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तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJÑA
वर्ष 30 ० अंक 115 0 जनवरी-मार्च, 2002
esearch Quarterly
अनुसंधान त्रैमासिकी
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जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (मान्य विश्वविद्यालय) JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE, LADNUN
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(DEEMED UNIVERSITY)
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_TULSI PRAJNA
Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL.-115
JANUARY-MARCH, 2002
Patron Sudhamahi Regunathan
Vice-Chancellor
Editor in Hindi Section Dr. Mumukshu Shanta Jain
English Section Dr. Jagat Ram Bhattacharya
Editorial-Board Dr. Mahavir Raj Gelra, Jaipur Prof. Satyaranjan Banerjee, Calcutta Dr. R.P. Poddar, Pune Dr. Gopal Bhardwaj,Jodhpur Prof. Dayanand Bhargava, Ladnun Dr. Bachh Raj Dugar, Ladnun Dr. Hari Shankar Pandey, Ladnun Dr. J.P.N. Mishra, Ladnun
Publisher : Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306
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सारमायारा
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Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute
VOL. 115
JANUARY-MARCH, 2002
Editor in Hindi Dr. Mumukshu Shanta Jain
Editor in English Dr. Jagat Ram Bhattacharya
Editorial Office Tulsi Prajna, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
LADNUN-341 306 (Rajasthan)
Publisher
: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306 (Rajasthan)
Type Setting : Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306 (Rajasthan)
Printed at
: Jaipur Printers Pvt. Ltd., Jaipur-302015 (Rajasthan)
Sbuscription (Individuals) Three Year 250/-, Life Membership Rs. 1500/Sub-Institutions/Libraries) Annual Rs. 200/
The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers, the Editors may not agree with them.
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जीवन का आधार - अहिंसा
भीयाणं पिव शरणं, पक्खीणं पिव गयणं, विसियाणं पिव सलिलं, सुहियाणं पिव असणं । समुद्दमज्झे व पोतवहणं चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्टियाणं व ओसहिवलं अउवीमज्झेव सत्थगमणं ॥
भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत होता है वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधार - प्रतिष्ठान है।
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अनुक्रमणिका/Contents
विषय
लेखक
नीरज जैन डॉ. बच्छराज दूगड़ डॉ. कुसुम भण्डारी प्राचार्य निहालचंद जैन
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जैनधर्म का प्राण-- तत्त्व : अहिंसा अहिंसा-एक समग्र चिन्तन भारतीय संस्कृति में अहिंसा व शांति का संदेश जैन संस्कृति एवं पर्यावरण-संरक्षण अहिंसा की वैज्ञानिक आवश्यकता और उन्नति के उपाय अहिंसा का विभिन्न रूपों का व्यवहारपरक विश्लेषण एवं शिक्षण आधुनिक परिस्थितियां के परिप्रेक्ष्य में भगवान् महावीर का चिन्तन गांधी-चिन्तन में अहिंसा
अजित जैन 'जलज'
प्रो. चान्दमल कर्णावट
रजनीश शुक्ल राजेन्द्रसिंह गुर्जर
नेतृत्व में अनेकान्त का प्रयोग व्यवहार में अनेकान्त दृष्टि का विकास
समणी डॉ. कुसुम प्रज्ञा साध्वी वर्धमानश्री
Ācārānga-Bhāșyam
Acārya Mahāprajña
Psychophysiological Essence of Meditation
Dr. J.P.N. Mishra
Eternal values for Divine Society
Dr. Anil Dhar
Role of Jeevan Vigyan (Science of Living) in transformation of Human Personality
S.C. Jain
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जैनधर्म का प्राण-तत्त्व : अहिंसा
- नीरज जैन
अहिंसा किसी मंदिर में या किसी तीर्थ-स्थान पर जाकर सुबह-शाम सम्पन्न किया जाने वाला कोई अनुष्ठान नहीं है। वह आठों-याम चरितार्थ किया जाने वाला एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है । वह संसार के सभी धर्मों का मूल है। धर्म की परिभाषा यदि एक ही शब्द में करने की आवश्यकता पड़े तो अहिंसा के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द नहीं है जो उस गरिमा को वहन कर सके। अहिंसा में ऐसी सामर्थ्य है कि वह विषमता से दहकते हुए चित्त में समता और शांति के फूल खिला सकती है।
मनुष्य प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है परन्तु उसे एक खतरा भी है । नारी कोख से जन्म लेकर भी उसका जीवनभर मनुष्य बने रहना निश्चित नहीं है । पशु-पक्षियों को ऐसा कोई भय नहीं। वे जिस रूप में जन्मते हैं, मरने तक उसी रूप में बने रहते हैं। पर मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। एक ओर यदि वह पुरुषार्थ कर ले तो नर से नारायण बनने की राह पर चल सकता है पर दूसरी ओर, यदि वह अधर्म और पाप के मार्ग पर कदम बढ़ा ले तो इसी चोले में रहते हुए उसे दानव या पशु बनते भी देर नहीं लगती। यदि मनुष्य को मनुष्यता के साथ गर्व से जीना है तो उसे जीवनभर साधना करनी पड़ेगी। उस साधना का नाम है अहिंसा । अहिंसा का दामन छोड़कर इन्सान का ज्यादा देर तक इन्सान बने रहना मुमकिन नहीं होता।
आज दुनिया में आतंकवाद, लूटमार और अराजकता का जो नंगा नाच हो रहा है उसका मूल कारण यही है कि कुछ अविवेकी जनों ने अपनी सनक पूरी करने के लिए हिंसा का रास्ता अपना लिया है। उनके भीतर सुलगती हिंसा की ज्वालाओं में आज पूरी मानवता के झुलसने की आशंका होने लगी है। क्या ईश्वर हमें वह बुद्धि देगा जिसके द्वारा हम अहिंसा को उसके सही अर्थों में पहिचाने और उसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश करें?
अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्यापक क्षेत्र में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं, इसलिए अहिंसा को परम
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धर्म कहा गया है । संसार में जल-थल और आकाश में सर्वत्र सूक्ष्म-जीव भरे हुए हैं, इसलिए बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होना संभव नहीं है। यदि अन्तरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियां यत्नाचार पूर्वक नियंत्रित कर ली जायें, तो बाह्य में सूक्ष्म जीवों का घात होते हुये भी साधक अपनी आन्तरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है।
अहिंसा का क्षेत्र संकुचित नहीं है । उसका प्रभाव भीतर और बाहर दोनों ओर होता है। दार्शनिक परिभाषा में चित्त का स्थिर बने रहना अहिंसा है । जीव का अपने साम्य-भाव में संलग्न रहना अहिंसा है । क्रोध-मान-माया-लोभ से रहित पवित्र विचार और सद्-संकल्प ही अहिंसा है। अंतरंग में ऐसी आंशिक समता लाये बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती।
____ अहिंसा पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह एक नकारात्मक विचार है और सांसारिक जीवन में व्यवहार्य नहीं है परन्तु अहिंसा पर जो अध्ययन हुआ है और समाज में अहिंसक जीवन के जो उदाहरण सामने आए हैं, उनके आधार पर ये दोनों आरोप निराधार सिद्ध होते हैं । यदि ऋषि-मुनियों की बात छोड़ भी दें, तो भी अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं । महात्मा गांधी ने अहिंसा के सकारात्मक प्रयोग करके रक्त-विहीन क्रान्ति के सहारे अपने देश को स्वाधीनता दिलाई थी। इसी प्रकार अनेक महापुरुषों ने हिंसा-रहित जीवन जीकर यह प्रमाणित कर दिया है कि अहिंसा अव्यावहारिक नहीं है । वह पूर्णतः व्यावहारिक है और जीकर दिखाने की कला है। जीवन से पलायन नहीं है अहिंसा
अहिंसा की साधना में लगा हुआ गृहस्थ हिंसा के लिए हिंसा नहीं करेगा। संकल्पीहिंसा उसके आचरण से निकल जायेगी। वह व्यापार अथवा नौकरी आदि के द्वारा अपने परिवार की आजीविका का उपाय करेगा। परिवार की पालना और सुरक्षा करेगा तथा अपने समाज पर, अपने देश, धर्म और साधु-संतों पर तथा तीर्थों-मंदिरों पर आने वाली बाधाओं का समुचित रूप से निराकरण करेगा। वह अपने राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र भी हाथ में उठाएगा। मरेगा भी और मारेगा भी, फिर भी इससे अधिक अहिंसा कहीं खण्डित नहीं होती। मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग कर देने से वह अहिंसक माना जायेगा।
मन में गौरवान्वित होकर चिन्तन करना होगा कि मैंने अमुक जीव का घात किया है और लज्जित होकर पश्चात्ताप करना कि नहीं चाहते हुए , बहुत बचाते हुए भी आज मेरे द्वारा अमुक जीव का घात हो गया; इन दोनों मनःस्थितियों में बड़ा अन्तर है। हिंसा करना है, करके रहूंगा और हिंसा से बचना है, मुझे हिंसा करनी पड़ रही है, इन दोनों संकल्पों में जो अंतर है, वही गृहस्थ को अपरिहार्य हिंसा के बावजूद अहिंसक बनाए रखता है। वह हिंसक नहीं है, हिंसा उसे करनी पड़ रही है। वह कर्त्तव्य भावना से कठोर होता है।
अहिंसा से व्यक्ति का जीवन निष्पाप बनता है और प्राणी-मात्र को अभय का आश्वासन मिलता है। इस व्यवस्था से प्रकृति का संतुलन बनाये रखने में सहायता मिलती है और पर्यावरण
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को संरक्षण मिलता है। इसीलिए तो संतों ने मनुष्य के संयत आचरण को जीव-मात्र के लिये कल्याणकारी कहा है।
इस विधान से यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है। जीवन से पलायन भी अहिंसा का उद्देश्य नहीं है। अहिंसा तो जीवन को व्यावहारिक बनाकर कर्तव्य
और धर्म के बीच संतुलन बनाते हुए स्व और पर के घात से बचने का उपाय है। अहिंसा मनुष्य के जीवन में मानवता की प्रतिष्ठा का उपाय है।
अहिंसा मानव-मन का स्थायी भाव है। राजनीति के कुचक्र में क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कहीं धर्म के नाम पर, कहीं भाषा के नाम पर बार-बार हिंसा को उकसाया जाता है। संतोंमहात्माओं के द्वारा जगाई अहिंसा की ज्योति को बुझााने का प्रयास किया जाता है परन्तु वह ज्योति केवल कांप कर रह जाती है, न बुझती है और न कभी बुझेगी। महावीर द्वारा परिभाषित अहिंसा
__ अहिंसा जैन-धर्म का प्राण है। इसलिए भगवान् महावीर के उपदेशों में अहिंसा की प्रेरणा के लिए और हिंसा के निषेध के लिए बार-बार जोर दिया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने महावीर की देशना का आधार लेकर हिंसा और अहिंसा की परिभाषा के लिये एक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा। अहिंसा के मार्ग से चारों पुरुषार्थ सिद्ध हो सकते हैं, ऐसा विश्वास करके उन्होंने उस ग्रन्थ का नाम रखा पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय । तीर्थंकर महावीर की परम्परा के सभी धर्माचार्यों ने अपने लोक-कल्याणकारी उपदेशों में अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए उसे जीवन में उतारने की प्रेरणा दी है। उन्हीं आर्ष वचनों के आधार पर अहिंसा के कुछ सूत्र हम यहां प्रस्तुत करेंगे।
चित्त में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों की उत्पत्ति ही हिंसा है। चित्त की निष्काम, निर्मल परिणति ही अहिंसा है। जीव जब राग-द्वेष-मोह रूप परिणामों से प्रेरित नहीं है तब उसके द्वारा किसी के प्राणों की हानि हो जाने पर भी वह अहिंसक है और जब राग आदि कषायों से युक्त है तब किसी के प्राणों का विघात न होने पर भी वह हिंसक है, क्योंकि चित्त का विकारी होना ही हिंसा है। हिंसा के संदर्भ में प्राय: यह समझा जाता है कि दूसरों को पीड़ा पहुंचाना हिंसा है। कोई व्यक्ति क्रोधित होकर किसी को मारता है तब निश्चित ही पिटने वाले व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक पीड़ा होती है। इसी पीड़ा को प्रायः हिंसा की सीमा समझ लिया जाता है । परन्तु पीटने वाले व्यक्ति की मानसिक या शारीरिक पीड़ा को या प्राणों के विघात को अनदेखा कर दिया जाता है, यह सम्पूर्ण सत्य नहीं है। यह तो अधूरा सत्य है। व्यक्ति जब क्रोधित होकर दूसरे को पीड़ित करता है तब उसके अपने तन और मन दोनों विकृत हो जाते हैं, उसका चित्त अशांत हो जाता है। वह अपने भीतर एक तनाव
महसूस करता है । इसके बाद ही वह दूसरे के साथ मार-पीट आदि दुर्व्यवहार करता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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है। जैन व्याख्या के अनुसार हिंसा के पूर्व हिंसक के तन और मन की विकृति भी हिंसा ही है। वह उसके अपने प्राणों का व्यपरोपण है और पहले वहीं हिंसा घटित होती है। इस तरह हिंसक व्यक्ति बाहर की हिंसा के पूर्व मन में हिंसा की भावना आते ही अपनी स्व की हिंसा का अपराधी हो जाता है और उसके दण्डस्वरूप पाप-बन्ध कर लेता
है।
अहिंसा निर्मल चेतना से अनुशासित, विधायक और व्यवहार्य जीवन-विधान है। वह मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है, मानवता की धुरी है। जैन आचार्यों ने अहिंसा को परम-धर्म कहा है और हिंसा को सबसे बड़ा पाप माना है। तप और व्रत साधन हैं : अहिंसा साध्य है
अहिंसा केवल एक व्रत नहीं है। वह एक विचार, एक समग्र-चिन्तन है।
सभी संसारी जीव सुख की कामना करते हैं और दुःखों से बचना चाहते हैं। दुःखी होना कोई कभी नहीं चाहता। हिंसा ऐसा पाप है जो मरने वाले और मारने वाले दोनों को दु:खी करता है। वह दुःख का मूल है, इसलिए स्वभावतः हम हिंसा से बचना चाहते हैं। इसके विपरीत अहिंसा सबके लिए सुखद है। सब जीव स्वभावतः अहिंसक वातावरण में जीना चाहते हैं और अहिंसक वातावरण में ही अपनी अंतिम सांस लेना चाहते हैं। हिंसक वातावरण किसी को इष्ट नहीं है।
जैन आचार पद्धति में गृह-निवास करने वाले गृहस्थों और गृह-त्याग कर तपस्या करने वाले मुनियों के लिए धर्म के दो भेद कहे गये हैं। गृहस्थों के लिए सागार-धर्म और मुनियों के लिए अनगार-धर्म । इसी आधार पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील और अपरिग्रह, इन पांच व्रतों को भी दो प्रकार से कहा गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और लोलुपता- इन पांच पापों का
आंशिक त्याग, जो गृहस्थों के लिए संभव है, उसे पंच अणुव्रत या छोटे व्रतों के रूप में निर्देशित किया गया और इन्हीं पापों का सम्पूर्ण त्याग, जो केवल मुनियों के द्वारा साध्य है, पांच-महाव्रत के नाम से कहा गया।
यहां ध्यान देने की बात यह है कि इन व्रतों में कहीं अहिंसा का नाम नहीं है। अहिंसा इन सबसे ऊपर, इन सबका अंतिम लक्ष्य मानी गई है। अहिंसा को साधन नहीं, साध्य माना गया है। अहिंसा की चरम और परम स्थिति प्राप्त करने के लिए ये सब उपाय हैं । अहिंसा से बड़ा कोई धर्म है ही नहीं।
जैन आचार्यों ने सिद्ध किया है कि झूठ-चोरी-कुशील और परिग्रह आदि सभी पाप हिंसा के ही रूप हैं, इसीलिए उन्होंने अहिंसा को साध्य बता कर सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शेष व्रतों को उसका साधक माना है। उन्होंने आन्तरिक अहिंसा को निश्चय-अहिंसा और बाह्य आचरण में पलने वाली अहिंसा को व्यवहार-अहिंसा कहा है।
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हिंसा के चार प्रकार
यह सृष्टि सूक्ष्म और स्थूल, स्थिर और जंगम जीवों से ठसाठस भरी हुई है। यहां कोई स्थान और कोई पदार्थ जीव-विहीन नहीं है, इसलिए मनुष्य को पूर्ण अहिंसक हो जाना संभव ही नहीं है। मन-वचन और काय की प्रवृत्ति होती रहे और हिंसा न हो, ऐसा संभव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में हिंसा से बचाकर, जीवन को अहिंसा की ओर प्रेरित करने के लिए जैन दार्शनिकों ने अल्पतम हिंसा वाली जीवन-पद्धति का आविष्कार किया है। उन्होंने व्यावहारिक वर्गीकरण करके हिंसा के संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी ये चार भेद किये हैं
1. संकल्पी - हिंसा - संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को पीड़ा देना या उसका वध करना संकल्पी - हिंसा है। आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, मानवता विरोधी हमलों और मांसभक्षण के लिए की गई शिकार आदि प्रवृत्तियों में होने वाली हिंसा इस परिभाषा में आती है। मांसाहार और शराब आदि में जो जीव-घात होता है वह भी संकल्पी हिंसा की कोटि में ही आता है। धार्मिक अनुष्ठानों का बहाना लेकर की जाने वाली पशु बलि आदि भी संकल्पी हिंसा है। यही हिंसा सबसे बड़े पाप की तरह हमारे लिए दुर्गति के द्वार खोलती है।
2. आरम्भी हिंसा - जीवन के लिए अनिवार्य कार्यों में, भोजन बनाने, नहाने धोने, वस्तुओं को उठाने रखने, उठने-बैठने, सोने- चलने-फिरने आदि क्रियाओं में जो जीव घात होता है उसे आरम्भी - हिंसा कहा गया है।
3. उद्योगी हिंसा - आजीविका उपार्जन के लिए नौकरी में, खेती में और उद्योग-व्यापार में अपरिहार्य रूप से जो हिंसा होती है वह उद्योगी-हिंसा की परिभाषा में आती है। इसमें यह स्मरणीय है कि अहिंसा का समर्थक व्यक्ति अपनी आजीविका के लिए ऐसे ही कार्य-व्यापार चुनेगा जिनमें कम से कम जीवघात हो । अधिक हिंसा वाले कार्यों से वह सदैव अपने आपको तथा अपने परिवार को बचाने की चेष्टा करेगा।
