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भूमिका
उत्तरज्झयणाणि
चार माने हैं—(१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, (३) पिण्डनियुक्ति-ओघनियुक्ति और (४) दशवैकालिक। ये नाम उपाध्याय समयसुन्दर के नामों से भिन्न हैं। इसमें पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को एक मानकर 'आवश्यक' को भी 'मूल-सूत्र' माना गया है।
३. स्थानकवासी' और तेरापन्थ सम्प्रदाय में उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार-इन चार सूत्रों को 'मूल' माना गया है।
४. आधुनिक विद्वानों ने 'मूल-सूत्रों' की संख्या और क्रम-व्यवस्था निम्न प्रकार मानी है(क) प्रो. वेबर और प्रो. बूलर-उत्तराध्ययन,
आवश्यक और दशवकालिक को 'मूल-सूत्र' ठहराते
सकती है। जिस समय पैंतालीस आगमों की मान्यता स्थिर हुई, उसके आस-पास या उसी समय, संभव है श्रुत-पुरुष की स्थापना में भी परिवर्तन हुआ। चूर्णि-कालीन श्रुत-पुरुष के 'मूल-स्थान' (चरण-स्थान) में आचारांग और सूत्रकृतांग थे। उत्तर-कालीन श्रुत-पुरुष के 'मूल-स्थान' में दशवकालिक और उत्तराध्ययन आ गए। इन्हें 'मूल-सूत्र' मानने का यह सर्वाधिक संभावित हेतु है। ५. अध्ययन-क्रम का परिवर्तन और मूल-सूत्र
आगमिक-अध्ययन के क्रम में जो परिवर्तन हुआ, उससे भी इसकी पुष्टि होती है। दशवकालिक की रचना से पूर्व आचारांग के बाद उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था। दशवैकालिक की रचना होने के पश्चात दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पढ़ा जाने लगा।
प्राचीनकाल में आचारांग के प्रथम अध्ययन 'शस्त्रपरिज्ञा' का अध्ययन करा कर शैक्ष की उपस्थापना की जाती थी और फिर वह दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन 'षड्जीवनिका' का अध्ययन करा कर की जाने लगी।
प्राचीनकाल में आचारांग के द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशक के 'आमगन्ध' सूत्र का अध्ययन करने के बाद मुनि 'पिण्डकल्पी' होता था। फिर वह दशवैकालिक के पांचवें अध्ययन 'पिण्डैषणा' के अध्ययन के पश्चात् 'पिण्डकल्पी' होने लगा।
ये तीनों तथ्य इस बात के साक्षी हैं कि एक समय आचारांग का स्थान दशकालिक ने ले लिया। आचार की जानकारी के लिए आचारांग मूलभूत था, वैसे ही दशवैकालिक भी आचार-ज्ञान के लिए मूलभूत बन गया। संभव है आदि में पढ़े जाने के कारण तथा मुनि की अनेक मूलभूत प्रवृत्तियों के उद्बोधक होने के कारण इन्हें 'मूल-सूत्र' की संज्ञा दी गई। ६. मूल-सूत्रों की संख्या
१. उपाध्याय समयसुन्दर ने सामाचारी शतक' में (रचना-काल विक्रम सं. १६७२) 'मूल-सूत्र' चार माने हैं(१) दशवैकालिक, (२) ओघनियुक्ति, (३) पिण्डनियुक्ति और (४) उत्तराध्ययन।
२. भावप्रभसूरि (१८ वीं शताब्दी) ने भी 'मूल-सूत्र'
(ख) डॉ. सरपेन्टियर, डॉ. विन्टरनित्ज और डॉ. ग्यारिनो-उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक
और ओघनियुक्ति को 'मूल-सूत्र' मानते हैं। (ग) डॉ. सुबिंग-उत्तराध्ययन, दशवैकालिक,
आवश्यक, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को 'मूल-सूत्रों' की संज्ञा देते हैं।' (घ) प्रो. हीरालाल कापड़िया-आवश्यक, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, दशैकालिक-चूलिकाएं, पिण्डनियुक्ति
और ओघनियुक्ति को 'मूल-सूत्र' कहते हैं।
उक्त सब अभिमतों को संकलित करने पर 'मूल-सूत्रों' की संख्या आठ हो जाती है-आवश्यक, दशवकालिक, दशवैकालिक-चूलिकाएं, उत्तराध्ययन, पिण्डनियुक्ति, ओघनियुक्ति, अनुयोगद्वार और नंदी।
आगमों के वर्गीकरण में आवश्यक का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। अनंग-प्रविष्ट आगमों के दो विभाग किए हैं। उनमें पहला आवश्यक और दूसरा आवश्यक-व्यतिरिक्त है। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगम दूसरे विभाग के अन्तर्गत हैं, जब कि आवश्यक का अपना स्वतंत्र स्थान है। इसलिए इसे 'मूल-सूत्रों' की संख्या में सम्मिलित करने का कोई हेतु प्रस्तुत नहीं है।
ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति-ये दोनों आगम नहीं हैं, किन्तु व्याख्या-ग्रन्थ हैं। पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक के
१. व्यवहारभाष्य, उद्देशक ३, गाथा १७६ :
आयारस्स उ उवरि, उत्तरज्झयणा उ आसि पुव्वं तु।
दसवेयालिय उवरिं, इयाणिं किं ते न होंती उ।। २. वही, उद्देशक ३, गाथा १७४ :
पुव्वं सत्थपरिण्णा, अधीय पढियाइ होउ उवठ्ठवणा।
इण्हि च्छज्जीवणया, किं सा उ होउ उबटवणा ।।। ३. वही, उद्देशक ३, गाथा १७५ :
वितितमि बंभचेरे, पंचमउद्देस आगगंधम्मि। सुत्तमि पिंडकप्पी, इई पुण पिंडेसणाएओ।।
४. जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लोक ३० की स्वोपज्ञ वृत्ति-अथ उत्तराध्ययन
आवश्यक-पिण्डनियुक्ति : तथा ओघनियुक्ति-दशवकालिक-इति
चत्वारि-मूलसूत्राणि। ५. श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ, आगम और व्याख्या साहित्य, पृ. २७। ६. श्रीमज्जयाचार्य कृत प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध, आगमाधिकार, पृ. ७३-७४ । ७. ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ दी जैन्स, पृ.
४४-४५ ८. वही, पृ. ४८।
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