कर चुके हैं।
प्रो. विन्टरनित्ज ने 'मूल' शब्द को 'मूल ग्रन्थ' के अर्थ में स्वीकृत किया है । उनका अभिप्राय यह है इन सूत्रों पर अनेक टीकाएं हैं। इनसे 'मूल ग्रंथ' का भेद करने के लिए इन्हें 'मूल-सूत्र' कहा गया। यह प्रामाणिक नहीं है। प्रो. विन्टरनित्ज ने पिण्ड - नियुक्ति को भी 'मूल-वर्ग' में सम्मिलित किया है। किन्तु उसकी अनेक टीकाएं नहीं हैं। यदि अनेक टीकाएं होने के कारण ही 'मूल सूत्र' की संज्ञा दी गई। तो पिण्डनिर्युक्ति इस वर्ग में नहीं आ सकती ।
५
डॉ. सरपेन्टियर, डॉ. ग्यारीनो और प्रो. पटवर्धन ने 'मूल-सूत्र' का अर्थ 'भगवान् महावीर के मूल शब्दों का संग्रह किया है। किन्तु यह भी संगत नहीं है। भगवान् महावीर ने मूल शब्दों के कारण ही आगम को 'मूल' संज्ञा दी जाय तो वह आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को ही दी जा सकती है। वह सबसे प्राचीन और महावीर के मूल शब्दों का संकलन है।
५.
६.
The word Mala Satra is
दी उत्तराध्ययन सूत्र, भूमिका, पृ. ३२ In the Buddhist work Mahāvyutpatti 245, 1265 mülagrantha seems to mean 'original text', i.e. the words of Buddha himself. Consequently there can be no doubt whatsoever that the Jains too may have used mala in the sense of 'original text', and perhaps not so much in opposition to the later abridgments and commentaries as merely to denote the actual words of Mahāvīra himself. द रिलीजीयन द जैन, पृ. ७६ translated as "trates originaux.: ७. दशवेकालिक सूत्र, ए स्टडी, पृ. १६ We find however the word Mūla often used in the sense "original text", and it is but reasonable to hold that the word Müla appearing in the expression Mülasūtra has got the same sense. Thus the term Malasūtra would mean 'the original text', i.e., "the text containing the original words of Mahavira (as received directly from his mouth)". And as mater of fact we find, the style of Mülasütras Nos. 1 and 3 (उत्तराध्ययन and दसवैकालिक) as Sufficiently ancient to justify the claim made in their original title, that they represent and preserve the original words of Mahavira.
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