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4. विरोधी - हिंसा - अपने कुटुम्ब - परिवार की रक्षा करते समय, अपने शील-सम्मान और सम्पत्ति की रक्षा करते समय अथवा धर्म तथा देश के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करते समय और किसी आततायी या आक्रमणकारी का सामना करते समय जो हिंसा करनी पड़े वह विरोधी - हिंसा है।
साधक को गृहस्थ अवस्था में अपनी आजीविका के लिए, अपने परिवार तथा समाज के लिए और अपने राष्ट्र-धर्म तथा धर्मायतनों के लिए बहुत से कर्त्तव्य पालन करने होते हैं। इन चारों प्रकार की हिंसा का त्याग कर देने पर उन कर्त्तव्यों का निर्वाह नहीं हो सकता, इसलिए गृहस्थ को मात्र संकल्पी - हिंसा के त्याग का उपदेश दिया है। गृहस्थ के लिए आरम्भी - हिंसा अपरिहार्य मानी गई है। विरोधी और उद्योगी-हिंसा के बिना भी उसका जीवन निर्वाह संभव नहीं होता । इसलिए कर्त्तव्य - पूर्ति के लिए अनिवार्य मानकर शेष तीन हिंसाओं का त्याग उसे नहीं कराया
गया।
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आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिंसा के त्याग को अशक्य मानकर भी अहिंसा धर्म के अनुयायी से यह अपेक्षा की गई है कि कम से कम जितने में काम चल सके उससे तनिक भी निरर्थक या व्यर्थ हिंसा उसके द्वारा न हो। पग-पग पर हिंसा से बचने की भावना रखते हए ऐसी सावधानी से अपना जीवन निर्वाह करने का उपदेश गृहस्थ को दिया गया है । इसे यों भी कह सकते हैं कि अहिंसा का आराधक हिंसा करना नहीं चाहता, पर परिस्थितिवश वह उसे करनी पड़ती है। जीवन की यही सावधानी अहिंसक जीवन-पद्धति का प्राण है। यही भगवान महावीर के द्वारा प्रदान किये गये प्राणीमात्र के लिए हितकर और कल्याणकारी उपदेश का रहस्य है। त्रस-हिंसा और स्थावर-हिंसा
संसार के समस्त प्राणी त्रस और स्थावर के रूप में दो प्रकार के हैं। कहीं-कहीं इन्हें स्थावर और जंगम जीव भी कहा गया है। स्वतः जो चल-फिर नहीं सकते ऐसे पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु तथा वनस्पति-ये पांच स्थावर या स्थिर जीव हैं । इनके अतिरिक्त जो चलतेफिरते दिखाई देते हैं, वे सब त्रस या जंगम जीव हैं। अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणुओं से लगाकर जलचर, नभचर और थलचर, पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि सृष्टि के समस्त प्राणी इस त्रस या जंगम की परिभाषा में आते हैं।
साधक को अपना जीवन-निर्वाह करने के लिए जो कार्य करने पड़ते हैं उनमें स्थावर जीवों की हिंसा निरंतर होती रहती है। यह जीवन की अनिवार्यता है, अतः उसके त्याग का उपदेश नहीं दिया गया। इतनी अपेक्षा अवश्य की गई है कि अहिंसा का आदर करने वाला व्यक्ति जल, वायु और वनस्पति आदि का भी ऐसी सावधानी से उपयोग करेगा कि उसके आचरण से इन स्थावर जीवों का भी निरर्थक विनाश न हो। असावधानी या लापरवाही से यदि इन स्थावर जीवों का, दूसरे शब्दों में कहें तो क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर और वनस्पति का आवश्यकता से अधिक घात होता है तो वह अपराध है।
त्रस जीवों की रक्षा के लिए तो साधक को प्रतिक्षण सावधान रहना होता है। सुविचारित जीवन-शैली में कहीं एक भी त्रस-जीव का विघात अनिवार्य नहीं है। हर मनुष्य को उससे बच कर ही अपने जीवन का निर्वाह करना चाहिए। यही अहिंसा की साधना है। इसमें पाप-पुण्य के विचार के साथ लोक-कल्याण की भावना भी निहित है।
आज टी.वी., रेडियो, नल-बिजली, पंखा-कलर, हीटर, गैस और स्टोव हमारे जीवन की प्राथमिक आवश्यकता में आते हैं। उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु लापरवाही पूर्वक कई बार उनका जो निरर्थक-प्रयोग होता रहता है, बिना जरूरत वे खुले या चालू पड़े रहते हैं, उसे रोककर हम अहिंसा के कुछ अधिक निकट पहुंच सकते हैं। यह सब राष्ट्रीय अपव्यय भी है, अत: इसे रोकना एक तरह की देश-सेवा भी कही जा सकती है।
हिंसा के दोष का निर्णय उसकी भावना के आधार पर ही किया जाता है। यह तो पहले ही समझा जा चुका है कि हिंसा की नींव चार कषायों-क्रोध-मान-माया-लोभ पर आधारित
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है। कषाय होती है तो हिंसा होती है। कषाय नहीं होती है तब हिंसा भी नहीं होती है। कषाय जितनी कम होगी, हिंसा भी उतनी ही कम होगी।
इस प्रकार हिंसा का स्तर निर्धारित करने के दो साधन हैं-जीवों के विकास के स्तर का आपसी अन्तर और कषाय की मात्रा । यदि सभी जीवों की हिंसा का कुफल समान होता या हिंसा का पाप हिंसित जीवों की संख्या पर निर्भर होता, तो एक व्यक्ति जो दो-चार गाजर-मूली उखाड़ लेता है और दूसरा व्यक्ति जो एक मनुष्य की हत्या कर देता है, दोनों को समान पापी माना जाता। बल्कि मनुष्य का हत्यारा कुछ कम पापी माना जाता, क्योंकि उसने सिर्फ एक प्राणी की हिंसा की है। परन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि जिनका विघात हुआ है उन जीवों के स्तर में अन्तर है।
स्थावर जीवों की हिंसा के समय उनकी ओर से कोई प्रतिकार नहीं होता। किसी तरह के दुःख की भावना भी उनमें व्यक्त होती दिखाई नहीं देती, इसलिए पृथ्वी-जल-वायु-अग्नि और वनस्पति की हिंसा के समय हमारे मन में विशेष क्रूरता या कषाय अनिवार्य नहीं है । इसीलिए उस हिंसा का फल भी अल्प है । जैसे-जैसे हम एक इन्द्रिय से पंच-इंद्रिय प्राणी की हिंसा की
ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे हमारे मन में कषाय की मात्रा बढ़ती जाती है, परिणामों में क्रूरता अनिवार्य होती जाती है, अत: उसमें उत्तरोत्तर अधिक हिंसा होती है। उसका फल अधिक दुःखदायक होता है। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा
हिंसा मन-वाणी और शरीर तीनों के माध्यम से होती है। परन्तु जब हिंसा की बात आती है तब प्रायः वाणी और शरीर के माध्यम से होने वाली हिंसा को रोकने पर ही जोर दिया जाता है। मन के माध्यम से होने वाली हिंसा को रोकना अनावश्यक, उपेक्षनीय या असम्भव मानकर उसकी चर्चा छोड़ दी जाती है। जैनाचार्यों ने मन के माध्यम से होने वाले पापों को रोकने पर अधिक जोर दिया है। उनकी मान्यता है कि मन के पाप रोके बिना वचन और काय के पाप नहीं रोके जा सकते । उन्होंने यह भी माना है कि जीव की करनी से जो कर्म संचित होता है उस कर्म में फल देने वाली शक्तियां जीव की तात्कालिक मानसिक दशा के आधार पर ही उत्पन्न होती है।
इस चिन्तन के आधार पर जैन संतों ने हिंसा को भाव-हिंसा और द्रव्य-हिंसा दो प्रकार के भेद से कहा है । प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने का या उनके घात करने का विचार करना भावहिंसा है और पीड़ा पहुंचाने वाली क्रिया द्रव्य-हिंसा है। हिंसा के हर काम की जड़ में भाव-हिंसा अनिवार्य रूप से मौजूद रहती है परन्तु यह नियम नहीं है कि जहां भाव-हिंसा हो वहां उसके फल-स्वरूप हिंसा हो ही जाये। इसका कारण यह है कि किसी का विघात केवल हमारे सोचने से या हमारे कुछ करने मात्र से नहीं हो जाता । जीव का विघात होने में उसका अपना प्रारब्ध तथा अन्य अनेक बाहरी कारण भी महत्त्व रखते हैं।
यह निश्चित है कि किसी का विघात हो या न हो, हिंसा के परिणाम करने वाले जीव को उस विधात का पाप लगता है। उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है। इस प्रकार हमारे कर्म-बंध तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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में द्रव्य-हिंसा से अधिक भाव-हिंसा कारण बनती है। इससे एक तथ्य यह भी प्रगट होता है कि अपने मन की मलिनता के कारण हम ऐसे अनगिनत पापों के फल भोगते रहते हैं जो हमने कभी किये ही नहीं होते। केवल चित्त की चंचलता के कारण और राग-द्वेष की तीव्रता के कारण तरह-तरह के कुत्सित विचार हमारे मन में उठते रहते हैं । परिणामतः कुछ किये बिना भी मन की उन विकारी तरंगों के दुःखद परिणाम भोगने के लिए हम विवश हो जाते हैं।
भाव-हिंसा और द्रव्य-हिंसा की तरह पाप-वृत्तियों को मानसिक और भौतिक या स्थूलता के स्तर पर, दोनों प्रकार से समझना चाहिये।झूठ भी भाव-झूठ और द्रव्य-झूठ के प्रकार से दो तरह का है। चोरी और कुशील भी इसी तरह दो-दो प्रकार के हैं। इसी प्रकार परिग्रह को भी मानसिक और भौतिक स्तर का भेद करके समझना होगा। चार मनस्थितियां : चार परिस्थितियां
मन, वाणी और शरीर के दुष्प्रयोग से होने वाली हिंसा में चार संभावनाएं बनती हैं
1. एक व्यक्ति ने खेत पर एक सांप देखा। उसे मारने का विचार किया। यह भाव-हिंसा हो गई। फिर उसने डण्डा उठाकर उसे मार डाला, यह द्रव्य-हिंसा हो गई।
2. उसने डण्डा उठाया तब तक सांप भाग गया। वह चाहते हुए भी उसे मार नहीं पाया। यहां भाव-हिंसा तो हुई परन्तु द्रव्य-हिंसा घटित नहीं हुई।
____3. एक व्यक्ति बैलगाड़ी हांक रहा था। धोखे से सांप उसके नीचे कुचल कर मर गया। सांप को मारने का उसका कोई इरादा नहीं था। यहां भाव-हिंसा का अभाव था परन्तु द्रव्य-हिंसा घटित हो गई।
4. एक व्यक्ति खेत में सांप को देखकर भी उसे मारने का विचार नहीं करता। वह सोचता है-इसने अपना कुछ बिगाड़ा नहीं, सृष्टि में सभी प्राणियों को जीने का अधिकार है, व्यर्थ इसके प्राण लेने से मुझे क्या प्रयोजन ! इस दृश्य में न तो भाव-हिंसा है और न ही द्रव्य-हिंसा है।
चारों स्थितियों में हिंसा के पाप का फल व्यक्ति के मनोभावों के अनुरूप अलग-अलग होगा।
इसी प्रकार मन-वाणी और शरीर के अनुशासन से अहिंसा में भी चार संभावनाएं बनती
1. हिंसा-त्याग की भावना से रहित, अमर्यादित, राग-द्वेष-मोह से भरा हुआ स्वच्छन्द जीवन, जहां व्रत और पाप-त्याग के बिना निरन्तर भाव-हिंसा होती रहती है और मन-वचनकाय के असंयम के कारण प्रतिक्षण द्रव्य-हिंसा भी हो रही है। यहां भाव हिंसा भी है और द्रव्य-हिंसा भी है।
2. कोई बहेलिया जाल फैलाकर बैठा है। संयोगवश एक भी पक्षी जाल में नहीं फंसा। यहां भाव-हिंसा तो है परन्तु द्रव्य-हिंसा नहीं है।
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3. कोई डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है। रोगी के तन-मन को तो पीड़ा हो रही है पर वह पीड़ा उसे कष्ट देने के लिये नही, आराम पहुंचाने के लिए दी जा रही है। यहां भाव-हिंसा नहीं है परन्तु द्रव्य-हिंसा है।
4. कोई साधक व्यक्ति ऐसा संकल्प करता है कि अमुक समय तक ऐसी सावधानी से चलना है कि मेरे द्वारा किसी जीव की हिंसा न हो जाये।वह ऐसे यत्नाचार पूर्वक अपने आवश्यक कार्य कर भी लेता है कि किसी जीव की हिंसा उसके माध्यम से नहीं होती। यहां दोनों प्रकार की हिंसा नहीं है। यहां भी चारों स्थितियां में कर्ता के मनोभावों के अनुरूप उसे जुदे-जुदे कर्म बंधेगे या फल मिलेंगे। किसे कितनी सजा
किसी नगर में एक दिन तीन घटनाएं घटती हैं। तीनों में एक-एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। किसी व्यक्ति को लूटने के लिए एक डाकू उसके सीने में छुरी भौंक देता है। दूसरी जगह किसी वाहन दुर्घटना में एक व्यक्ति कुचल कर मर जाता है। तीसरी घटना में एक रोगी ऑपरेशन की मेज पर शान्त हो जाता है।
तीनों घटनाओं में एक-एक व्यक्ति के निमित्त से एक-एक व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है । इस प्रकार स्थूल दृष्टि से तीनों घटनाओं का प्रतिफल एक होते हुए भी तीनों व्यक्तियों की मानसिकता में बहुत अन्तर है। उनके अभिप्राय एकदम अलग-अलग हैं। इसीलिए पुलिस की डायरी में और न्यायालय के फैसले में डाकू, ड्राईवर और डॉक्टर-इन तीनों के लिए जुदीजुदी दण्ड-व्यवस्था होगी। उनका अपराध घटना के प्रतिफल से नहीं, तीनों के अभिप्रायों से और उनके मानसिक संकल्पों से तोला जायेगा।
डाकू को हत्या का दोषी ठहराया जाएगा और उसे मृत्यु दण्ड जैसा कठोर दण्ड दिया जा सकता है। उसके द्वारा आहत व्यक्ति यदि बच भी जाए, तो भी डाकू को हत्या के प्रयास के लिए दण्डित किया जाएगा। ड्राइवर को हत्या का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उसे घटना के तथ्यों के अनुरूप या तो दोषपूर्ण वाहन चलाने के लिए अथवा असावधानी से वाहन चलाने के लिए दोषी मानकर हल्का दण्ड दिया जाएगा। परन्तु डॉक्टर किसी दण्ड का भागी नहीं होगा। अन्तिम सांस तक रोगी को बचाने का उपाय करने के लिए उसकी प्रशंसा की जाएगी। पुलिस और कानून तो उससे कुछ बोलेंगे ही नहीं, रोगी के सम्बन्धी भी उसका उपकार ही मानेंगे।
लोक-परलोक की व्यवस्था भी ऐसी ही है। कर्म-बन्ध और कर्म-फल का गणित भी लौकिक कानून के अनुरूप पूरी तरह ऐसे ही प्राकृतिक न्याय पर आधारित है। द्रव्य-हिंसा या भौतिक-हिंसा का स्वरूप चाहे जैसा हो, उसमें संलग्न सभी लोगों को अपनी-अपनी भाव-हिंसा के अनुसार कर्म-बन्ध होता है। इसीलिए तो कभी-कभी दूर बैठा हुआ व्यक्ति उस पाप का भागीदार होता है जबकि उस हिंसा में साक्षात् संलग्न व्यक्ति उतना भागीदार नहीं होता। कोई करता हुआ दिखाई देता है पर यथार्थ कर्ता नहीं है। कोई करता नहीं है फिर भी उसे कर्म का तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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कर्त्ता ठहराया जाता है और उसे उस कर्म का फल भोगना पड़ता है। भावों की ऐसी ही विचित्रता है । इसीलिए पाप में जाते मन को अंकुश लगाने की आवश्यकता है। मानसिक पाप भी उतना ही गंभीर पाप है।
विचित्र हैं हिंसा के समीकरण
द्रव्य - हिंसा और भाव-हिंसा के ऐसे-ऐसे समीकरण बनते हैं कि कई बार हिंसा और अहिंसा का गणित विचित्र - सा लगने लगता है। जैसे कहीं हिंसा एक व्यक्ति करता है और उससे होने वाला पाप-बंध अनेकों को होता है या हिंसात्मक कार्य अनेक लोग मिलकर करते हैं किंतु फल एक ही व्यक्ति को भोगना पड़ता है। इस गणित के कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत करेंगेकरे एक : भोगें अनेक
कुछ लोग पशु-पक्षियों को लेकर क्रूर खेलों का प्रदर्शन करते हैं। इन खेलों में अनेक पशु-पक्षियों को कष्ट होता है, वे मर भी जाते हैं। खेल का आयोजन या उन्हें दिखाने का कार्य
लोग करते हैं वे तो पाप के भागी होते ही हैं परन्तु हजारों लोग जो उन खेलों को देखने जाते हैं, उन्हें पैसे देकर प्रोत्साहित करते हैं और उनकी प्रशंसा - अनुमोदना करते हैं, वे सब भी उस हिंसा के भागीदार होते हैं। यहां करने वाला एक होता है या कुछेक होते हैं और उसका फल भोगने वाले अनेक या बहुत होते हैं ।
करें अनेक : भोगे एक
एक राज्य का स्वामी दूसरे राज्य पर आक्रमण करके उसके साथ युद्ध छेड़ देता है। हजारों सैनिक एक-दूसरे को मारते हुए मर जाते हैं या कोई दुष्ट व्यक्ति प्राणी हिंसा का कोई गुप्त षड्यंत्र करके उसमें अनजान लोगों का सहयोग लेकर अनेक लोगों के प्राण हर लेता है। ऐसी घटनाओं में हिंसा का कारण सिर्फ युद्ध छेड़ने वाला या षड्यंत्र करने वाला व्यक्ति ही है। वही वास्तव में हिंसक है और उस पूरी हिंसा का जिम्मेदार है। सैनिक या अन्य सहायक लोग तो केवल अपनी आजीविका के लिए शस्त्र चलाते हैं या अनजाने में उस कार्य में शामिल हो गये होते हैं। उन्होंने ऐसी नौकरी चुनी या मजबूरी में उन्हें ऐसी नौकरी स्वीकार करनी पड़ी अथवा उस काम में सहायक होने के पहले उन्होंने उस कार्य के परिणाम की खोजबीन नहीं की। उतनी दूर तक तो वे उसके फल के भागीदार अवश्य होंगे, परन्तु यहां करने वाले अनेक होते हुए भी उस हिंसा का सर्वाधिक कुफल पाने वाला तो उसका संयोजक ही होता है। सभी सहायकों को एक बराबर पाप नहीं लगता, सबको अपने-अपने भावों के अनुरूप कर्म का फल मिलता है ।
करें थोड़ा : भोगे बहुत
हिंसा के तीव्र परिणामों में यदि हिंसा अल्प भी होगी तो भी उस हिंसा का तीव्र फल भोगना पड़ेगा। किसी के परिणाम तो अधिक तीव्र-हिंसा के नहीं हैं, परन्तु अचानक उसके हाथ से हिंसा अधिक हो गई, ऐसी स्थिति में अधिक हिंसा होते हुए भी फल अल्प ही भोगना पड़ेगा । कभी-कभी ऐसा हुआ है कि बालक की आदतें सुधारने के लिए मां ने उसे एक-दो चांटें मारे
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और मर्म-स्थल पर चोट लगने के कारण बालक की मृत्यु हो गई। ऐसी घटना में मां के अभिप्राय को देखते हुए उसे हत्यारिन नहीं कहा जाता। उसे हत्या का पाप भी नहीं लगेगा। करें समान : भोगें हीनाधिक
कभी कई लोग मिलकर हिंसा का कोई कार्य करते हैं। ऐसा समझना ठीक नहीं होगा कि उसका फल भी उन्हें एक बराबर ही लगेगा। कार्य करते समय उसे लेकर सबकी भावनाएं जुदीजुदी हैं। किसी के मन में तीव्रता है, किसी के मन में मन्दता है। हो सकता है उस समय किसी के मन में उस कार्य के प्रति अरुचि भी हो । कार्य सम्मिलित प्रयत्नों से हुआ है फिर भी अपनीअपनी भावनाओं के अनुरूप किसी को हिंसा का अधिक फल भोगना पड़ेगा और किसी को कम पाप लगेगा। करें बाद में : फल पायें पहले
