________________ उस में "पोत्थार" शब्द व्यवहृत हुआ है। जिसका अर्थ “लिपिकार" है / 24 पुस्तक लेखन को प्रार्य शिल्प कहा है / अर्धमागधी भाषा एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले लेखक को भाषाार्य कहा है / 25 स्थानाङ्ग में गण्डी२६ कच्छवी, मुष्टि, संपुटफलक, सुपाटिका इन पाँच प्रकार की पुस्तकों का उल्लेख है। दशवकालिक हारिभद्रीया वृत्ति में प्राचीन प्राचार्यों के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुये इन पुस्तकों का विवरण प्रस्तुत किया है। निशीथ चणि में इन का वर्णन है / 28 टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताडपत्र, सम्पूट का संचय और कर्म का अर्थ मषि श्रीर लेखनी किया है। जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध-साहित्य में भी लेखनकला का विवरण मिलता है। 26 वैदिक वाङमय में भी लेखनकला-सम्बन्धी अनेक उद्धरण हैं। सम्राट सिकन्दर के सेनापति निमार्स ने भारत यात्रा के अपने संस्मरणों में लिखा है कि भारतवासी लोग कागज-निर्माण करते थे। सारांश यह है—अतीत काल से ही भारत में लिखने की परम्परा थी। किन्तु जैन आगम लिखे नहीं जाते थे। आत्मार्थी श्रमणों ने देखायदि हम लिखेंगे तो हमारा अपरिग्रह महाव्रत पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं रह सकेगा, हम पुस्तकों को कहाँ पर रखेंगे, ग्रादि विविध दृष्टियों से चिन्तन कर उसे असंयम का कारण माना / 31 पर जब यह देखा गया कि काल की काली-छाया से विक्षुब्ध अनेक श्र तधर श्रमण स्वर्गवासी बन गये। श्रत की धारा छिन्न-भिन्न होने लगी। तब मूर्धन्य मनीषियों ने चिन्तन किया। यदि श्रतसाहित्य नहीं लिखा गया तो एक दिन वह भी पा सकता है कि जव सम्पूर्ण श्रुत-साहित्य नष्ट हो जाए। अत: उन्होंने श्रुत-साहित्य को लिखने का निर्णय लिया। जब श्रत साहित्य को लिखने का निर्णय लिया गया, तब तक बहुत सारा श्रुत विस्मृत हो चुका था। पहले प्राचार्यों ने जिस श्रुतलेखन को असंयम का कारण माना था, उसे ही संयम का कारण मानकर पुस्तक को भी संयम का कारण माना / 32 यदि ऐसा नहीं मानते, तो रहा-सहा श्रत भी नष्ट हो जाता / श्रत-रक्षा के लिये अनेक अपवाद भी निर्मित किये गये / जैन श्रमणों की संख्या ब्राह्म-विज्ञ और बौद्ध भिक्षुओं की अपेक्षा कम थी। इस कारण से भी श्र त-साहित्य की सुरक्षा में बाधा उपस्थित हुयी। इस तरह जैन आगम साहित्य के विच्छिन्न होने के अनेक कारण रहे हैं।। बौद्धसाहित्य के इतिहास का पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट होता है कि तथागत बुद्ध के उपदेश को व्यवस्थित करने के लिये अनेक बार संगीतियाँ हुई। उसी तरह भगवान महावीर के पावन उपदेशों को पूनः सुव्यवस्थित करने के लिये आगमों की बाचनाएँ हुई। आर्य जम्बू के बाद दस बातों का विच्छेद हो गया था। 33 24. प्रज्ञापनासूत्र पद-१ 25. प्रज्ञापनासूत्र पद-१ 26. (क) स्थानांगसूत्र, स्थान-५ (ख) बहत्कल्पभाष्य 3 / 3, 8, 22 (ग) आउटलाइन्स आफ पैलियोग्राफी, जर्नल आफ यूनिवर्सिटो ग्राफ बोम्बे, जिल्द 6, भा. 6 पृ. 87, एच. प्रार. कापडिया तथा अोझा, वही पृ. 4-56 27. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति पत्र-२५ 28. निशीथ चणि उ. 12 29. राइस डैविड्स : बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ. 108 30. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ. 2 31. क–दशवकालिक चूणि, पृ. 21 ख-बृहत्कल्पनियुक्ति, 147 उ.७३ ग-विशेषशतक--४९ 32. कालं पूण पडच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छि त्ति निवित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ ! -दशवकालिक चूर्णि, पृ. 21 33. गणपरमोहि-पुलाए, आहारग-खबग-उवसमे कप्पे / संजय-तिय केवलि-सिझणाण जंबुम्मि पच्छिन्ना / / -विशेषावश्यकभाष्य, 2593 [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org