___ हिंसा के संकल्प में और हिंसा की क्रिया में समय-भेद होता है। पाप-बंध तो संकल्प के साथ ही हो जाता है। हिंसा बाद में होती रहती है। ऐसे में कई बार हिंसा होने के साथ ही साथ हिंसक को उसका फल भी मिल जाता है। कई बार फल पहले ही मिल जाता है, हिंसा बाद में होती है। करे कोई : भरे कोई
कई बार अनजान व्यक्ति को या भोले बालकों को फुसलाकर किसी को गोली का निशाना बनवा दिया जाता है। कई बार किराये के हत्यारों के माध्यम से अपनी राह का रोड़ा हटाया जाता है। ऐसी हालत में जिसके हाथ से प्राणी-घात होता है उसे पाप तो लगता है पर उस व्यक्ति को प्रेरित करने वाले, प्रोत्साहित करने वाले या नियोजित करने वाले को उससे कहीं अधिक पाप लगता है। पाप के लिए प्रेरणा देने वाला ही वास्तविक पापी माना जाता है।
इस प्रकार हिंसा की योजना और हिंसा की क्रिया के अनुसार उसके समीकरण बदलते रहते हैं। परन्तु यह अटल नियम है कि हिंसा के अपराधी को भाव-हिंसा के अनुरूप फल भोगना ही पड़ता है। कर्म की अदालत में प्राकृतिक न्याय होता है। वहां कोई छल-कपट नहीं चलता। हिंसा-प्रतिहिंसा का अंतहीन सिलसिला
कुछ लोग हिंसा के जवाब में हिंसा के द्वारा ही उसका उत्तर देना आवश्यक और उचित मानते हैं। उनका भी विश्वास है कि इस प्रकार प्रतिहिंसा के प्रयोग से हिंसा को समाप्त किया जा सकता है। परन्तु ऋषि-मुनियों के वचनों से और अपने अनुभवों से भी यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है कि प्रतिहिंसा किसी हिंसा को रोकने या समाप्त करने का उपाय नहीं है। उससे तो हिंसा और पनपती है। बैर-विरोध को और प्रोत्साहन ही मिलता है। बैर की यह वासना जन्मान्तर तक जीव के साथ रहती है। अवसर पाते ही वह अपना बदला लेता है। इस प्रकार हिंसा-प्रतिहिंसा की यह श्रृंखला कहीं टूटती नहीं, अंतहीन होती चली जाती है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 -
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इस प्रसंग में सदन कसाई की कथा याद आती है। सदन किसी धनिक की भोजनशाला के लिये मांस की व्यवस्था करता था। एक दिन खाने वाले अधिक नहीं थे, अतः सदन ने विचार किया-'बकरे को पूरा काटने से क्या लाभ? जितना चाहिए उतना ही मांस निकालूं ताकि कल भी ताजा मांस मिल सके।
सदन छुरी लेकर बकरे के सामने आया। उसे देखकर बकरा हंस पड़ा। पूछने पर बकरे ने कहा-'अब शायद हमारी दुश्मनी घट जाएगी। एक जन्म में तू मुझे कसाई बनकर काटते हो, फिर दूसरे जन्म में तुम बकरा बनकर जन्मते हो और मैं कसाई बनकर तुम्हें काटता हूं। यह सिलसिला अनेक जन्मों से चला आ रहा है। आज तुम सिर्फ अंग-भंग करने के इरादे से आये हो न? यदि ऐसा होता है तो हमारी दुश्मनी कुछ तो घटेगी। हर जन्म में थोड़ी-थोड़ी भी घटती रही तो किसी दिन यह समाप्त भी हो जाएगी। आज जितना मांस तुम लोगे, अगले जन्म में मैं तुम्हारे शरीर से उससे कुछ कम ही लूंगा।'
कहते हैं सदन हमेशा के लिए छुरी फेंक कर भाग गया। फिर उसके जीवन की दिशा ही बदल गई।
चिन्तनीय बिन्दु है कि कैसे घटे हिंसा-प्रतिहिंसा का व्यवहार? आग को कैरोसिन या पेट्रोल से नहीं बुझाया जा सकता। उसे बुझाने के लिए पानी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। हिंसा को भी प्रतिक्रिया या क्रोध से कभी समाप्त नहीं किया जा सकता।क्षमा और समता से ही उस वासना को निर्मूल किया जा सकता है। उसका अन्य कोई उपाय नहीं है। हिंसा के बारे में कुछ भ्रांतियां
जैसे-जैसे हिंसा का प्रसार होता गया और मांसाहार बढ़ता गया, वैसे इन्द्रिय-लोलुप व्यक्तियों ने अपनी करनी को तर्क और धर्म-ग्रन्थों के आधार पर उचित ठहराने के प्रयत्न भी किये। अनेक शास्त्रों में प्रक्षेपण करके हिंसा-समर्थक प्रसंग जोड़ दिये । अर्थ का अनर्थ किया गया। अनेक असंगत मान्यताओं का आधार लेकर हिंसा को पुण्य और धर्म से भी जोड़ा गया। यहां हम कुछ धारणाओं का उल्लेख करेंगे
१. पूज्य पुरुषों के स्वागत-सत्कार में हिंसा करना।
२. शाकाहार में अनेक जीवों की हिंसा होती है परन्तु मांसाहार में एक पशु को मारने से ही काम चल जाता है, इसलिए मांसाहार ही भला है, ऐसा कुतर्क देकर मांसाहार को उचित ठहराना।
३. हिंसक जीवों को मार देने से अनेक जीवों की रक्षा होती है, ऐसा मानकर हिंसक प्राणियों की हिंसा को उचित मानना।
४. दुःखी जीवों को दुःख से छुड़ाने के लिये मार डालना।
५. सुख की हालत में जीव को मार देने से दूसरे भव में उसे वैसा ही सुख मिलता है, अत: किसी जीव के लिए सुख की स्थिति उत्पन्न करके परभव में सुख की कामना करके उसे उस हालत में मार डालना। 12 ।
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६. समाधि से सुगति की प्राप्ति होती है, ऐसा मानकर समाधिस्थ साधु का सिर काट लेना। समाधिस्थ दशा में मरेगा तो सीधा मोक्ष जायेगा, ऐसा मानकर गुरु का ही घात कर देना।
७. देवताओं के लिए हिंसा करना। पूजा, यज्ञ आदि में पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाना।
८. दूसरे को भोजन देने के लिए अपने शरीर का मांस निकाल कर देना, इस प्रकार स्वघात करना।
ये सारी क्रियायें हिंसा ही हैं। मनमाने आधार देकर इन क्रियाओं को धर्म की परिभाषा में समाहित करना या हिंसा-रहित बताना न तो तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है और न ही पाप-पुण्य के संदर्भ में उसका कोई औचित्य सिद्ध होता है । हिंसा का कार्य धर्म तो किसी भी प्रकार हो ही नहीं सकता। जो हिंसा करेगा वह नियम से पाप का भागी होगा। जो अग्नि में हाथ डालेगा वह जलेगा, यही प्राकृतिक न्याय है अहिंसा के समर्थन में ऋषियों की वाणी
अहिंसा को प्रायः सभी विचारकों ने परम-धर्म कहा है। तुलसीदास ने श्रुतियों की साक्षी से कहापरम धरम श्रुति विदित अहिंसा, पर निन्दा सम अघ न सरीसा।
(रामचरितमानस, उत्तराकाण्ड, १०२-ख) किन्तु मानस में ही अन्यत्र उन्होंने सत्य को भी परम-धरम कह दिया- धरमु न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना।
(अयोध्याकाण्ड, ९४) गोस्वामीजी ने परम-धरम की एक और परिभाषा करके परोपकार को भी परम-धरम कह दियापरहित सरित धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
(उत्तराकाण्ड, ४०) अब यदि इन तीनों पंक्तियों को एक साथ पढ़ा जाए तो मन में उलझन पैदा होती है। एक प्रश्न उठता है कि परम-धरम तो एक ही होना चाहिए । वह तीन प्रकार का कैसे हो सकता है? हर कहीं प्रधान तो एक ही होता है। दो तो परम नहीं हो सकते। परन्तु विचार करने पर सुगमतापूर्वक इसका समाधान इस प्रकार हो जाता है
हमारे पास मन, वाणी और शरीर, ये तीन ही साधन हैं। धर्म तो वही हो सकता है जो इन तीनों में बस जाये, इन तीनों को पवित्र करे । वास्तव में परम-धरम तो एक ही है और वह है 'अहिंसा'। मन का सारा सोच-विचार और मन के सारे संकल्प अहिंसा पर आधारित और अहिंसामय होने चाहिए। हमारे कृत्य पर नहीं। हमारे भाव भी अहिंसामय हों, यह अहिंसा की अनिवार्य शर्त है। अतः चिन्तन के स्तर पर अहिंसा ही परम धर्म है।
मन की वह अहिंसा जब शब्दों का रूप धारण करके वाणी में उतरती है तब सत्य को परम-धर्म की संज्ञा मिलती है। इसी प्रकार शरीर के माध्यम से जब अहिंसा आचरण में उतरती है तब वह पर-हित का काम,परम-धर्म कहा गया है। ध्यान रखना होगा कि सत्य और परोपकार तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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कोई पृथक् धर्म नहीं है, वाणी और शरीर के ये दोनों परम-धर्म मिलकर अहिंसा को श्रेय देते हैं। उसकी प्रतिष्ठा करते हैं, इसलिए उन्हें परम धर्म' कहा गया है।
__ महाभारत में अहिंसा का उपदेश पग-पग पर मिलता है। शांतिपर्व में एक जगह कहा गया है कि अध्ययन-मनन, यज्ञ, तप, इन्द्रिय-संयम एवं अहिंसा-धर्म का पालन जिस क्षेत्र में होता हो वहीं व्यक्ति को निवास करना चाहिये।
(महाभारत, शांतिपर्व, ३०४-८८-८९) महाभारत में अन्य अनेक प्रसंगों में अहिंसा को नैतिक तथा धार्मिक दोनों दृष्टियों से सर्वोच्च प्रतिष्ठा देते हुए कहा गया है कि अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा ही परम तप है, अहिंसा ही परम सत्य है और अहिंसा ही धर्म का प्रवर्तन करने वाली है। यही संयम है, यही दान है, परम ज्ञान है और यही दान का फल है। जीवन के लिए अहिंसा से बढ़कर हितकारी, मित्र और सुख देने वाला दूसरा कोई नहीं है।
(महाभारत, अनुशासन पर्व, ११५-२३, ११६-२८-२९) अनुशासन पर्व में भी कहा गया, 'देवताओं और अतिथियों की सेवा, धर्म की सतत आराधना, वेदों का अध्ययन, यज्ञ, तप, दान, गुरु और आचार्य की सेवा तथा तीर्थों की यात्रा, ये सब मिलाकर अहिंसा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं । अहिंसा इन सबसे श्रेष्ठ है।'
(महाभारत, अनुशासन पर्व, १४५) पुराणों में अहिंसा को सर्व धर्मों में श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया, 'चार वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से जितना पुण्य प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य-प्राप्ति अहिंसा के पालन से होती है।
(मत्स्य -पुराण, १०५-४८) भारतीय मनीषा में पग-पग पर बिखरे हुए ये शाश्वत सम्बोधन हमें आश्वासन देते हैं कि अहिंसा अनन्त काल तक मानव मन को प्रकाशित करती रहेगी। वह उधार के तेल से जलाया गया दीपक नहीं है जो घड़ी भर में बुझ जाये। अहिंसा तो एक आंतरिक प्रकाश है । वह मानवता की सहज-स्वाभाविक और शाश्वत ज्योति है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकेगा। अहिंसा मनुष्य का स्वभाव है और हिंसा, क्रूरता आदि उसके विकार हैं। विकार स्थायी नहीं होते, स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता। भावनाएं भड़का कर इन्सान को कुछ समय के लिए शैतान बनाया जा सकता है, पर उसे हमेशा के लिए शैतान बनाकर नहीं रखा जा सकता।
हिंसा पर अहिंसा की विजय का विश्वास दिलाने वाला यही सबसे बड़ा प्रमाण है।
शांति सदन, कम्पनी बाग, सतना (मध्यप्रदेश) 485009
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अहिंसा - एक समग्र चिन्तन
- डॉ. बच्छराज दूगड़
हजारों वर्षों से अहिंसा विश्वभर के लोगों में उनके जीवन, उनकी अभिवृत्तियों और उनकी आन्तरिक अच्छाइयों में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रही है । अहिंसा की असीम शक्ति को हमारे पूर्वजों, दार्शनिक धर्माचार्यों ने बड़ी गम्भीरता से पहचाना । सर्वज्ञानी महावीर और बुद्ध अहिंसा के प्रवर्तक थे। महावीर और बुद्ध अहिंसा के महान् चिन्तक और व्यवहारकर्ता होने के बावजूद अपने समय की सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों से बंधे थे। वे अहिंसा के आचरण को वैयक्तिक स्तर पर ही लागू कर पाए। सामूहिक रूप से अहिंसा का प्रयोग केवल श्रमणों तक ही सीमित रहा।
20वीं शताब्दी के अणु अस्त्रों की खोज एवं उनके प्रयोग से अहिंसा के विचार, विवेचन और अनुभव को नयी दिशा के साथ नई शक्ति भी मिली। वैज्ञानिक आविष्कारों, औद्योगिक और संचार क्रांति, भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना से उत्पन्न राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों तथा विश्व युद्धों से गांधी के नेतृत्व में अहिंसा के विचार और व्यवहार को बल मिला। अहिंसा का यह समकालीन चिंतन और आचरण आधुनिक विश्व की विचारधारा में आशापूर्ण तेजस्विता और मौलिकता प्राप्त करता हुआ लगता है। मार्टिन लूथर किंग ने अपनी पुस्तक Stride towards freedom (1959) में लिखा है- "बौद्धिक और नैतिक सन्तुष्टि जिसे मैं बेंथम और मिल के उपयोगितावाद, मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी तरीकों, हॉब्स के संविदा सिद्धान्त, रूसो के प्राकृतिक आशावादिता तथा नीत्शे के अतिमानव के दर्शन में प्राप्त करने में असफल रहा, मैंने गांधी के अहिंसक प्रतिरोध के दर्शन में पाई । " हेनरी डेविड थोरो, बण्ड रसल, श्रीमद् रायचन्द्र आदि ऐसे चिन्तक थे, जिनसे गांधी के अहिंसक चिन्तन को प्रेरणा मिली।
अहिंसा जीवन के प्रति सम्मान और जीवन मूल्यों का सार तत्त्व है। ये मूल्य दैनिक जीवन के हर पक्ष में प्रयुक्त होते हैं तथा जीवन और उसकी चुनौतियों में सहभागिता को दर्शाते हैं। अहिंसा केवल युद्ध और शांति के प्रति हमारे दृष्टिकोण को ही स्पष्ट नहीं करती वरन् एक ऐसे वैश्विक ढांचे के विकास का दार्शनिक आधार भी
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प्रस्तुत करती है, जिसमें प्राणी मात्र के प्रति सम्मान हो तथा परस्पर सामंजस्य और सन्तुलन हो। पलायनवादी जीवनशैली से दूर अहिंसा में प्राणी मात्र के प्रति वैयक्तिक दायित्व के आनन्दपूर्वक निर्वहन के लिए प्रोत्साहित करती है ।
अहिंसा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है। अहिंसक क्रांति' में ऐसे नेटिव अमेरिकन का उल्लेख है जिनका शेष विश्व से कोई सम्पर्क नहीं है, फिर भी उनमें एक उच्चस्तरीय वैश्विक भावना है। वे मानव मात्र, अन्य पशुओं, पेड़-पौधों, झरनों व पर्वतों के प्रति गहरा आदरभाव रखते हैं। अहिंसा में केवल मन, वचन और कर्म के द्वारा किसी प्राणी को मारने की इच्छा अथवा उसे चोट पहुंचाने के उद्देश्य का त्याग ही समाहित नहीं है अपितु दैनन्दिन जीवन में समस्त प्राणियों के प्रति करुणा का भाव भी समाहित है। अहिंसा विधेयात्मक कार्यों पर बल देती है जिससे एक व्यक्ति बुराइयों और संकटों का सामना कर सके। यह पराजित और भावुक लोगों के लिए नहीं है, न ही यह असुविधा, कष्ट और यहां तक कि मृत्यु से बचने के लिए है। सर्वाधिक कठिन और खतरनाक स्थितियों में इसे हम करुणा की सक्रिय अभिव्यक्ति कह सकते हैं। महात्मा गांधी के अनुसार अहिंसा डरपोक और कायरों का मार्ग नहीं है, यह उन बहादुरों का मार्ग है जो मृत्यु के वरण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। जिसके हाथ में शस्त्र है, वह बहादुर हो सकता है लेकिन उससे भी अधिक बहादुर वह है जो बिना हिचकिचाहट, बिना शस्त्र उठाए मृत्यु का सामना करता है।
प्रत्येक मनुष्य में हिंसा एवं अहिंसा दोनों के बीज हैं। जब आतंक, अन्याय, दमन का सामना करना पड़ता है, तब व्यक्ति हिंसा को उचित मानने लगता है। जबकि अहिंसा के प्रति न्यूनतम प्रतिबद्धता होते ही हिंसा त्याज्य हो जाती है । अतः यदि हमें अहिंसा को समझना है तो कुछ सीमा तक हिंसा के स्वरूप को भी जानना होगा।
हिंसा का शब्दकोशीय अर्थ है - व्यक्ति या सम्पत्ति को क्षति पहुंचाने अथवा उसे नष्ट करने के उद्देश्य से शारीरिक शक्ति का प्रयोग । सामान्य अर्थ में हिंसा विध्वंस की सूचक है। ऐसा विध्वंस व्यक्तिगत और संगठित, शारीरिक और मानसिक कई प्रकार का हो सकता है। चोट पहुंचाने वाले कार्यों के अतिरिक्त हिंसा में हिंसक विचार, मर्मान्तक भाषा, लोभ, अहं, धोखा आदि भी सम्मिलित होते हैं। व्यापक अर्थ में हिंसा का तात्पर्य है - एक व्यक्तित्व का तिरस्कार । इसे हम प्राणी मात्र तक भी व्यापक कर सकते हैं। और अधिक गहराई से देखें तो एक ऐसा कार्य जो व्यक्तित्व का निरादर करता है, हिंसा है। एक व्यक्ति अथवा अन्य जीवों को मात्र भोग्य पदार्थ के रूप में देखना उनके व्यक्तित्व का निरादर एवं उनके प्रति हिंसा ही है। हिंसा की व्यापक परिभाषा जैन आगमों में उपलब्ध है। जैनागमों के अनुसार प्रमाद व कामभोगों में आसक्ति हिंसा है अर्थात् प्रत्येक वह प्रवृत्ति जो राग-द्वेष सहित है, हिंसा है। रागादि स्वहिंसा है जबकि षट्का जीवों को मारना या उन्हें कष्ट देना पर हिंसा है ।
जैन आगमों में हिंसा के 432 प्रकार बतलाए गए हैं। यहां हम हिंसा के उन प्रकारों की चर्चा कर रहे हैं जिनका सम्बन्ध पर से है। इन्हें चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
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1. व्यक्तिगत प्रत्यक्ष हिंसा-इसके अन्तर्गत पीटना, हत्या करना, बलात्कार, भ्रूणहत्या आदि को लिया जा सकता है।
2. संगठित प्रत्यक्ष हिंसा-जैसे युद्ध या पुलिस द्वारा की गई क्रूरता।
3. व्यक्तिगत प्रच्छन्न हिंसा-गम्भीर मनोवैज्ञानिक हिंसा जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके सम्मान को तिरस्कृत किया जाता है। इस प्रकार की हिंसा में विचार, शब्द या कार्य के द्वारा, स्वयं के द्वारा अथवा दूसरों को सहयोग करके या ऐसी स्थितियां पैदा करके या जाति, लिंग और धार्मिक विश्वासों के आधार पर दूसरों को चोट पहुंचाई जाती है।
4. संगठित प्रच्छन्न हिंसा-जहां व्यवसाय, सरकार, शिक्षण, कारागृह आदि संस्थाएं समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व की उपेक्षा करती है । दयनीय आवास सुविधाएं, जातीय-भेदभाव, बेरोजगारी, मताधिकार से वंचित करना, दमनकारी शिक्षा आदि को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।
प्रच्छन्न हिंसा चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या संस्थागत स्तर पर विशेष रूप से घातक होती है, क्योंकि यह प्राय: सूक्ष्म होती है तथा दूसरों की दृष्टि में नहीं आती । इसकी जड़ें समाज की संरचना में होती हैं । उदाहरणतः फुटपाथों अथवा निराश्रित हजारों लोगों में से 10 प्रतिशत लोग शायद ही स्पष्ट जानकारी रखते हों कि कत्लगृहों में वास्तव में क्या होता है अथवा एक फैक्टरी से निःसृत होने वाले विषैले पदार्थों का पर्यावरण पर क्या असर होता है?
हिंसा के प्रयोग के दो पक्ष हैं-वास्तविक प्रयोग और सम्भावित प्रयोग। वास्तविक प्रयोग में प्रदर्शन तथा राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक अपराध सम्मिलित हैं, हिंसा के प्रयोग की धमकी देना उसका संभावित प्रयोग है । हिंसा के प्रयोग की धमकी के लिए समय-समय पर हिंसा का प्रदर्शन भी आवश्यक है । हिंसा के प्रयोग की धमकी स्थिरता लाती है तथा शांति को बनाए रखती है। रोज जोन्स के अनुसार हिंसा और अहिंसा कोई वास्तविक श्रेणियां नहीं है । अहिंसा में सूक्ष्म हिंसा का भाव तथा हिंसा में सूक्ष्म अहिंसा का भाव देखा जा सकता है। इसलिए अहिंसा में से हिंसा के तत्त्वों को दूर करना तथा हिंसा में अहिंसा के तत्त्वों को खोजने का हमारा प्रयास होना चाहिए ताकि हिंसा को न्यूनतम और अहिंसा को अधिकतम किया जा सके। हिंसा का सर्वथा विलोपन सम्भव नहीं है, क्योंकि समाज से संघर्ष को पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता।
जार्ज सोरेल ने हिंसा की भमिका का प्रारम्भिक परीक्षण किया है। सोरेल ने सामाजिक संघर्षों में हिंसा के विधेयात्मक कार्यों को देखा तथा हिंसा की आवश्यकता पर बल दिया। सोरेल ने इस तथ्य को पूर्णतया नकार दिया कि हिंसा का क्रूर प्रयोग भी हो सकता है और न ही उसने इच्छित साध्य की प्राप्ति के लिए साधन के रूप में हिंसा को स्वीकृति दी। वह हिंसा के माध्यम से साहस, एकता, संयम के विकास का पक्षधर था। सोरेल के हिंसा के सिद्धान्त में तीन मान्यताएं महत्त्वपूर्ण हैं
1. सामाजिक संघर्षों में हिंसा कार्यकारी है। 2. यह एक इच्छित साध्य का साधन नहीं है।
3. यह मूल्यों की प्राप्ति और परिशोधन में सहायक है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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ये तीनों ही मान्यताएं हिंसा के सिद्धान्त के लिए प्रासंगिक हैं। यद्यपि इनमें कुछ सुधार की सम्भावना है। उदाहरणत: सोरेल सामाजिक संघर्षों में हिंसा की भूमिका पर बल देने के बावजूद इच्छित साध्य (शांति) की प्राप्ति के लिए हिंसा को साधन नहीं मानते। कुछ सामजशास्त्री हिंसा को पाशविक या अविवेकपूर्ण नहीं मानते।" हिंसा अपने आप में न अच्छी है, न बुरी। जिन तरीकों से इसका प्रयोग किया जाता है वे तरीके इसे अच्छा और बुरा बनाते हैं ।" अतएव यह कहा जा सकता है कि हिंसा संघर्ष का एक प्रकार और मानव जीवन का सत्य है। जिस तरह सभी संघर्ष बुरे नहीं होते, उसी तरह सभी प्रकार की हिंसा बुरी नहीं हो सकती। (स्पष्टतः यहां हिंसा को सामाजिक एवं विश्वशांति के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है, आत्मशुद्धि के रूप में नहीं) । फिर भी हमें हिंसा पर नियंत्रण के मार्ग और साधन खोजने चाहिए। हिंसा में कमी और अहिंसा के विकास के लिए एक व्यवस्था का उद्भव आवश्यक है जिससे अनावश्यक हिंसा को न्यूनतम किया जा स तथा मनुष्य हिंसा का सहारा लिए बिना पर्यावरण के साथ अनुकूलन सीख सकें। चूंकि हिंसा मानव जीवन की सच्चाई है, इसलिए अहिंसा को प्रायः निषेधात्मक माना जाता है और अहिंसा के बहुत से विरोधी इसी आधार पर अहिंसा की आलोचना करते हैं। अहिंसा शाब्दिक रूप से निषेधात्मक लगती है किन्तु इसका एक भावात्मक उद्देश्य भी है जो मानव जीवन के अस्तित्व और उसकी समृद्धि के लिए आधार प्रदान करता है।
सामान्यतः किसी भी जीव को न मारना अहिंसा है। व्यापक अर्थ में मन, वचन और कर्म द्वारा प्राणी मात्र को किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है। मन, वचन और काय- इनमें से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही अहिंसा है। 12 कुछ दार्शनिक संयमपूर्वक जीवन व्यवहार का तात्पर्य सभी प्रकार के जीवों के प्रति करुणा भाव से लेते हैं। गांधीजी ने भी अहिंसा का यही अर्थ किया है। इनके अनुसार सर्व जीवों के प्रति सद्भावना या समस्त जीवों के प्रति दुर्भावना का पूर्ण अभाव ही अहिंसा है। 13
अहिंसा का सैद्धान्तिक और नैतिक आधार जैनदर्शन में उपलब्ध है। अहिंसा को जितना संकुचित समझा जाता है, उसका क्षेत्र उतना सीमित नहीं है। अहिंसा का सम्बन्ध अन्तर और बाह्य दोनों जगत् से है | अहिंसा का बाह्य स्वरूप प्राणी मात्र को मन, वचन और शरीर से किसी प्रकार की हानि न पहुंचाना, पीड़ा न देना अथवा दिल नहीं दुखाना है। राग-द्वेष परिणामों से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थिर होना अन्तरंग अहिंसा है। इतनी व्यापक परिभाषा हमें पूर्व और पश्चिम में अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। वह कोई भी क्रिया या कार्य जो राग-द्वेष भाव से किया जाता है, अहिंसा की कोटि में नहीं आता। राग-द्वेष रहित क्रिया ही अहिंसा है। वस्तुतः अन्तरंग में आंशिक साम्यता आए बिना अहिंसा सम्भव ही नहीं है। इस प्रकार उसके अति व्यापक स्वरूप में सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं। जैनदर्शन का मानना है कि जल, थल आदि में सर्वत्र ही क्षुद्र जीवों का सद्भाव होने के कारण यद्यपि बाह्य में पूर्ण अहिंसा का पालन असम्भव है किन्तु यदि अन्तरंग में साम्यता और बाहर में पूरा-पूरा यत्नाचार रखने में प्रमाद न किया जाये तो बाह्य जीवों के मरने से भी व्यक्ति अहिंसक ही रहता है। स्पष्टतः अन्तरंग में साम्यभाव और व्यवहार में अप्रमाद अहिंसा के लिए आवश्यक
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जैनदर्शन में अहिंसा अणुव्रत के पांच अतिचारों का उल्लेख भी है जो अहिंसा के सूक्ष्म चिन्तन को दर्शाते हैं। बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण, अन्नपान का निरोध-ये अहिंसा अणुव्रत के पांच अतिचार हैं। इन अतिचारों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि जीवों के प्रति कष्ट या हिंसा ही नहीं, अतिभारारोपण आदि के द्वारा शोषण भी हिंसा में सम्मिलित हो जाते हैं। सर्वप्राणियों को आत्मतुल्य समझना अर्थात् सघन आत्मौपम्यता की अनुभूति को जैनदर्शन में अहिंसा का आधार मानते हुए कहा गया है-जो व्यक्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों (वनस्पति) का हनन करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का हनन करता है। जैसे मुझे कोई मारे-पीटे, प्रताड़ित करे, दु:ख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राणहनन करे तो जैसा दुःख मुझे होता है वैसी ही अनुभूति अन्य जीवों को होती है, अतएव किसी भी प्राणी, भूत, जीव या सत्त्व को न तो मारना चाहिए और न उन पर हुकूमत करनी चाहिए। आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात् अपने ही समान सृष्टि के सब प्राणियों को समझना अहिंसा का व्यापक और विराट रूप है। क्या अहिंसा कार्यकारी है ?
अहिंसा का चिन्तन इस आधार पर भी किया जा सकता है कि जिन कार्यों को हिंसा सम्पादित करती है उन कार्यों को अहिंसा कैसे बेहतर तरीके से सम्पादित कर सकती है, इस चिन्तन से पूर्व हमें यह भी देखना होगा कि क्या हिंसा कार्यकारी है ? हिंसा की सफलता या असफलता सामान्यत: हिंसा को एक युक्ति समझकर आंकी जाती है । हिंसा को एक सिद्धान्त, दर्शन या जीवनशैली के रूप में स्वीकार करने वाले वे लोग भी नहीं होंगे, जो इसका प्रयोग एक युक्ति के रूप में करते हैं। एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति का जब अन्य कोई विकल्प नहीं हो तो वे उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हिंसा को एक अंतिम हथियार के रूप में प्रयुक्त करते हैं। जैसे एक व्यक्ति पर किए गए आक्रमण के समय स्वयं की सुरक्षा के लिए हिंसा के प्रयोग को वे न्यायोचित मानते हैं अथवा एक राष्ट्र की सरक्षा के लिए आक्रमण उचित समझा जाता है। इस संदर्भ में आत्मरक्षा एवं सुरक्षा जैसे विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक युक्ति के रूप में हिंसा कभी कार्यकारी है और कभी नहीं। कभी हम प्रतिरक्षा के लिए आक्रमण करते हैं और कभी नहीं। कभी आक्रामक राष्ट्र पर आक्रमण किया जाता है और कभी नहीं। यहां यह ध्यान रखने योग्य है कि ये सभी सन्दर्भ द्विपक्षीय हैं। दोनों पक्ष हिंसा का प्रयोग करते हैं तथा एक साधन के रूप में हिंसा का प्रयोग एक पक्ष को सफल करता है, दूसरे को विफल अर्थात् जो पक्ष विजयी होगा उसके लिए हिंसा कार्यकारी है जबकि पराजित के लिए यह कार्यकारी नहीं होगी।
हिंसा की सफलता के आकलन के लिए हम कुछ ऐसे संदर्भ भी देखें जिनमें एकपक्षीय हिंसा का प्रयोग हुआ हो तथा उस पक्ष ने अपने उन उद्देश्यों को प्राप्त किया हो जिन्हें अन्य साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सका हो। जैसे लूट-पाट करने वाले की एवं बलात्कारी की सफलता अन्तर्वैयक्तिक स्तर पर हिंसा की सफलता है । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यद्यपि ऐसे मामले कुछ कम स्पष्ट हैं, क्योंकि वहां हिंसा का एकपक्षीय प्रयोग बहुत कम अवसरों पर होता है। युद्ध इसलिए घटित होते हैं, क्योंकि वहां दोनों पक्ष लड़ाई के विकल्प को चुनते हैं । वह राष्ट्र जो आक्रमणकारी
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का शिकार होता है, नि:संदेह हिंसा का सहारा लेता है, क्योंकि हिंसा उनके विरुद्ध पहले प्रयुक्त की गई होती है। आक्रमणकारी राष्ट्र भी प्रायः हिंसा का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि उनके आक्रमण का प्रतिरोध हिंसा के द्वारा किया जाता है। यह मान भी लें कि हिंसा का प्रयोग एक पक्ष के द्वारा होता है और वह पक्ष हिंसा के द्वारा अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल होता है, क्या फिर भी यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हिंसा कार्यकारी रही? उसने जिन विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति की है उन पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है और यदि ये उद्देश्य पूरे हुए भी हों तो क्या वे प्रासंगिक रहे हैं?
यहां हमें साध्य-साधन के सिद्धान्त पर भी विचार करना आवश्यक है। एक कार्य या साधन तभी प्रभावपूर्ण है जब उसके द्वारा साध्य प्राप्ति में सफलता मिली हो। मानलें कि हिंसा के द्वारा कुछ मामलों में ऐसी सफलता मिली है किन्तु यह विचार करना आवश्यक है कि वह सफलता किस कीमत पर मिली। हम ऐसे मामलों में निर्णय करते समय यह तो ध्यान रखते हैं कि एक साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त साधन ने सम्बन्धों की नैतिक गुणवत्ता को प्रभावित किया है, किन्तु हम साध्य और साधन के बीच अन्तर्सम्बन्ध को देखने में असफल रहते हैं। उदाहरणतः सेल्फ में पुस्तक रखने के लिए स्ट्रल एक साधन है। इस साधन के द्वारा साध्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। स्टूल की जगह कुर्सी या अन्य साधनों का भी हम साधन के रूप में उपयोग कर सकते थे और उससे भी साध्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ मामलों में साधन साध्य के स्वरूप को प्रभावित करता है। जैसे रोटी बनाने के लिए आटा एक साधन है। यदि आटे की जगह गेहूं का उपयोग हो तो वह साध्य के स्वरूप को बदल देगा। रंगों के साथ भी ऐसा ही होता है । नैतिक मामलों में साध्य और साधन के बीच सम्बन्ध पुस्तक के उदाहरण की अपेक्षा रोटी के उदाहरण के अधिक समान प्रकृति का है। साध्य का स्वरूप बहुत कुछ उसकी प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये गये साधन द्वारा निश्चित होगा। हिंसा के द्वारा जो प्राप्त करना चाहते थे वह हमने प्राप्त कर लिया हो तो उसके साथ मनुष्य एवं संपत्ति की क्षति, दुःख, चोट, मृत्यु या विध्वंस की कुछ निश्चित मात्रा भी हमें गौण उत्पाद के रूप में मिलेगी। क्योंकि हिंसा का स्वरूप ही ऐसा है । हम इस विशेष परिस्थिति के अतिरिक्त भय, विश्वास, घृणा आदि का वातावरण भी बना देते हैं। हिंसा करने वाले व्यक्ति स्वयं में भी संवेदनहीनता और क्रूरता पैदा कर लेते हैं। इन प्रभावों को हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ये उसी साध्य के साथ पैदा हुए गौण उत्पाद हैं, जिसे हम प्राप्त करना चाहते थे।
यहां हमारा तर्क यह है कि जिन कुछ मामलों में हिंसा सफल होती है उनमें भी यह कई प्रकार से असफल भी रहती है। यहां यह गम्भीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हिंसा वास्तव में ही कार्यकारी है ? और क्या यह सदैव वैसे ही कार्य करती है जैसा हम सोचते हैं ? अगर हम विध्वंस
और क्षति के बिना साध्य प्राप्त करना चाहेंगे तो हम पायेंगे कि हिंसा कार्यकारी नहीं है और यह कार्यकारी हो भी नहीं सकती।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि हम अहिंसा की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना चाहते हैं तो हमें चीजों को भिन्न तरीके से देखना आवश्यक है। प्रश्न केवल इतना नहीं है
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कि अहिंसा कार्यकारी है, प्रश्न यह भी है कि क्या हिंसा भी कार्यकारी है ? और यदि दोनों ही कभी सफल होती हैं और कभी असफल तो क्या अहिंसा हिंसा से अच्छा विकल्प नहीं है ??
अगर अहिंसा हिंसा का अच्छा विकल्प है तो इसका प्रयोग युक्ति के रूप में होना चाहिए या दर्शन या जीवनशैली के रूप में? जब हम इसे मात्र युक्ति मानते हैं तो अहिंसा कभी कार्यकारी है और कभी नहीं। इसकी सफलता की गारन्टी हिंसा के प्रयोग से अधिक नहीं है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अहिंसा हिंसा से अधिक कार्यकारी नहीं। यह अनुमान करना सहज है कि हिंसा का त्याग एक व्यक्ति को अपने लक्ष्य प्राप्ति के संदर्भ में लाभ की स्थिति में रखता है। यह तो माना ही नहीं जा सकता कि अहिंसा का विरोध हिंसा से कहीं अधिक नैतिक है।
अब हम अहिंसा को एक सिद्धान्त के रूप में मानते हुए इसकी प्रभावशीलता पर विचार करें। इस प्रश्न पर विचार के लिए यह आवश्यक है कि हम उन साध्य या उद्देश्यों को स्पष्ट करें जो अहिंसा ने स्वयं के लिए निश्चित किए हैं। सिद्धान्त रूप में अहिंसा की स्वीकृति उसे एक युक्ति के रूप में मानने तथा अल्पकालिक उद्देश्य निर्धारित करने की अपेक्षा अधिक व्यापक है। अहिंसा एक उच्च एवं आधारभूत साध्य है जो दीर्घकालिक है। उदाहरणत: अहिंसा का एक लक्ष्य संघर्ष की स्थितियों में विरोधियों के प्रति सदैव सम्मान रखना है तो एक व्यक्ति ऐसा करके स्वतंत्र रूप से सफलता प्राप्त कर सकता है, भले ही उसके द्वारा निर्धारित अन्य सामाजिक या राजनैतिक उद्देश्यों में वह सफल न हो । अहिंसा का यदि एक लक्ष्य यह हो (स्पष्टतः है) कि विश्व में व्याप्त हिंसा को और अधिक नहीं बढ़ने देना है, इस लक्ष्य को भी व्यक्तिगत अन्य सफलत या असफलता से अलग रखकर प्राप्त किया जा सकता है। कभी अहिंसा का उद्देश्य संघर्षरत व्यक्तियों के चरित्र और विचार में परिवर्तन लाना भी हो सकता है।
यदि हम अहिंसा को जीवनशैली के रूप में मानें तो यह उस सीमा तक कार्य करती है जितना एक व्यक्ति अहिंसक जीवन जीता है और दैनन्दिन व्यवहार अहिंसक भावना से करता है। इस तरह की अहिंसा को सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों के समान नहीं देखा जा सकता। इसे सम्पूर्ण जनसंख्या के लिए पूर्णरूपेण लागू भी नहीं किया जा सकता। हम ऐसी परिस्थितियों में जो हमारे नियंत्रण से बाहर की हैं, की अपेक्षा ऐसी परिस्थितियों में जो हमारे नियंत्रण में हैं, यदि हम अहिंसक तरीकों से दूसरों के साथ सम्मान पूर्वक कार्य कर पाते हैं तो यहां अहिंसा प्रभावकारी है।
उपर्युक्त समस्त चिन्तन का अभिप्राय मात्र यह दर्शाना है कि अहिंसा हिंसा से अधिक कार्यकारी है और हिंसा की अपेक्षा अहिंसा को प्राथमिकता देनी चाहिए। अहिंसा की नवीन व्याख्या
'मनुष्य में हिंसा का जन्म कैसे हुआ'-आचार्य महाप्रज्ञ ने इस प्रश्न के उत्तर में अहिंसा की नवीन व्यख्या प्रस्तुत की है। उनका मानना है-मनुष्य समाज में रहता है। सामाजिक जीवन का अर्थ है-सम्बन्धों का जीवन । सम्बन्ध उपयोगितावादी हैं । आपस में मिलकर रहने का अर्थ यह नहीं है कि वे अहिंसक हैं । मिलकर रहना व्यावहारिक अहिंसा का प्रयोग है। यह अहिंसा स्वार्थ
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से जुड़ी होती है। ऐसी अहिंसा को व्यक्ति ने मात्र अपनी उपयोगिता के स्तर पर स्वीकार किया होता है। काम एवं अहं प्रबल होने पर हिंसा उसके लिए वर्जनीय नहीं रहती। हमारी जीवनशैली और जीवन व्यवहार जब तक व्यावहारिक अहिंसा से प्रभावित रहेंगे, तब तक हिंसा को कम नहीं किया जा सकता । अहिंसा का आधार आत्मा है। आत्मा की समानता और आत्मौपम्यभाव पारमार्थिक अहिंसा का आधार बन सकता है। समाज सुख-शांति पूर्वक चले, इस हेतु अहिंसा
आवश्यकता को तो अनुभव किया गया किन्तु आत्मा की समानता और आत्मौपम्य के भाव को गौण पर दिया गया। यही कारण है कि व्यवहार की भूमिका पर हिंसा अवश्यम्भावी रूप से जन्म लेती रही।
हिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु किसी को मार डालना नहीं है और अहिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु किसी को न मारना नहीं है। हिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु है - दूसरे प्राणियों के अस्तित्व को न स्वीकारना, पदार्थ के अस्तित्व को भी न स्वीकारना । अहिंसा का प्रारम्भिक बिन्दु है-छोटे से छोटे जीव और छोटे से छोटे पदार्थ-परमाणु तक के अस्तित्व को स्वीकारना तथा उसके साथ छेड़छाड़ न करना । अपने अस्तित्व के समान दूसरे के अस्तित्व का सम्मान करना । यही अहिंसा का सम्यक् दर्शन है । जो लोग इस दर्शन को नहीं जानते, वे अपने संकुचित स्वार्थों की सीमा में जीते हैं और इनकी पूर्ति के लिए हिंसा का उच्छृंखल प्रयोग करते हैं ।
हिंसा का मूल क्या है - इस प्रश्न पर मत वैभिन्य है। मनोवैज्ञानिक मौलिक मनोवृत्तियों को हिंसा का मूल मानते हैं। समाजशास्त्री सामाजिक संरचना को हिंसा का कारण मानते हैं। दार्शनिक कर्म को हिंसा का कारण मानते हैं । आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सच्चाई को उजागर किया है कि ये सभी मत असत्य तो नहीं, किन्तु सत्यांश हैं। दार्शनिक इस भ्रम में हैं कि सही व्यक्ति और सही अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्ध होने से हिंसा पर नियंत्रण हो जायेगा, व्यवस्था भले ही कितनी ही भेदभावपूर्ण क्यों न हो । समाजशास्त्री इस भ्रम में हैं कि सामाजिक संरचना ठीक हो तो उसमें किसी भी व्यक्ति को उसके अनसुलझे अन्तर्वैयक्तिक संघर्षों के साथ एवं अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों की क्षमता के अभाव के बावजूद रख दिया जाये तो भी हिंसा पर नियंत्रण किया जा सकेगा। मनोवैज्ञानिक इस भ्रम में हैं कि मनुष्य स्वभाव से लड़ाकू हैं। हिंसा को मौलिक मनोवृत्ति मान लें तो अहिंसा और शांति के सारे प्रयत्न निरर्थक हो जायेंगे । वस्तुतः मनुष्य में हिंसा के संस्कार भी हैं और अहिंसा के भी। शिक्षण-प्रशिक्षण के द्वारा हिंसा के संस्कारों को न्यूनतम किया जा सकता है। ब्रिटिश जैव विज्ञानी सर विल्फ्रेड क्लार्क ने ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस के अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था-" लाखों-लाखों वर्षों की विकास प्रक्रिया में मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में वर्चस्व वाला प्राणी रहा है। वह ऐसा इसलिए नहीं है कि वह हिंसक है बल्कि इसलिए है, क्योंकि उसमें परहित की सोच है, सहयोग की क्षमता है जो अन्य प्राणियों में नहीं है।"
हिंसा के पारम्परिक पोषक तत्त्वों के साथ हिंसा के कुछ नवीन तत्त्वों को भी आचार्य महाप्रज्ञ ने उजागर किया है। आचार्य महाप्रज्ञ ने तनाव, रासायनिक असंतुलन, नाड़ी तंत्रीय असंतुलन, निषेधात्मक दृष्टिकोण, चंचलता आदि को हिंसा का पोषक तत्त्व माना है। तनाव ग्रस्त
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व्यक्ति ही हिंसा करता है। क्रोध आदि आवेशजन्य और निराशा आदि अवसादजन्य- दोनों ही प्रकार के तनाव व्यक्ति को हिंसा की ओर ले जाते हैं। जैव रसायनविदों का मानना है कि क्रोध
समय एक प्रकारका रसायन कार्य करता है, क्रोध शमन के लिए दूसरे प्रकार का । अन्तःस्रावी ग्रंथियों के रसायन में असन्तुलन मस्तिष्क को प्रभावित करता है और हिंसा की वृत्ति जाग जाती है। इसी तरह नाड़ीतंत्रीय असंतुलन होने पर व्यक्ति बिना प्रयोजन भी हिंसा पर उतारू हो जाता है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार पीयूष ग्रंथि से निश्रित ACTH हार्मोन से एड्रीनल ग्रंथि सक्रिय हो उठती है, जिसके कारण एपिनेफ्रीन और नॉर एपिनेफ्रीन हार्मोन निकलने लगते हैं। ये हार्मोन शरीर की विभिन्न पेशियों को अत्यधिक गति (Hyper active) से कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं और हृदय, फेफड़े एवं श्वसन की पेशियों को भी सामान्य से कहीं अधिक गति से कार्य करने के लिए उत्तेजित कर देते हैं। इस स्थिति में शरीर की चयापचय की दर पर मस्तिष्क का नियंत्रण कमजोर पड़ने लगता है और व्यक्ति अनजाने में हिंसात्मक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है ।
घृणा, ईर्ष्या, भय, काम, द्वेष आदि निषेधात्मक संवेग भी व्यक्ति को हिंसा की ओर ले जाते हैं । जातीय हिंसा, रंग-भेद पर आधारित हिंसा, वर्ग संघर्ष- इन सबके पीछे घृणा का भाव कार्य करता है। जिससे एक व्यक्ति दूसरे से घृणा करता है, दूसरों को छोटा मानता है। स्वयं को, स्वयं की जाति को एवं स्वयं के राष्ट्र को बड़ा एवं अच्छा मानता है। जिन व्यक्तियों में यह सोचने की अतिरंजित प्रवृत्ति होती है कि उनका अपना समूह अथवा जाति अन्य समूह या जातियों से अत्यंत श्रेष्ठ है, उन लोगों का सामान्य दृष्टिकोण रूढ़िवादी होता है। वे शक्ति की प्रशंसा व पराजितों से घृणा करते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री हॉब्स ने हिंसा के तीन प्रमुख कारणों की चर्चा की है(1) प्राप्ति की इच्छा, (2) क्षति का भय, (3) मिथ्याभिमान । मनोविज्ञान में उपार्जन को एक मौलिक मनोवृत्ति माना गया है। प्राणी केवल उपार्जन ही नहीं करता, उसका संरक्षण और उस पर स्वामित्व भी जताता है। हिंसा का प्रथम प्रयोग उपार्जन अर्थात् इच्छा पूर्ति के लिए होता है, हिंसा का दूसरा प्रयोग उपार्जित वस्तु के संरक्षण के लिए होता है और हिंसा का तीसरा प्रयोग वस्तु व अन्य प्राणियों पर स्वामित्व जताने के लिए होता है । आचारांगसूत्र, प्रश्नव्याकरण आदि जैन सूत्रों में भी हिंसा के इन कारणों का उल्लेख हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञ की हिंसा के कारणों की अधुनातन प्रस्तुति सम्भवतः वैज्ञानिक खोजों का परिणाम और आगमिक सन्दर्भों की अधुनातन व्याख्या भी है
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आहार और हिंसा के संबंध पर विमर्श भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। ग्रहण किये गये भोजन से शरीर में अनेक रसायन तथा मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर का निर्माण होता है। ये न्यूरोट्रांसमीटर ही नियामक हैं। इनके द्वारा मस्तिष्क शरीर का संचालन करता है । आहार और हिंसा का सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है- विटामिन ई की कमी चिड़चिड़ेपन का रक्त में ग्लूकोज की मात्रा अत्यधिक कम होने से हत्या का विचार * और विटामिन-बी की कमी भय
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रक्त में ग्लूकोज की अत्यधिक कमी से मस्तिष्क को पर्याप्त पोषण न मिल पाने के कारण यह संभावना हो सकती है कि वह सही निर्णय न कर पाये और हत्या का विचार उसके मन में आ जाये ।
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का कारण बनती है। प्रोटीन की अधिक मात्रा मानसिक असंतुलन के लिए जिम्मेदार है। मांसाहार एवं मादक वस्तुओं का सेवन भावात्मक असंतुलन को बढ़ाता है।
शारीरिक, मानसिक और भावात्मक अस्वास्थ्य और हिंसा के संबंध को उजागर करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है-आदमी भूख से पीड़ित है, अस्वस्थ है, बीमार है, इन्हें मिटाने के लिए भी वह हिंसा करता है। हिंसा के कारणों की यह सूक्ष्म मीमांसा है, जो शरीर की आवश्यकताओं से जडी है। इसी तरह जो व्यक्ति शस्त्रों का निर्माण करता है, जो वैज्ञानिक शस्त्रों की खोज करता है और जो राजनेता राष्ट्र की सुरक्षार्थ शस्त्र जुटाता है, वे मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहे जा सकते। शस्त्रनिर्माण, शस्त्र नियोजन, शस्त्र खोज, शस्त्र व्यापार और शस्त्र प्रयोगये सब मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं। संवेग और भाव भी हिंसा के लिए जिम्मेदार बनते हैं। संवेग प्राणी की उत्तेजित अवस्था है। ऐसी उत्तेजनाएं प्रायः आकस्मिक और तीव्र होती हैं। संवेगात्मक उत्तेजना की तीव्रता इतनी अधिक होती है कि इस उत्तेजना के बने रहने तक प्राणी के अन्य सभी व्यवहार अस्त-व्यस्त हो जाते हैं । संवेग की इसी विशेषता के कारण मनोवैज्ञानिकों ने इसे एक विध्वंसात्मक शक्ति के रूप में स्वीकार किया है । मनोविज्ञान संवेग-मूल प्रवृत्तियों को मानता है। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जितनी कर्म प्रकृतियां हैं, उतने ही संवेग हैं । हिंसा से बचने के लिए इन संवेगों के प्रति जागरूकता आवश्यक है।
हिंसा और अहिंसा की अभिव्यक्ति का सम्बन्ध हमारी मुद्राओं से भी है। प्राचीन समय में व्यक्ति की मांसपेशियों पर अधिक दबाव पड़ता था जबकि नाड़ीतन्त्रीय दबाव कम था। शारीरिक श्रम की महत्ता के कारण मांसपेशियों पर अधिक दबाव पड़ता किन्तु नाड़ीतंत्र को विश्राम मिलता । साधन-सुविधाओं की अधिकता के फलस्वरूप आज मांसपेशियों को आराम मिल रहा है जबकि नाड़ीतंत्र दबाव अत्यधिक रूप से बढ़ रहा है । अत्यधिक नाड़ीतंत्रीय दबाव हिंसा का निमित्त बन जाता है। शारीरिक और मानसिक श्रम का सन्तुलन बना रहे, इस हेतु योगासन का अभ्यास उपयोगी है।
आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि अहिंसा के प्रति हमारी आस्था में गहराई नहीं है। एक छोटी-सी घटना होते ही हिंसा भड़क उठती है और वह सफल हो जाती है। अहिंसा में विश्वास रखने वाले भी अहिंसा की सफलता पर संदिग्ध हो जाते हैं। उन्हें हिंसा की तात्कालिक सफलता नजर आती है। अहिंसा सफल नहीं होती, क्योंकि अहिंसा में हमारी आस्था नहीं है और आस्था जगाने का प्रशिक्षण भी नहीं है। हिंसा के द्वारा मस्तिष्क बहुत प्रशिक्षित है, इसलिए हम हिंसा को समस्या का समाधान मान लेते हैं। मस्तिष्कीय प्रशिक्षण के अभाव में कोई भी व्यक्ति अहिंसा में आस्थावान नहीं हो सकता, अत: अहिंसा का प्रशिक्षण आवश्यक है।
अहिंसक व्यक्तित्व विकास के लिए भी आचार्य महाप्रज्ञ ने एक नवीन विकल्प प्रस्तुत किया गया है-कायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठ जायें और निर्विचार का अभ्यास करें। मस्तिष्क को एक बार विचार शून्य कर निर्विकल्प बन जाएं । निर्विकल्प अवस्था में व्यक्ति देश और काल की पकड़ से मुक्त हो जाता है । वह ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है जहां अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता। यह अवस्था निषेधात्मक भावों को बाहर निकालने तथा विधेयात्मक भावों के
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स्थरीकरण के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इससे अहिंसक व्यक्तित्व का निर्माण सम्भव है।
अहिंसा डरपोक और कायरों का मार्ग नहीं है। यह उन बहादुरों का मार्ग है जो मृत्यु के वरण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं-"भय हमारी मूर्छा है और अभय हमारी अमूर्छा । मूर्छा भय को जन्म देती है और भय हिंसा को। अमूर्छा से व्यक्ति अभय होता है और अभय से अहिंसक।" वे मृत्यु के भय को भी मौलिक नहीं मानते हैं। उनके अनुसार मौलिक भय है-आशंका अर्थात् वह छूट न जाये । पदार्थ की मूर्छा, पकड़ मौलिक भय है। अन्य सभी भय आरोपित भय हैं । मृत्यु का भय इसलिए होता है, क्योंकि व्यक्ति जानता है कि मरने के बाद सब कुछ छूट जायेगा। कहा गया है-- "शंकास्थानसहस्त्राणि भयस्थानशतानि च।दिवसे दिवसे मूढ़माविशन्ति न पंडितम्॥"
अर्थात् जो मूर्च्छित हैं उन्हें सैकड़ों भय रोज सताते हैं और जिसने मूर्छा को तोड़ दिया उसे न शंका सताती है और न भय । अतः प्रहार हिंसा पर नहीं, मूर्छा पर करना होगा। हिंसा भय का परिणाम है । जिस व्यक्ति ने लाठी का आविष्कार किया, जिसने पत्थर के शस्त्र और अणुशस्त्र बनाये, वह डरा हुआ व्यक्ति था। अभय होता तो न उसे पत्थर के शस्त्र की जरूरत होती और न अणु शस्त्रों की। अभय और अहिंसक बनने के लिए प्रवृत्ति के त्याग का पहला प्रयोग स्वयं पर करें फिर परिवार एवं पड़ौसियों पर । अहिंसा को जीवन में व्यापक बनाकर ही राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शांति की बात सोची जा सकती है। एक ऐसा अहिसंक समाज, जिसमें शांति, स्वस्थता और अभय हो, प्रत्येक व्यक्ति को आश्वासन और अधिकारों के प्रयोग की स्वतंत्रता हो तो इस सच्चाई को स्वीकार करना ही होगा कि अपने स्वार्थों और मूर्छा को सीमित किये बिना विश्वशांति और अहिंसक समाज का स्वप्न पूरा नहीं हो सकता।
सन्दर्भ:
The intellectual and moral satisfaction failed to gain from the Utilitarianism of Bantham & Mill, the revolutionary methods of Marx & Lenin, the special contact theory of Hobbes, the 'Book to Nature Optimism' of Rouseau and the superman philosophy of Nietzschey, I found in the non-violence resistance philosophy of Gandhi. Martin Luther King-Stric towards freedom, 1959.
Nathanial Altman, The Non-violent Revolution. 3. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, आचारांग सूत्र, जिनागम ग्रंथमाला, पृ. 145-46 4. जिनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-4, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1988, पृ. 531 5. H.L. Nicburg. 'Uses of Violence', Journal of conflict resolution, Vol. 7. March 1963,
PP 43-54, see also his political Violence: The Bchavioral Process, New York, 1969. 6. Le Roi Jones, "What Does Non-Violence Men?" Midstream, New York Vol. 9, De
cember, 1963, PP 33-62. 7. Mahendra Kumar, Violence & Nonviolence in International Relation, Thomson Press,
Delhi.1975, P.49.
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8. Georgs Sorel, Reflection of Violence, London, 1905.
9. Bertrand de Journal, The pure Theory of Politics. Cambridge, 1963. P. 197.
10. Hannah Arendt. On Violence, New York, 1967.
11. Harvey Wheeler, "A Moral Equivalent for Riots" in N.G., P. 46, Larry, ed., Alternatives to violence, New York, 1968.
12. डॉ. बच्छराज दूगड़, विश्वशांति एवं अहिंसा प्रशिक्षण, 1955, पृ. 117
13. Dorris Hunter and Krishna Mullic. Non-violence, P. 85.
14. मन, वचन और काय के संकल्प से और कृत- कारित अनुमोदन से त्रस जीवों को नहीं मारना अहिंसा अणुव्रत है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-I, पृ. 225
15. आचारांग सूत्र 1.5.42-44
16. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि, आचारांग सूत्र, जिनागम ग्रंथमाला, 1980, 5.5.170, पृ. 181-82.
17. Robert L Holmas, Non-violence PP 1-5.
18. आचार्य महाप्रज्ञ, अहिंसा के अछूते पहलू (संपूर्ण) जैन विश्वभारती, लाडनूं
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अध्यक्ष, अहिंसा एवं शांति विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूँ (राज.)
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भारतीय संस्कृति में अहिंसा व शांति का संदेश
- डॉ. कुसुम भण्डारी
किसी देश की आध्यात्मिक, सामाजिक और मानसिक विरासत को उस देश की संस्कृति कहते हैं। अंग्रेजी में इसके लिये कल्चर शब्द का प्रयोग किया गया है। देश की भौतिक सम्पदा व बाह्य स्वरूप को सभ्यता या सिविलाईजेशन कहा जाता है।'
भारत के प्राचीन साहित्य में संस्कृति के लिये 'धर्म' शब्द का प्रयोग किया जाता था तथा सभ्यता के लिये 'अर्थ' शब्द का प्रयोग होता था। संस्कृति शब्द बहुत व्यापक है । इसमें धर्म, साहित्य, परम्परा, सामाजिक व्यवस्था, आध्यात्मिकता, मानसिक तत्व सभी सम्मिलित होते हैं । इन सबका सामूहिक नाम संस्कृति है ।
एक ओर यूनान, रोम व मिश्र की प्राचीन सभ्यता व संस्कृति इतिहासकारों व शोधकर्ताओं का विशेष आकर्षण बन कर रह गयी है, वहीं आज भी भारत की महान् संस्कृति युग-युगान्तरों के परिवर्तनों, क्रांतियों और तूफानों में से निकलकर विरोधी शक्तियों का करारा उत्तर दे रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की संस्कृति का प्रवाह अपनी मुख्य नदी गंगा के प्रवाह के समान अक्षुण्ण है। दायें-बायें जो भी नदी-नाले आयें, वे गंगा में विलीन हो गये।
भारतीय संस्कृति लगभग 5000 वर्ष पुरानी मानी जाती है जिसमें समय-समय पर अनेक संस्कृतियों का प्रवेश हुआ, पर इसकी धारा निरन्तर बहती रही। वैदिक काल आधुनिक काल तक हर युग में भारतीय संस्कृति शांति, सद्भावना, सह-अस्तित्व व वसुधैव कुटुम्बकम् के मानवीय मूल्यों के संरक्षण का कार्य करती रही है और इन सबमें जैन दर्शन व विचारकों का विशेष योगदान रहा है। भगवान महावीर ने अपने अहिंसावादी शांति के संदेशों से पूरी मानव सभ्यता व संस्कृति को प्रभावित किया है और महावीर की शांति व अहिंसा आज की दुनिया के लिये उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी पहले थी ।
भारतीय संस्कृति में दो अन्तर्धाराएं प्रवाहित होती हैं :- वैदिक विचारधारा तथा श्रमण विचारधारा, जिन्हें वैदिक संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति भी कहा जाता है। वैदिक
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संस्कृति में ब्राह्मण या पुरोहित अग्रणी समझे जाते हैं। इनके द्वारा निर्देशित कर्मकाण्ड मार्ग का अन्य सनातनधर्मी अनुगमन करते हैं, इसे ब्राह्मण संस्कृति के नाम से भी पुकारते हैं। वेद, उपनिषद् आदि इसके आधार ग्रन्थ हैं । श्रमण संस्कृति की दो उपधाराएं हैं- बौद्ध एवं जैन । बौद्ध संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं पिटक आदि तथा जैन संस्कृति आगमों पर आधारित है। वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिपरक जीवन से प्रारम्भ होकर निवृत्तिपरक जीवन की ओर बढ़ती है किन्तु श्रमण संस्कृति शुरू से ही निवृत्तिपरक रही है।' वैदिक परम्परा
वैदिक परम्परा का श्रीगणेश वेदों से होता है। हिन्दु धार्मिक मान्यता के आधार पर वेद उन ईश्वरीय पवित्र प्रवजनों के संकलन हैं जो अकाट्य और अमिट हैं । ऐतिहासिकता के आधार पर ये समूचे संसार की मानवकृत रचनाओं में सबसे प्राचीन है। प्राचीनता एवं ज्ञान बाहुल्य के कारण वेदों की गणना संसार की उच्चतम कोटि की रचनाओं में होती है। वैदिक संस्कृति, साहित्य, धर्म एवं दर्शन के ये प्राण हैं । वेद चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद । इनमें से प्रत्येक के चार विभाग है- संहिता, ब्राह्मण, अरण्यक तथा उपनिषद् । इनके अलावा स्मृति, सूत्र, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि वैदिक परम्परा के प्रमुख ग्रन्थ हैं। ___मैं इस शोध पत्र में भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति के आधारभूत तत्त्व अहिंसा और शांति के सिद्धान्तों की उपयोगिता पर प्रकाश डालना चाहती हूं।
जैन-धर्म एवंदर्शन में अहिंसा व शांति का प्रमुख स्थान है। जैन-धर्म दर्शन का अनीश्वरवादी अध्यात्मवाद इसी तत्व से निर्मित है जो प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भावना रखने के सिद्धान्त का प्रतिपादक है। महावीर ने कहा है -
तत्थिमं पढ़मं ढ़ाणं, महावीरेण देसियं।
अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसुसंजमो॥ सभी जीवों के प्रति संयम और अनुशासन की तथा पारस्परिक संबंध में समता की भावना रखना ही निपुण तेजस्वी अहिंसा है। यह परम सुख और चिदानंद देने में समर्थ है । यद्यपि इस नैतिक सिद्धान्त - "मा हिंस्यात् सर्वभूतानि" किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए, को ब्राह्मण और बौद्ध परम्पराओं ने भी स्वीकार किया है परन्तु जैनधर्म में इसका सार्वत्रिक प्रयोग विहित है। श्रमण और श्रावक दोनों का संपूर्ण जीवन उनकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार पूर्णत: या आंशिक रूप से इसी आधार-सिद्धान्त से नियंत्रित होता है। वस्तुत: जैन धर्म से संबंधित प्रत्येक नियम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसी सिद्धान्त पर आधारित है।
अहिंसा विश्व का शाश्वत सिद्धान्त है। यह हमेशा जीव की हिंसा का विरोध करता रहा है, चाहे वह एक मानव की हो, किसी वर्ग की या राष्ट्र की हो अथवा अन्य किसी की। तमाम असफलताओं और उपहासों के बावजूद भी यह क्रोध, मान, कपट, लोलुपता, स्वार्थपरता और ऐसे ही अन्य दूषित भावों के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष करता रहा है। सदियों से जैन अपनी श्रद्धा
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एवं आचरण के लिए यातनाएं सहता रहा, लेकिन उसने किसी ईश्वर के सामने अपनी रक्षा की भीख नहीं मांगी और न अपने तथाकथित शत्रुओं से बदला लेने की भावना ही रखी।
जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद का अहिंसा से बहुत घनिष्ठ संबंध है। जिस प्रकार आचार में अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार विचार में अनेकान्तवाद का प्रतिपादन है। अनेकान्तवाद एक प्रकार से विचारात्मक अहिंसा है। महावीर के समय में आत्मनित्यवाद, उच्छेदवाद आदि बहुत सी दार्शनिक विचारधाराएं प्रवाहित हो रही थी । जिनके फलस्वरूप समाज या दार्शनिक क्षेत्र में मतभेद अपना वृहद् रूप धारण कर रहा था । इसलिए महावीर ने सभी का एक समन्वयात्मक रूप प्रस्तुत किया जो वास्तव में किसी भी वस्तु या सही-सही ढंग से विवेचन करता है। किसी का भी ज्ञान एक सीमा तक ही होता है और उसी सीमा तक वह सही होता है। किन्तु अपनी सीमा का उल्लंघन करके यदि वह पूर्णज्ञान की जानकारी का दावा करते हुए दूसरे व्यक्तियों को गलत साबित करने का प्रयास करता है तो वहां वह अपने आग्रह के कारण दूसरों को कष्ट पहुंचाता है, जिससे हिंसा होती है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिए अपने ज्ञान की यथार्थता को एक विशेष अपेक्षा में व्यक्त करना सही और श्रेयस्कर होता है। इसके लिए महावीर ने 'स्यात्' शब्द की खोज की। इसके संयोग से व्यक्ति अपने ज्ञान को एक सीमा तक सही दिखाता है तथा अन्य ज्ञान पर किसी प्रकार का आक्षेप नहीं करता। इसे ही ' स्यादवाद्' कहते हैं । इस सिद्धान्त का अन्वेषण इसलिए भी किया गया कि महावीर के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक होती है। यदि एक दृष्टि से वह सत् है, तो दूसरी दृष्टि से असत् । यदि वह अपने मौलिक रूप में नित्य है, तो परिवर्तनीय पर्यायों के कारण अनित्य भी है। अतएव जैन धर्म में अहिंसा का सिद्धान्त तात्विक सिद्धान्तों से भी काफी निकटता का संबंध रखता है।
अहिंसा का सिद्धान्त अपने मौलिक रूप में सभी अपवादों से परे था । अहिंसा पालन करने वाले के लिए मात्र यह नियम था कि वह किसी भी जीव को किसी प्रकार कष्ट न पहुंचाए, भले ही उसे कितना भी कष्ट क्यों न झेलना पड़े। इसका ज्वलन्त उदाहरण महावीर के जीवन में पाया जाता है। किन्तु बाद में चलकर इस नियम के कुछ अपवाद भी बन गये ।
अहिंसा तथा सत्य एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् एक को छोड़कर दूसरे को निभाना असंभव-सा हो जाता है । किन्तु कभी-कभी अहिंसा की पूर्ति के लिए सत्य को त्याग दिया जाता है । इसीलिए कहा गया है कि सत्य यदि कष्टदायक हो तो उसे त्याग देना चाहिए अन्यथा हिंसा हो जाती है।
अहिंसा शक्ति संतुलन
हिंसा और अहिंसा का प्रश्न अनादिकाल से चर्चित हो रहा है। फिर भी हिंसा की प्रकृति से मनुष्य मुक्त नहीं हुआ है। वह चलता है तो उसके सामने हिंसा का प्रश्न है । खाए बिना और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा किए बिना वह कैसे जीए ? क्या अहिंसा का अर्थ जीवन का उत्सर्ग माना जाए ? यदि वही माना जाए तो अहिंसा जीवित मनुष्य के लिए नहीं होगी, फिर वह स्वयं भी जीवित कैसे रह सकेगी ? जो मृत के लिए हो उसका मूल्य जीवित सृष्टि के लिए कैसे होगा ?. तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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हम कोई नई स्थापना नहीं कर रहे हैं। जो यथार्थ है, उसे मात्र अनावृत्त कर रहे हैं। मनुष्य प्रकृति से हिंसा के लोक में जीता है। दूसरे जीवों के बलिदान पर उसका जीवन चलता है । दूसरों के तिरस्कार पर उसके सम्मान का पौधा फलता है। कुछ भी मन के प्रतिकूल होता है तो वह क्रोध से भर जाता है। उसका वैभव प्रवंचना और शोषण पर फलित होता है। हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी बड़ा और कोई छोटा हो सकता है। हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी समृद्ध और कोई गरीब हो सकता है। हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी शोषक और शोषित हो सकता है। ये सभी वर्ग हिंसा के द्वारा लोक में बनते हैं। फिर भी हिंसा उसको भी प्रिय है, जो छोटा है, जो गरीब है और जो शोषित है, क्योंकि हिंसा मनुष्य की प्रकृति है। अहिंसा मनुष्य की प्रकृति नहीं है। वह सैद्धान्तिक स्वीकृति और ऊर्ध्वारोहण का प्रयत्न है। उस प्रयत्न की दिशा में मनुष्य प्रेम से क्रोध, विनम्रता से अभिमान, ऋजुता से प्रवंचना और साम्य की अनुभूति से लोभ पर विजय प्राप्त करता है। प्रेम, विनम्रता, ऋजुता और साम्य की अनुभूति की एक शब्द में जो पहचान है, वह अहिंसा है।'
अहिंसा की पकड इतनी स्थूल है कि कुछ जीवों को मारने या बचाने का प्रयत्न कर आदमी अपने को अहिंसक मान लेता है। वह अहिंसा की एक रेखा हो सकती है किन्तु उसकी समग्रता नहीं है। अहिंसा की पूर्णता वृत्तियों के शोधन से प्रकट होती है।
असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह हिंसा के पोषक तत्व हैं । इन सभी से किसी रूप में हिंसा होती है। ठीक इसके विपरीत सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह अहिंसा के पोषक तत्व हैं यानी अहिंसा का सब तरह से पालन करने के लिए इन चारों व्रतों का पालन करना आवश्यक है। अहिंसा के मिल जाने पर ये पांच महाव्रत हो जाते हैं। इन पंच महाव्रतों को गांधीवाद तथा जैन-धर्म दोनों ही प्रधानता देते हैं। गांधीजी ने साफ कहा है कि अहिंसा एक महाव्रत है। जैन धर्म में अहिंसा का स्थान सर्वोच्च है। अहिंसा और खेती
हिंसा अथवा अहिंसा भावप्रधान है। इस पर गांधीवाद तथा जैन- धर्म दोनों ही बल देते हैं। खेती करने में किसान के द्वारा अनेक जीव जन्तुओं का हनन होता है जब वह हल जोतता है, किन्तु किसान का उद्देश्य जीवों की हिंसा करना नहीं होता, वह तो मात्र हल जोतने की इच्छा रखता है । इसलिए उसके द्वारा की गई हिंसा क्षम्य समझी जाती है अर्थात् हिंसा करते हुए भी वह अहिंसक ही समझा जाता है, क्योंकि उसकी भावना हिंसाप्रधान न होकर अहिंसा प्रधान होती है।"
निर्धन धन की खोज में रहता सदा अशान्त। धनपति धन उन्माद में हो जाता उद्भ्रान्त ॥ कारण उभय अशान्ति के, हैं अभाव-अतिभाव। है उपाय सुख शान्ति का, एक मात्र समभाव ॥
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शांति की खोज: विश्व राज्य या सह-अस्तित्व
यह हमारी दुनिया अनेक व्यक्तियों, जातियों, धर्मों, भाषाओं, राष्ट्रों और शासन प्रणालियों का संयोग है। मनुष्य में अनेक प्रकार की आकांक्षाएं, संदेह, भय, परस्पर विरोधी हित भावनाएं हैं। विस्तार और प्रसारवादी शक्तियां सदा सक्रिय हैं । संघर्ष इन परिस्थितियों का अपरिहार्य परिणाम है । संघर्ष के स्फुलिंग तब तक उछलते रहेंगे जब तक अनेकता, भेद या विभाजन की रेखाएं होंगी। अहिंसा का मार्ग सदैव शांति की राह प्रशस्त करता है । अब प्रश्न यह है कि शांति की डोर जनता के हाथ में कैसे आए? इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद शांति के प्रयत्न शिथिल नहीं होते किन्तु अधिक उदीप्त होते हैं । शांति के प्रयत्न संघर्ष के स्फुलिगों को अस्तित्वहीन बनाने के लिए नहीं है किन्तु इसलिए हैं कि स्फुलिंग अग्नि के रूप में न बदल जाएं । शांति के प्रयत्न करते रहना मानवीय विवेक की अपरिहार्य मांग है । शांति का भाग्य उन कुछेक लोगों की छत्रछाया में पल रहा है, जो सत्ता पर आरूढ़ है। जनता के भाग्य में अशांति का परिणाम भुगतना बचा है पर शांति की डोर उसके हाथ से छूट चुकी है। एकाधिकार राजनीतिक प्रभुत्व के युग में जनता के प्रतिनिधि शांति की चर्चा करें, उसका क्या विशेष अर्थ है, मैं नहीं जानती। यह बहुत स्पष्ट है कि जनता शांति और अशांति के लिए आज प्रत्यक्ष उत्तरदायी नहीं है। मेरी दृष्टि में आज का मुख्य प्रश्न शांति या तनाव कम करने का नहीं है। आज का मुख्य प्रश्न यह है कि शांति या अशांति के लिए जनता और सरकार दोनों के सामंजस्यपूर्ण हाथो में समाधान हो तो अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में अकल्पित परिवर्तन आ जाए। शस्त्रीकरण और उपनिवेश का स्रोतः
जनशक्ति हमेशा मानवता का समर्थन करती है किन्तु राजशक्ति का ध्यान हमेशा विस्तार और प्रसार की ओर केन्द्रित रहता है। उपनिवेशवाद इसी मनोवृत्ति की देन है । शस्त्रीकरण और उपनिवेश दोनों एक ही स्रोत से फूटे हुए दो प्रवाह है। आदि में दोनों एक हैं, मध्य में दोनों विभक्त हो जाते हैं और अन्त में दोनों फिर मिल जाते हैं । राजशक्ति का अपना महत्व है पर उसे जितना असीम महत्व दिया जा रहा है उतना ही दिया जाता रहा तो नि:शस्त्रीकरण की समस्या कभी नहीं सुलझेगी। विश्व राज्य या अन्तर्राष्ट्रीय सरकार की स्थापना उपनिवेश और शस्त्रीकरण की बढ़ती हुई होड़ के अंत का एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। अणुव्रत और मानवीय दृष्टिकोण :
___ वे थोड़े से व्यक्ति, जिनके हाथ में सत्ता है, इस प्रश्न पर मानवीय दृष्टि से नहीं सोच रहे हैं । वे सोच रहे हैं सिर्फ राष्ट्रीय दृष्टि से । पर राष्ट्र रहेगा कैसे जब मनुष्य ही नहीं होगा? अणु अस्त्रों से मृतप्राय: मनुष्य जाति क्या राष्ट्र को समुन्नत रख सकेगी? अणु अस्त्रों से अभिशप्त अन्धी, बहरी भावी पीढ़ी से क्या राष्ट्र समुन्नत होंगे? सारी स्थिति बहुत स्पष्ट और निर्विवाद है। उसे जानते हुए भी जो अनजान बन रहे हैं, उन्हें कैसे जगाया जाए? आज इस दिशा में तीव्र प्रयत्न की आवश्यकता है। अभी-अभी एक अणु अस्त्र विरोधी सम्मेलन बुलाया गया था। वह भी शायद शीघ्रता में हुआ होगा। इसीलिये वहां शांति के लिये अनवरत प्रयत्न करने वाली अनेक
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संस्थाओं के प्रतिनिधि नहीं थे। अध्यात्मवादी या शांति की दिशा में प्रयत्न करने वाले शायद मिलना नहीं जानते। वे किसी न किसी बहाने पृथक होकर चलते हैं। हिंसा में अपूर्व मेल होता है। उसकी शक्ति तत्काल एकत्रित हो जाती है। हमें अहिंसा की शक्ति को संचित करना है। नि:शस्त्रीकरण की दिशा में कोई राष्ट्र पहल करने को तैयार नहीं है। पूर्ण निःशस्त्रीकरण सर्वथा वांछनीय होते हुए भी संभव है तंत्र के लिए व्यावहारिक न हो किन्तु अणु अस्त्र जैसे मानव जाति के प्रलंयकारी अस्त्रों के निर्माण तथा संग्रह का उत्सर्ग करना अनिवार्य है। इस दिशा में जो पहल करेगा, वह मानवता का सबसे बड़ा पुजारी होगा।
युद्ध की कल्पना करना बहुत धृष्टता की बात है। किन्तु युद्धकाल में भी युद्धस्थली से अतिरिक्त क्षेत्र को प्रभावित करने वाले अस्त्रों के निर्माण और प्रयोग पर एक अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण हो और यदि वह मानवता की अखण्डता के आधार पर हो तो वह विकास का एक बहुत बड़ा चरण होगा। तीन विचार श्रेणियां:
___ वर्तमान युद्ध का अतीत यह है और वर्तमान सामने है। युद्ध का समय सबके लिए बड़ा विकट होता है। उसके समर्थन और असमर्थन का प्रश्न ज्वलन्त हो जाता है। इस समय सिद्धान्तवादी लोग लगभग तीन विचार श्रेणियों में बंटे हुए हैं : -
(1) आक्रमण में विश्वास रखने वाले हिंसावादी। (2) प्रत्याक्रमण में विश्वास रखने वाले मध्यमार्गी ।
(3) अनाक्रमण में विश्वास रखने वाले अहिंसावादी। - अन्तर्राष्ट्रीय हिंसा में विश्वास रखने वाले हिंसावादी लोग जैसे अपने देश के प्रति कोई विशेष अनुराग नहीं रखते, वैसे ही प्राणी मात्र के प्रति अनुराग नहीं रखते, किन्तु दोनों एक श्रेणी के नहीं होते। हिंसावादी के सामने शत्रु और मित्र का विभाग होता है। अहिंसावादी के सामने वह विभाग नहीं होता। वह किसी को शत्रु नहीं मानता।14 कम हों विभाजक रेखाएं :
विभाजन उपयोगिता के लिए होता है पर उसकी जितनी रेखाएं खींची जाती हैं, उतनी ही दूरी बढ़ जाती हैं। विश्व शांति के लिए यह बहुत अपेक्षित है कि इन विभाजन रेखाओं को जितना संभव हो सके, उतना कम करने का प्रयत्न किया जाए।
यातायात के साधनों की अविकसित दशा में अनेक राष्ट्र, अनेक जातियां और शासन प्रणालियां अपनी-अपनी परिधि में चलती थी। आज के यातायात के विकसित साधनों ने दुनिया को बहुत छोटा बना दिया है। उसकी दूरी सिमट गयी है। परिस्थितियां समाप्त हो गई हैं। इस नई स्थिति में एक राष्ट्र, एक जाति और एक शासन प्रणाली के सिद्धान्त का बहुत महत्त्व बढ़ गया है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। इस कल्पना को मूर्त रूप देने में कम उलझनें नहीं हैं, किन्तु विभाजन की रेखाओं को मिटाए बिना उलझनों का अंत नहीं आ सकता। तब उन उन उलझनों को सुलझाने के सिवा शांति के पक्ष में और चारा ही क्या है ?
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अभय
शांति का आध्यात्मिक सिद्धान्त :
विश्व राज्य का सिद्धान्त भी मेरी दृष्टि में राजनीतिक सिद्धान्त है। शांति का आध्यात्मिक सिद्धान्त सह-अस्तित्व का विचार है। अनेक धाराएं भी सह-अस्तित्व का विकास होने पर एक धारा की भांति व्यवहार कर सकती हैं। यह विचार आना राजनैतिक पक्ष है और बाहर आना आध्यात्मिक पक्ष है । गहराई में उतरें तो अनुभव होगा कि यह सोलह आना आध्यात्मिक पक्ष है। इस पक्ष की पुष्टि के लिए आध्यात्मिक सिद्धान्तों को विकसित और पुष्ट करना आवश्यक है।
सह-अस्तित्व की सिद्धान्त श्रृंखला इस प्रकार होगी : - शांति का आधार
व्यवस्था व्यवस्था का आधार
सह-अस्तित्व सह-अस्तित्व का आधार
समन्वय समन्वय का आधार सत्य का आधार अभय का आधार
अहिंसा अहिंसा का आधार
अपरिग्रह अपरिग्रह का आधार
संयम शांति के सूत्र :
जनता जो कुछ कर सकती है, वह यही कि विश्वभर के शांतिवादी संगठनों का एकीकरण हो। वे एक भावना से विश्व मानस को इन सिद्धान्तों से प्रभावित करें :
(1) निरपेक्ष या आग्रहपूर्ण नीति का परित्याग। (2) सापेक्ष या तटस्थ नीति का स्वीकरण। (3) स्थिति का स्थायित्व की दृष्टि से मूल्यांकन। (4) स्थिति का परिवर्तन की दृष्टि से मूल्यांकन। (5) आत्मविश्वास और पारस्परिक सौहार्द का विकास।
(6) मानवीय एकता की तीव्र अनुभूति। प्रबल है अस्तित्व का प्रश्न :
यह विश्व एकान्ततः न अखण्ड है और न विभक्त । यदि यह विश्व अखण्ड ही होता, तो व्यवहार नहीं होता, उपयोगिता नहीं होती, प्रयोजन नहीं होता। अगर विश्व खण्डात्मक ही होता तो ऐक्य नहीं होता। अस्तित्व की दृष्टि से यह विश्व अखण्ड भी है, प्रयोजन की दृष्टि से यह विश्व खण्ड भी है।
आज मनुष्य जाति के सामने अस्तित्व का प्रश्न प्रबल है। उसे वह विश्व राज्य या सहअस्तित्व - इनमें से किसी एक सिद्धान्त के सहारे ही समाहित कर सकती है। यर्थावादी और धार्मिक धारणा से सह-अस्तित्व का विकल्प अधिक संभव है।" तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 -
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विश्व बंधुत्व के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को भी हम नजर अंदाज न करें
इसमें सबसे पहली कठिनाई है - सब मनुष्यों का मस्तिष्क समान नहीं होता, चिन्तन समान नहीं होता, भावना समान नहीं होती, समझ समान नहीं होती, इन्द्रिय-निग्रह समान नहीं होता, मानसिक नियंत्रण समान नहीं होता, विवेक समान नहीं होता। इस असमानता का लाभ उठाकर हिंसा, आतंक, अपराध, दूसरे के सत्व का अपहरण करने की मनोवृत्ति, आक्रमण आदि निषेधात्मक तत्व अपना पंजा फैला देते हैं।
क्या इन बाधाओं को चीर कर विश्व बंधुत्व की भावना को व्यापक नहीं बनाया जा सकता? यदि मनुष्य को तनावमुक्त, अभय, शांति और आनन्द का जीवन जीना है तो अवश्य ही इन बाधाओं को पार करने का सेतु निर्मित करना होगा और वह सेतु बनेगा मस्तिष्कीय प्रशिक्षण अथवा हृदय परिवर्तन । विश्वबंधुत्व के आधार सूत्र :
भारत की मानविकी ने विश्व को व्यापक बनाने के जो सूत्र दिये हैं, उनका प्रशिक्षण बहुत महत्वपूर्ण है । कुछ सूत्रों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। विश्व बंधुत्व के आधारभूत
सूत्र हैं :
(1) आत्मौपम्य की भावना का विकास। (2) मनुष्य जाति की एकता में विश्वास। (3) धर्म की मौलिक एकता में विश्वास। (4) राष्ट्रीय अथवा विभक्त भूखण्ड के नीचे रहे हुए अखण्ड जगत् की अनुभूति । (5) मैत्री और करुणा का विकास। (6) व्यक्तिगत स्वामित्व की सीमा। (7) शस्त्र के प्रयोग की सीमा। (8) अनावश्यक हिंसा की वर्जना।
(9) संयम का विकास।" मानवीय संबंध सुधरे :
इन सूत्रों का प्रचार-प्रसार हो, ये जन-जन तक पहुंचे, इतना ही पर्याप्त नहीं है। अपेक्षा है, इन मानविकी सिद्धान्तों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए। मस्तिष्कीय-परिवर्तन प्रशिक्षण से सम्भव है। इसकी पुष्टि विज्ञान के द्वारा हो रही है। अनेक वैज्ञानिक पशुओं को प्रभावित कर उनका मस्तिष्कीय परिवर्तन कर रहे हैं। क्या मनुष्य के मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता? निश्चित ही किया जा सकता है, पर इस और अभी ध्यान कम दिया जा रहा है।
विश्व बंधुत्व के सिद्धान्त को व्यापक बनाने का पहला प्रयोग होना चाहिये मानवीय संबंधों में सुधार । इस शिक्षा प्रधान वैज्ञानिक और लोकतंत्रीय प्रणाली के युग में प्रत्येक मनुष्य ने अपने अस्तित्व को समझा है और हीन भावना से ऊपर उठकर समानता का शंखवाद किया है।
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ऐसी स्थिति में बहुत आवश्यक है- मानवीय संबंधों में परिवर्तन, समानतापूर्ण मृदु व्यवहार का विकास । मानवीय संबंधों का परिवर्तन ही विश्व-बंधुत्व की आधारभूमि बन सकेगा और तभी विश्वशांति चिरस्थायी हो सकेगी।
सन्दर्भ :
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वाचस्पति इन्द्र : भारतीय संस्कृति का प्रवाह -- प्रकाशक भारतीय साहित्य मन्दिर, फव्वारा, दिल्ली।
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सिन्हा डॉ. वशिष्ठनारायाण : जैन धर्म में अहिंसा । प्रकाशक सोहनलाल जैन, धर्म प्रचारक समिति
--- अमृतसर, 1972 __उपाध्याय पं. बलदेव : भारतीय दर्शन पृष्ठ 54-55
सिन्हा डॉ. वशिष्ठनारायण : जैन धर्म में अहिंसा अमृतसर । 6. (आचार्य महाप्रज्ञ) श्रमण महावीर
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8. आचार्य महाप्रज्ञ : समस्या को देखना सीखें : आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, 1999 9. सिन्हा डॉ. वशिष्ठनारायण : जैन धर्म में अहिंसा, नई दिल्ली पृष्ठ - 258 10. मुनि नथमल : श्रमण महावीर 11. आचार्य महाप्रज्ञ : समस्या को देखना सीखें। आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, 1999, नई दिल्ली
पृष्ठ 46 12. वही, पृष्ठ 47 13. वही, पृष्ठ 49 14. मुनि धनंजय कुमार : महाप्रज्ञ जीवन दर्शन, नई दिल्ली, पृष्ठ 176 15. आचार्य महाप्रज्ञ : समस्या को देखना सीखें, साहित्य संघ प्रकाशन पृष्ठ - 33-34 16. वही, पृष्ठ 36 17. वही, पृष्ठ 36 18. आचार्य महाप्रज्ञ : समस्या को देखना सीखें, आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन, 1999, नई दिल्ली।
31, नेहरू पार्क जोधपुर (राजस्थान)
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जैन संस्कृति एवं पर्यावरण-संरक्षण
- प्राचार्य निहालचंद जैन
पर्यावरण-वैज्ञानिकों की मान्यतानुसार इस विराट् सौरमण्डल में पृथ्वी ग्रह पर ऐसी अद्भुत जीवन संरचना है कि यहां अगाध सागर, उत्तुंग पर्वत, जीवन-रस बहाती नदियां और वायुमंडल की छत्रछाया है। नदियों के जल का सिंचन पाकर इस ऊर्वरा भूमि पर हरे-भरे पेड़-पौधे उत्पन्न हुए हैं। पेड़-पौधों ने अपनी प्राण-वायु से अन्य प्राणियों को सांसें दी तथा भोजन एवं अन्य आवश्यकताओं की सम्पूर्ति की। प्रकृति की सम्पूर्ण व्यवस्था प्राणियों की जीवन-धारा को सुरक्षित बनाये रखने के लिए है।
परन्तु मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अतुल प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट करने पर उतारू है। एक संवेदनशील लेखक ने एक जगह लिखा है-'आसमां भर गया परिन्दों से, पेड़ कोई हरा गिरा होगा।' इतना ही नहीं, वह अपने सुख के लिए वन्य जीवों की हत्या करने से भी बाज़ नहीं आ रहा है। जीव-सृष्टि के साथ उसका यह अनुचित व्यवहार न केवल सामाजिक प्रदूषण के लिए अपितु भावना के स्तर पर आन्तरिक प्रदूषण के लिए भी उत्तरदायी है।
महावीर सत्य की खोज करते-करते केवल मनुष्य तक ही नहीं रुके थे, पशुपक्षी एवं क्षुद्र जीव-जंतुओं से भी आगे बढ़कर पर्यावरण की सुरक्षा तक पहुंच गये
और अन्ततोगत्वा वे प्रकृति से जुड़ गये थे। उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और हरियाली में जीवन-चेतना एवं प्राणों का स्पन्दन होते देखा तथा इनके सापेक्ष अस्तित्व को निहारा। महावीर दर्शन ने पर्यावरण एवं संरक्षण के लिए अद्भुत सूत्र दिये।
महावीर ने श्रमणाचार एवं श्रावकाचार की वैज्ञानिकता को पर्यावरणीय सन्दर्भ में प्रतिष्ठापित किया। यह तो हमारी सोच को लाचारी एवं बीमारी है, जिसने जैन गुणवाचक संज्ञा के स्थान पर जातिवाचक संज्ञा बना लिया है।
प्रकृति के साथ मानवीय संबंधों की सौगात वस्तुत: पर्यावरण-चेतना का एक अविभाज्य अंग है। आज सम्पूर्ण विश्व में एक चेतावनी, चिन्तन और चेतना का दौरसा चल रहा है।
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चेतावनी का विषय है-पर्यावरण चिन्तन का विषय है-पर्यावरण प्रदूषण चेतना का विषय है-पर्यावरण संतुलन एवं संरक्षण।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए शिखर वार्ताएं आयोजित होती रही हैं । चाहे वह १९७२ में स्टॉकहोम में आयोजित मानव-पर्यावरण-सम्मेलन हो या १९९२ में पृथ्वी सम्मेलन ।सभी में यह चिंता व्यक्त की गई कि जीवन और जगत् को पर्यावरण प्रदूषण से कैसे बचाया जाये?
आज की भोगवादी संस्कृति ने पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को असंतुलित कर दिया है। जैनधर्म, संस्कृति और जैनाचार इस समस्या के समाधान के प्रति मूकद्रष्टा बनकर नहीं रहा है अपितु इसके समाधान के लिए प्रयत्नशील, मुखर भी है। असंतुलित पर्यावरण एवं मानव
(१) पर्यावरण प्रदूषण के संबंध में १९८० में अमरीकी राष्ट्रपति ने विश्व -२००० के प्रतिवेदन में कहा था-यदि पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रित न किया गया तो २०३० तक तेजाबी वर्षा, भूखमरी और महामारी का तांडव नृत्य होगा।
(२) उद्योगीकरण एवं नगरीकरण-अपने कूड़ा-करकट से नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिससे जलीय जीव-जंतुओं के साथ-साथ मानव जीवन भी खतरे में है।
(३) वनों का सफाया होने से जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं । सन् १६०० से अब तक स्तनधारियों की लगभग १२० जातियां तथा पक्षियों की २२५ प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं तथा इस सदी के अंत तक वन्य प्राणियों की ६५० प्रजातियां विलुप्त होने की संभावना है।
वन विनाश के कारण वर्षा में कमी, बाढ़, भू-स्खलन, भू-क्षरण, मरुस्थलीकरण एवं अन्य पारिस्थितिक विक्षोभों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
(४) पृथ्वी तल से लगभग १०० कि.मी. की ऊंचाई पर ओजोन गैस की पारदर्शी रक्षापरत है जो पराबैंगनी और ब्रह्माण्ड किरणों जैसी घातक सौर-किरणों को पृथ्वी तक पहुंचने से रोकती है। कल-कारखानों, वाहनों, विमानों आदि के धुएं से ओजोन परत नष्ट हो रही है। जिनसे ओजोन परत पर घातक असर होता है। उत्तरी ध्रुव पर अंटार्कटिका के ऊपर एक ओजोनछिद्र नजर आने लगा है जो वैज्ञानिकों के लिए चिन्ता का विषय बन गया हैं।
(५) आणविक परीक्षणों से घातक रेडियोधर्मी प्रदूषण बढ़ रहा है। इससे अंतरिक्ष भी प्रदूषण से रहित नहीं रह पा रहा है।
विगत ५० वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण इतना बढ़ गया है जितना पिछले ४०० वर्षों में भी नहीं बढ़ा था। इसका कारण मनुष्य द्वारा प्रकृति के संसाधनों का अतिशय दोहन है । भारत में या विश्व के देशों में आने वाले भूकंप का कारण वैज्ञानिकों ने भूमि के नीचे जल स्तर का गिर जाना बताया है। भूमि के बहुत नीचे शून्य पैदा हो जाने से ऐसी संहारक-घटनाएं संभव मानी गई हैं। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 -
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तीर्थंकरों के प्रतीक चिह्न और पर्यावरण
चौबीस तीर्थंकरों के चिह्न पर्यावरण संरक्षण के रहस्य को समेटे हुए हैं। जैन श्रमणों, तीर्थकरों की दिगम्बर- मुद्रा प्रकृति तथा परिस्थिति की मूल अवधारणा से जुड़ी है। प्रकृति में कोई आवरण नहीं, इसी प्रकार प्रकृतिस्थ जीवन आवरण रहित होता है। वस्तुत: जैन धर्म प्रकृति के साथ तादात्म्य की अनोखी प्रस्तुतिं है। अतएव तीर्थंकरों ने प्रकृति, वन्य- पशु, वनस्पति जगत् के प्रतीक चिह्नों से अपनी पहचान जोड़ दी ।
बारह थलचर जीव-वृषभ, हाथी, घोड़ा, बंदर, गैंडा, महिष, शूकर, सेही, हिरन, बकरा, सर्प और सिंह है। जहां वृषभ कृषि अन्न उत्पादन का मुख्य घटक है, वहीं शूकर अस्पर्श समझा जाने वाला पशु जीवों से उत्सर्जित मल का भक्षण कर पर्यावरण को शुद्ध रखने वाला एक उपकारक पशु है। सर्प विषैले कीटों का भक्षण कर वातावरण को हानिकारक जीवाणुओं से रहित
बनाता है ।
सिंह को छोड़ शेष ग्यारह पशु शाकाहारी है, जो शाकाहार की शक्ति के संदेश वाहक हैं। चक्रवाह एक नभचर प्राणी है तथा मगर, मछली और कछुआ जलचर पंचेन्द्रिय है जो जलप्रदूषण को समाप्त करने में सहायक जलजंतु है। लाल, नील कमल तथा कल्पवृक्ष वनस्पति जगत्
प्रतिनिधि है । कमल - वीतराग भाव का प्रतीक है जिसकी सुरभि पर्यावरण को सुवासित करती है और सौन्दर्य का अवदान देती है। जड़ वस्तुओं में वज्रदण्ड, मंगलकलश, अर्धचन्द्र और शंख तथा स्वस्तिक सभी मानव-कल्याण की कामना के प्रतीक हैं। ये सभी चौबीस चिह्न प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े मुख्य घटक हैं।
जैन दर्शन में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का अमर सूत्र एवं पर्यावरण
उमास्वामी पूज्य ने तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ में एक महान् सूत्र दिया है-'परस्परोपग्रह जीवानाम्' (५,२१) परस्पर एक जीव का दूसरे जीवों के लिए उपकार है। जगत् में निरपेक्ष जीवन नहीं रह सकता। एक बालक की योग्यता के निर्माण में उसके माता-पिता, गुरु, समाज, शासन, संगति एवं पर्यावरण आदि सभी का उपकार जुड़ा होता है। हर व्यक्ति पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से जुड़ा है और अन्यान्य ग्रहों की अदृश्य शक्तियों से प्रभावित रहता है। उसके अस्तित्व की डोर धर्म और अधर्म, द्रव्य, आकाश, काल और पुद्गल द्रव्य के उपकार से सम्बद्ध है। प्राणी एवं मनुष्य वनस्पति जगत् के उपकार से निरपेक्ष नहीं। मनुष्य की त्याज्य अशुद्ध हवा जहां वृक्ष-पादपों के लिये ग्राह्य होती है वहीं वनस्पतियों द्वारा उत्सर्जित वायु मानव व अन्य प्राणियों के लिए प्राणवायु है । इस अन्योन्याश्रय सिद्धांत पर प्रकृति और सम्पूर्ण पर्यावरण टिका होता है । जैन संस्कृति का बहुमान - तीर्थक्षेत्र, मंदिर तथा पर्यावरण
समस्त जैन तीर्थ, सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, हरे-भरे वृक्षों से युक्त पर्वत, शिखरों, नदियों के फूलों, झीलों, उद्यानों आदि पर अवस्थित हैं। चाहे वह निर्माण भूमि सम्मेद शिखर (मधुवन) हो या गिरनार पर्वत, चाहे श्रवणबेलगोला की विन्ध्यगिरी की मनोरम उपत्यकाएं हों या राजस्थान के आबू पर्वत पर देलवाड़ा के विश्व प्रसिद्ध मंदिर या बुन्देलखण्ड के अतिशय क्षेत्र देवगढ़, कुण्डलपुर, सोनागिर गुजरात का शत्रुञ्जय क्षेत्र, पालीताणा सभी शुद्ध पर्यावरण के पवित्र स्थान हैं ।
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पुराणों से सिद्ध है कि प्राचीन जैन मंदिर उद्यानों, सरोवरों से युक्त बगीचों में हुआ करते थे । इसलिए आज भी मंदिरों के सेवकों को माली या बागवान कहते हैं। जो ये तथ्य उद्घाटित करते हैं कि ध्यान व उपासना के केन्द्र समस्त जिनालय उद्यानों के बीच होते थे। इसका संबंध निश्चित ही पर्यावरण से है जो प्रदूषण से रहित सुरक्षित स्थानों में निर्मित होते थे ।
श्रमणों की तपस्थली निर्जल घने वन व पर्वतमालाएं, गुफाएं हुआ करती थीं । २० तीर्थंकरों ने सम्मेदाचल को तपोभूमि वहां के पर्यावरण के कारण ही चुना होगा। जहां घने जंगलों में शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सीजन) का अपार भण्डार अनायास ही साधक की साधना को निर्विघ्न बनाये रखता था। शांत, एकान्त वातावरण अध्यात्म की साधना में सहायक हुआ करता था । ग्रीष्मकाल में भी वृक्षों के कारण शीतल, आर्द्र वायु का संचार सूर्य की तपन को कम कर देता है ।
अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण
अहिंसा पर्यावरण के संरक्षण का मूल आधार है । अहिंसा की आचार संहिता जीवों की रक्षा करके पर्यावरण को पूर्ण संतुलित रखती है। अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है।
श्रावक की भूमिका में आरंभी उद्योगी और विराधी हिंसा त्याज्य नहीं है परन्तु संकल्पी हिंसा का वह त्यागी होता है तथा एकेन्द्रिय स्थावर जीवों जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी अकारण विराधना नहीं करता है।
शाकाहार और पर्यावरण संतुलन
शाकाहार और पर्यावरण सन्तुलन-दोनों का चोली-दामन का संबंध है। मुनि विद्यानंद जी महाराज ने कहा है-'क्रूरताओं की शक्ति का बढ़ना इस शताब्दी का सबसे बड़ा अभिशाप है । ' इससे समग्र पर्यावरण प्रदूषित होता है। प्रकृति ने मानव आहार के लिए वनस्पति व स्वादिष्ट फल- मेवा दिये हैं । जो पशु-पक्षी मानव के प्यार में इतने वफादार बन जाते हैं कि वे अपना सब कुछ न्योछावर कर सकते हैं, उन्हें अपना आहार बनाना कितना घृणित कर्म है ?
मांसाहार क्रूरता की जमीन से पैदा होने वाला आहार है जो सर्वदा प्रकृति के प्रतिकूल होता है। मांसाहार पृथ्वी पर जलाभाव के लिए उत्तरदायी है।
प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि जहां प्रति टन मांस उत्पादन के लिए लगभग ५ करोड़ लीटर की आवश्यकता होती है, वहां प्रति टन चावल, गेहूं के लिए क्रमशः ४५ लाख व ५ लाख लीटर जल की आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका में कत्लखानों के कारण पर्यावरण विनाश की जो स्थिति पैदा हो रही है, वही भारत में होनी सुनिश्चित है।
भारत में पशुधन का जिस गति से विनाश कर मांस उत्पादन किया जा रहा है, वह मांस निर्यात भारत शासन की नीति के कारण हो रहा है जो विदेशी मुद्रा के अर्जन के अलावा और कुछ नहीं दिखती। देश के कत्लखाने पर्यावरण के शत्रु हैं।
श्रमणाचार एवं पर्यावरण
दिगम्बर जैन मुनि अट्ठाइस मूल गुणों का पालन करते हैं जो विशुद्ध वैज्ञानिक एवं पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल है। मुनि का अपरिग्रह महाव्रत प्रकृति के अतिदोहन पर अंकुश
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रखने का प्रतीक है। उनका शरीर अस्त्रान जहां जल अपव्यय रोकता है वहीं अयाचित आहार बहुगुणित अभिलाषाओं को विराम देने और सात्त्विक भोजन को आसक्ति रहित होकर करने का विधान है। पेट की भूख से संग्रह प्रवृत्ति को बल मिलता है। इसी प्रकार पंच समितियों का पालन भी पर्यावरण संरक्षण में विशिष्ट योग देता है एवं निर्जन्तु, एकान्त स्थान में मलमूत्र-क्षेपण प्रदूषण के बचाव के लिए है।
श्रावक बारह प्रकार के आचार का पालन करता है
(१) पंच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व परिग्रह परिमाण व्रत) जो मनुष्य के आन्तरिक पर्यावरण की शुद्धि करके मन, भावना को पवित्र बनाते हैं । भावना के परिष्कार से अन्तर्जगत् के प्रदूषण का विनाश होता है।
(२) तीन गुणव्रत (दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्ड विरति) अनर्थदण्ड और अशुभश्रुति का त्याग करता है। इनके अनुशीलन से बाह्य पर्यावरण शुद्ध रहने के साथ वह अनर्थदण्ड विरति के अंतर्गत ऐसे व्यापारादि नहीं कर सकता जो प्राणियों को कष्ट पहुंचाये, अनावश्यक जंगल कटवाये, जमीन खुदवाये, जल प्रदूषित करे, विषैली गैस का प्रसार या हिंसा के उपकरण आदि देना यह सब हिंसा दान के अन्तर्गत आता है। श्रावक इन सबका त्यागी होता है। साम्प्रदायिक तनाव, जातीय दंगे जैसी अशुभ बातों का करना-कराना, सुनना-सुनाना अशुभश्रुति है जिसका वह त्यागी होता है।
(३) चार शिक्षाव्रत-सामायिक, पौषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण और अतिथि संविभाग-ये चारों जीवन को संयमित व मर्यादित बनाकर पर्यावरण संतुलन में अहम भूमिका का निर्वाहन करते हैं। इसके अलावा श्रावक रात्रिभोजन त्यागी व जल छान कर पीता है जो पर्यावरण प्रदूषण से बचे रहने की अचूक दृष्टि प्रदान करते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति की उक्त कतिपय बातें पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं। जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है जिसमें क्रियाकाण्डों एवं परम्परागत अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है।
पर्यावरण का संबंध वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा हुआ है। जैन संस्कृति में परोक्ष या प्रत्यक्ष पर्यावरण से सीधा संबंधित समस्त संभावनाएं समाहित हैं । जैनधर्म का अनुशीलक पर्यावरण संतुलन का सम्पोषक व समर्थक होता है।
विश्व को प्राकृतिक आपदाओं, प्रकोपों से निजात दिलाने की दृष्टि से जैनधर्म के सर्वमान्य सिद्धांत-अहिंसा एवं शाकाहार बड़े सशक्त वैज्ञानिक सिद्धांत माने जा सकते हैं। आज जरूरत है हम पर्यावरण के प्रति जागरूक बनकर जीएं।
शा.उ.मा.वि. क्र.-3 के सामने
बीना (म.प्र.) 470113
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अहिंसा की वैज्ञानिक आवश्यकता और
उन्नति के उपाय
- अजित जैन 'जलज'
महावीर, अहिंसा और जैनधर्म तीनों एक-दूसरे से इतने अभिन्न रूप से जुड़े हुए हैं कि किसी एक के बिना अन्य की कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। अतः महावीर स्वामी के २६००वें जन्मोत्सव पर जैनधर्म की उन्नति हेतु अहिंसा की वैज्ञानिकता सिद्ध करनी सर्वाधिक सामयिक प्रतीत होती है। स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी जैसे महामनीषी भी धर्म और विज्ञान के प्रबल पक्षधर रहे हैं।
जैनधर्म में अहिंसा का विशद विवेचन किया गया है तथा वर्तमान विज्ञान के आलोक में एक ओर जहां अहिंसक आहार से अपराध, खाद्य समस्या, जल समस्या और रोगों का निदान दिखायी देता है वहीं दूसरी ओर अहिंसा के द्वारा जैव विविधता संरक्षण एवं कीड़ों का महत्त्व भी दृष्टिगोचर होता है।
___ इस प्रकार अहिंसा की जीव वैज्ञानिक आवश्यकता का अनुभव होने पर अहिंसा हेतु विभिन्न वैज्ञानिक उपाय, वृक्ष खेती, ऋषि-कृषि, समुद्री खेती, मशरूम खेती, जन्तु विच्छेदन विकल्प, अहिंसक उत्पाद विक्रय केन्द्र, इत्यादि हमारे सामने आते हैं।
यह सब देखने पर भारत के कतिपय वैज्ञानिकों के इस विचार की पुष्टि होती है कि आधुनिक विज्ञान का आधार बनाने में प्राचीन भारत का अमूल्य योगदान रहा है। इसके साथ प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक स्व. श्री यशपाल जैन का अपने जीवन भर के अनुभवों का निचोड़ भी औचित्य भरा लगता है-'वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय की है।' (अ) अहिंसा का जैनधर्म में महत्त्व
जैन धर्म में जीवों का विस्तृत वर्गीकरण कर प्रत्येक जीव की सुरक्षा हेतु दिशानिर्देश मिलते हैं । जैन शास्त्रों में मांस के स्पर्श से भी हिंसा बतायी गयी है। त्रस हिंसा तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 -
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तो बिल्कुल ही त्याज्य बताया है। निरर्थक स्थावर हिंसा भी त्याज्य बतायी गयी है।' धर्मार्थ हिंसा' देवताओं के लिए हिंसा अतिथि के लिए हिंसा, छोटे जीव के बदले बड़े जीवों की हिंसा', पापी को पाप से बचाने के लिए मारना, दुःखी" या सुखी को मारना, एक के वध में अनेक की रक्षा का विचार, समाधि में सिद्धि हेतु गुरु का शिरच्छेद, मोक्ष - प्राप्ति के लिए हिंसा, भूखें को भी मांसदान" इन सब हिंसाओं को हिंसा मानकर इनको त्यागने का निर्देश है और स्पष्ट कहा गया है कि जिनमतसेवी कभी हिंसा नहीं करते।
इनके अलावा अहिंसा के सम्बन्ध में कुछ अन्य जिनसूत्र भी द्रष्टव्य हैं
- ज्ञानी होने का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । १७
-सभी जीवन जीना चाहते हैं, मरना नहीं, इसलिए प्राणवध को भयानक मानकर निर्ग्रन्थ उसका वर्जन करते हैं।"
-जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है।
- अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है।
(आ) विज्ञान के आलोक में अहिंसा
(१) आहार और अपराध-सात्विक भोजन से मस्तिष्क में संदमक तंत्रिका संचारक (न्यूरो इनहीबीटरी टान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिनसे मस्तिष्क शांत रहता है। वहीं असात्विक (प्रोटीन) मांस भोजन से मस्तिष्क में उत्तेजक तंत्रिका संचारक (न्यूरो एक्साइटेटरी टान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिससे मस्तिष्क अशांत होता है । २१
. गाय, बकरी, भेड़ आदि शाकाहारी जन्तुओं में सिरोटोनिन की अधिकता के कारण ही उनमें शांत प्रवृत्तियां पायी जाती हैं जबकि मांसाहारी जन्तुओं, जैसे- शेर आदि में सिरोटोनिन के अभाव से उनमें अधिक उत्तेजना, अशांति एवं चंचलता पायी जाती है।
इसी परिप्रेक्ष्य में सन् १९९३ में जर्नल ऑफ क्रिमीनल जस्टिस् एज्युकेशन में फ्लुविडा स्टेट के अपराध विज्ञानी सी. रे. जैफरी का वक्तव्य भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि वजह चाहे कोई भी हो, मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और क्रूर हो जाता है। अभी हाल में शिकागो टिंब्यून में प्रकाशित अग्रलेख भी बताता है कि 'मस्तिष्क में सिरोटोनिन की मात्रा में गिरावट आते ही हिंसक प्रवृत्ति में उफान आता है। २२
यहां यह बताना उचित होगा कि मांस या प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थों से, जिनमें टिप्टोफेन नामक अमीनो अम्ल नहीं होता है, मस्तिष्क में सिरोटोनिन की कमी हो जाती है एवं उत्तेजक तंत्रिका संचारकों की वृद्धि हो जाती है। इसी से योरोप के विभिन्न उन्नत देशों में नींद ना आने का एक प्रमुख कारण वहां के लोगों का मांसाहारी होना भी है। २३
उपरोक्त सिरोटोनिन एवं अन्य तंत्रिका संचारकों की क्रिया विधि पर काम करने से श्री पॉल ग्रीन गार्ड को सन् २००० का नोबल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।
(२) आहार और खाद्यान्न समस्या - वैज्ञानिकों का मानना है कि विश्व भर के खाद्य संकट से निपटने के लिए अगले २५ वर्षों में खाद्यान्न उपज को ५० प्रतिशत बढ़ाना होगा । २५
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इस समस्या का सुन्दर समाधान अहिंसक आहार शाकाहार में ही सम्भव है। एक किलोग्राम जन्तु प्रोटीन (मांस) हेतु लगभग ८ किलोग्राम वनस्पति प्रोटीन की आवश्यकता होती है। सीधे वनस्पति उत्पादों का उपयोग करने पर मांसाहार की तुलना में सात गुना व्यक्तियों को पोषण प्रदान किया जा सकता है ।२६
किसी खाद्य श्रृंखला में प्रत्येक पोषक स्तर पर ९० प्रतिशत ऊर्जा का खर्च होकर मात्र १० प्रतिशत ऊर्जा ही अगले पोषक स्तर पर पहुंच पाती है। पादप प्लवक, जन्तु प्लवक आदि से होते-होते मछली तक आने में ऊर्जा का बढ़ा भारो भाग नष्ट हो जाता है और ऐसे में एक चिंताजनक तथ्य यह है कि विश्व में पकड़ी जाने वाली मछलियों का एक चौथाई भाग मांस उत्पादक जानवरों को खिला दिया जाता है।
___ इस प्रकार विकराल खाद्यान्न समस्या का एक प्रमुख कारण मांसाहार तथा एक मात्र समाधान शाकाहार ही है।
(३) आहार और जल समस्या-विश्व के करीब १.२ अरब व्यक्ति साफ पानी पीने योग्य के अभाव में है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि वर्ष २०२५ तक विश्व की करीब दोतिहाई आबादी पानी की समस्या से त्रस्त होगी, विश्व के ८० देशों में पानी की कमी है। इस समस्या के संदर्भ में एक किलो ग्राम गेहूं के लिए जहां मात्र ९०० लीटर जल खर्च होता है वहीं गोमांस के उत्पादन में १.०० लाख लीटर जल खर्च होता है। तथ्य को ध्यान में रखने पर अहिंसक आहार शाकाहार द्वारा समस्या का समाधान भी दिखाई दे जाता है।
(४) आहार और बीमारियां-विश्व स्वास्थ्य संगठन की बुलेटिन संख्या ६३७ के अनुसार मांस खाने से शरीर में लगभग १६० बीमारियां प्रविष्ट होती हैं ।२८ शाकाहार विभिन्न व्याधियों से बचाता है। अधिकांश औषधियां वनस्पतियों से ही उत्पन्न होती हैं। __हरी सब्जियों में उपस्थित पोषक तत्त्व तथा विटामिन 'ई' एवं 'सी' प्रति ऑक्सीकारकों की तरह कार्य करते हैं । अल्साहाइमर रोग से बचाने में इन प्रति आक्सीकारकों की ही भूमिका होती है। शरीर से मुक्त मूलकों की सफाई में प्रति आक्सीकारक अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । मुक्त मूलक कैंसर सहित अनेक घातक रोगों के लिए उत्तरदायी होते हैं।
(५) जैव विविधता संरक्षण और जीव दया-गत दो हजार वर्षों में लगभग १६० स्तनपायी जीव, ८८ पक्षी प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं और वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार आगामी २५ वर्षों में एक प्रजाति प्रति मिनट की दर से विलुप्त हो जायेंगी।३० ।
विभिन्न खाद्य श्रृंखलाओं के द्वारा समस्त जीव एवं वनस्पति आपस में इस तरह से प्राकृतिक रूप से जुड़े हुए हैं कि किसी एक श्रृंखला के हटने या लुप्त हो जाने से जो असंतुलन उत्पन्न होता है उसकी पूर्ति किसी अन्य के द्वारा असंभव हो जाती है। उदाहरणार्थ-प्रति वर्ष हमारे देश में दस करोड़ मेंढक मारे जाते हैं पिछले वर्ष पश्चिमी देशों को निर्यात करने के लिए एक हजार टन मेंढक मारे गये। यदि ये मेंढक मारे नहीं जाते तो प्रतिदिन एक हजार टन मच्छरों और फसलनाशी जीवों का सफाया करते।
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इस प्रकार से प्रकृति में हर जीव-जन्तु का अपना विशिष्ट जीव वैज्ञानिक महत्त्व है और मनुष्य जाति को स्वयं की रक्षा हेतु अन्य जीव-जन्तुओं को भी बचाना ही होगा । अहिंसा की धार्मिक भावना तथा वैज्ञानिकों की सलाह इस संबंध में एक समान है।
(६) कीटनाशक और कीड़ों का महत्त्व-प्रत्येक जीव की तरह कीड़ों का भी बहुत महत्त्व होता है। दुनिया के बहुतेरे फूलों के परागण में कीड़ों का मुख्य योगदान रहता है अर्थात् पेड़-पौधों के बीज एवं फल बनाने में कीड़े महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। अनेक शोधकर्ताओं ने यह पाया है कि जिस क्षेत्र में कीटनाशकों का अधिक उपयोग होता है वहां परागण कराने वाले कीड़ों की कमी हो जाती है और फसल की उपज पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।३२
भारत में कीट पतंगों को १३१ प्रजातियां संकटापन्न स्थिति में जी रही हैं। ऐसे में कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग और उसके होने वाले दुष्प्रभावों से वैज्ञानिक भी चिंतित हो बैठे
विश्व में प्रतिवर्ष २० लाख लोग कीटनाशी विषाक्तता से ग्रसित हो जाते हैं। जिनमें से लगभग २० हजार की मृत्यु हो जाती है। यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने १२९ रसायनों को प्रतिबंधित घोषित कर रखा है।
__ कीटनाशक जहर जैसे होते हैं और ये खाद्य श्रृंखला में लगातार संग्रहीत होकर बढ़ते जाते हैं। इस प्रक्रिया को जैव आबर्धन कहते हैं। उदाहरण के लिए प्रतिबंधित कीटनाशक डी.डी.टी. की मात्रा मछली में अपने परिवेश के पानी की तुलना में १० लाख गुना अधिक हो सकती है और इन मछलियों को खाने वालों को स्वाभाविक रूप से अत्यधिक जहर की मात्रा निगलनी ही पडेगी। यही प्रक्रिया अन्य मांस उत्पादक के साथ भी लागू होती है। खाद्यान्न की तुलना में खाद्यान्न खाने वाले जन्तुओं के मांस में कई गुना कीटनाशक जमा रहेगा। जो अंततः मांसाहारी के लिए मारक सिद्ध होगा। अतएव कीड़ों का बचाव कीटनाशकों का उपयोग रोकना अर्थात् अहिंसा का पालन वैज्ञानिक रूप से भी आवश्यक हो जाता है।
(७) प्राकृतिक आपदायें और हिंसा-प्रकृति अपने विरुद्ध चल रहे क्रिया कलापों को एक सीमा तक ही सहन करती है और उसके बाद अपनी प्रबल प्रतिक्रिया के द्वारा चेतावनी दे ही देती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी के तीन प्राध्यापकों डॉ. मदनमोहन बजाज, डॉ. इब्राहीम तथा डॉ. विजयराज सिंह ने स्पष्ट गणितीय वैज्ञानिक गवेषणाओं द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दुनिया भर में होने वाली समस्त प्राकृतिक आपदाओं-सूखा, बाढ़, भूकम्प, चक्रवात का कारण हिंसा और हत्याएं हैं। (इ) अहिंसा उन्नति के वैज्ञानिक उपाय
(१) वृक्ष खेती-अनेक वृक्षों के फल-फूलों के साथ उनके बीज भी अच्छे खाद्य हैं। उनका उत्पादन १०-१५ टन प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष होता है जबकि कृषि से औसत उत्पादन १.२५ टन प्रतिवर्ष ही है। वृक्ष खेती में किसी प्रकार के उर्वरक सिंचाई, कीटनाशक की भी आवश्यकता नहीं होती।३६ 44 -
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इस तरह से वृक्ष खेती के द्वारा खाद्यान्न समस्या और जल समस्या का और भी कारगर समाधान तो होता ही है, यह विधि अहिंसा से अधिक निकटता भी लाती है।
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(२) ऋषि - कृषि - जापानी कृषि शास्त्री मासानोबू फुयकुओका ने इस कृषि प्रणाली को जन्म दिया है । इसमें रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों इत्यादि का बिल्कुल उपयोग नहीं किया जाता। यहां तक कि भूमि में हल भी नहीं चलाया जाता है। बीज यूं ही बिखेर दिये जाते हैं। खरपतवारों को भी नष्ट नहीं किया जाता है। इस प्राकृतिक खेती द्वारा फुकुओका ने एक एकड़ भूमि से ५-६ टन धान उपजाकर पूरी दुनिया को चकित कर दिया है।७
अहिंसक खेती के प्रवर्तन पर इस जापानी महामना को मैगासे से पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ द्वारा प्रतिपादित कृषि की ही इस खोज (रिसर्च) को बढ़ावा देना क्या हम अहिंसक अनुयायियों का कर्त्तव्य नहीं है ? और महावीर, अहिंसा अथवा आदिनाथ की पावन स्मृति में स्थापित कोई पुरस्कार इस ऋषि तुल्य जापानी को नहीं दिया जाना चाहिए ?
(३) समुद्री खेती-समुद्र की खाद्य श्रृंखला को देखने पर पता चलता है कि वहां पादप प्लवकों द्वारा संचित ३१०८० के.जी. ऊर्जा, बड़ी मछली तक आते-आते मात्र १२६ के. जी. बचती है। ऐसे में यह विचार स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्यों ना भोजन के रूप में पादप प्लवकों का सीधे प्रयोग करके विशाल ऊर्जा क्षय को तो रोका ही जाये, हमारी खाद्य समस्या को भी सरलता से हल कर लिया जाये।
समुद्री शैवालों का विश्व में वार्षिक जल संवर्धन उत्पादन लगभग ६.५ गुणा १,००,००००० टन है। जापान तथा प्रायद्वीपों सहित दूरस्थ पूर्वी देशों में इसके अधिकांश भाग का सब्जी के रूप उपयोग किया जाता है। समुद्री घासों में प्रोटीन काफी मात्रा में पायी जाती हैं। इसमें पाये जाने वाले एमीनो अम्ल की तुलना सोयागीन या अण्डा से की गई है।
मेरे मत से मछली पालन के स्थान पर पादप प्लवक पल्लवन से अहिंसा, ऊर्जा एवं धन तीनों का संरक्षण किया जा सकता है।
(४) मशरूम खेती - फफूंद की एक किस्म मशरूम प्राचीन समय से खाई जाती रही है । यदि मशरूम की खेती को प्रोत्साहित और प्रवर्धित किया जाये तो यह अण्डों का उत्तम विकल्प बन सकता है। चूंकि इसका पूरा भाग खाने योग्य होता है। अधिक भूमि की आवश्यकता नहीं होती है, रोशनी की अधिक आवश्यकता नहीं होती है। यह कूड़े-करकट पर उग सकता है तथा खनिजों का खजाना होता है, इसलिए यह आम आदमी का उत्तम नाश्ता हो सकता है। मशरूम के प्रोटीन में सभी आवश्यक अमीनों अम्ल भी पाये जाते हैं जो इसे श्रेष्ठ आहार बनाते हैं ।
( ५ ) अहिंसक नव निर्माण- (क) ब्ल्यू क्रास ऑफ इंडिया ( चैन्नई) ने काम्पयुफ्राग, काम्प्युरैट शीर्षकों से साफ्टवेयर विकसित किये हैं जिनके प्रयोग से देश की शिक्षण संस्थाओं में लाखों मेंढकों, चूहों की हिंसा को समाप्त किया जा सकता है।
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(ख) ब्यूटी विदाउट कुयेल्टी पूणे ने लिस्ट ऑफ आनर के माध्यम से अहिंसक सौन्दर्य प्रसाधनों की प्रामाणिक सूची प्रस्तुत की है। इस प्रकार के कार्य को और व्यापक बनाना चाहिए। (ग) विभिन्न वैज्ञानिक जैव प्रौद्योगिकी द्वारा ऐसे बीज तैयार कर रहे हैं जिनसे वह कीट प्रतिरोधी पौधे उत्पन्न करेंगे और इस तरह कीटनाशकों का प्रयोग बंद हो सकेगा।
(घ) विदेशों में अहिंसक उत्पाद विक्रय केन्द्र बॉडी शाप खोले गये हैं । इस तरह के केन्द्र हमें अपने देश में नगर-नगर, डगर-डगर खोलने चाहिए।
(ङ) अहिंसा शोध एवं प्रमाणन हेतु अहिंसक प्रयोगशाला स्थापित होनी चाहिए। निष्कर्षत: अहिंसा की विविध क्षेत्रों में वैज्ञानिक रूप से उपयोगिता/आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह तथ्य स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जा सकता है कि आज समग्र विश्व में विभिन वैज्ञानिक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अहिंसा को प्रोत्साहित कर रहे हैं और कर सकते हैं। परन्तु इस बात का अहसास स्वयं उन्हें भी नहीं है कि वे अहिंसा का कितना पुनीत धार्मिक कार्य कर रहे हैं।
कितना अच्छा हो कि अहिंसा की प्रतिमूर्ति जैनधर्म की कोई प्रतिनिधि संस्था अहिंसा के क्षेत्र में चल रहे विभिन्न वैज्ञानिक कार्यों पर नजर रखकर उन्हें संरक्षण, समन्वय तथा निर्देशन दे तथा इन अहिंसक और वैज्ञानिकों के अनुसार विभिन्न अहिंसक कार्य योजनाएं, विकल्प, संसाधन बनाये। अगर हम इस दिशा में कुछ भी कार्य कर सकें तो भगवान महावीर के २६०० वें जन्मोत्सव वर्ष में उनकी आदर्श अहिंसा को शक्तिशाली बना सकेंगे जिससे कि सुखी, संतुलित संसार का सृजन हो सकेगा।
धर्म और विज्ञान के समन्वय के लिये लिखे गये प्रत्येक लेख के लिये मैं आचार्य कनकनन्दी, डॉ. नेमीचंद जी इंदौर एवं डॉ. अनुपम जैन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का आजीवन आभारी हूं ।
लेख के आधार ग्रन्थ
१. श्रीमद् अमृतचन्द्र सूरि पुरुषार्थ सिद्धि उपाय १-४८ धर्मदर्शन विज्ञान शोध संस्थान, बड़ौत
(उ. प्र. )
२. जिनेन्द्र वर्णी, समण सुत्त ( श्रमण सूत्र पृ. १ - २७६, एवं सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी (उ. प्र. )
३. बॉयोलॉजी (१२ वीं) दूसरा भाग, १९९५, एन.सी.ई.आर.टी., न्यू दिल्ली, पेज ७६३-१०८ ४. बॉयोलॉजी (११) भाग २, १९९५ एन.सी.ई.आर.टी., न्यू दिल्ली
५. मांसाहार सौ तथ्य डॉ. नेमीचंद ६५, पत्रकार कॉलोनी, कनाडिया रोड, इंदौर
६. आविष्कार- एन.आर.डी.सी., २०-२२ जमशेदपुर कम्युनिटी सेन्टर, कैलाश कॉलोनी, एक्सटेन्सन ७. इन्वेन्टेशन इनटेलीजेंस
८. विज्ञान प्रगति - सी. एस. आई. आर. डॉ. के. एस. कृष्णन मार्ग, नई दिल्ली
९. सम्यक् विकास- २१, सुफलाम फ्लेट्स जयहिंद प्रेस के सामने, आश्रम रोड, अहमदाबाद १०. वैज्ञानिक - भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, टाम्बे, बम्बई - ४०००६५
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संदर्भ स्थल : १. विज्ञान प्रगति फरवरी २००१, पृ. ४९, २, २. पुरुषार्थ सिद्धि उपाय, पृ. १११, ३. वही, पृ. १२५, ४. वही, पृ. १२७, ५. वही, पृ. १२८, ६. वही, पृ. १३०, ७. वही, पृ. १३१, ८. वही, पृ. १३२, ९. वही, पृ. १३३, १०. वही, पृ. १३४ ११. वही, पृ. १३५, १२. वही, पृ. १३७, १३. वही, पृ. १३८, १४. वही, पृ. १३९, १५. वही, पृ. १४८, १६. वही, पृ. १४९, १७. समणं सुत्तम्, पृ. ४७, ४८, ५१, १८. वैज्ञानिक-जन, मार्च ९१, पृ. ५५, १९. आविष्कार-अगस्त २०००, पृ. ३७१, २०. वैज्ञानिक-जन. मार्च ९१, पृ. ५५, २१. विज्ञान प्रगति-जनवरी २००१, पृ. ३८, २२. वही, फरवरी २००१, पृ. १२, २३. इनवेन्सन इनटेलीजेंस फर. ९५, पृ. ७३, २४. आविष्कार-जून २०००, पृ. २५१, २५. मांसाहार-सौ तथ्य, पृ. १९, २६. आविष्कार-अक्टूबर २०००, पृ. १९, २७. विज्ञान प्रगति-अक्टूबर ९९, पृ. ४७, २८. आविष्कार जुलाई २०००, पृ. ३२२, २९. विज्ञान प्रगति-अक्टूबर ९९, पृ. १३, ३०. वही, अक्टूबर ९९, पृ. ४७, ३१. आविष्कार नवंबर ९९, पृ. ५१४, ३२. बायोलॉजी १२ भाग २, पृ. ९६३, ३३. सम्यक् विकास-श्री सूरजमल जैन, जुलाई दिसम्बर २०००, पृ. ३२ ३४. विज्ञान प्रगति फरवरी २०००, पृ. २७, ३५. बायोलॉजी ११ भाग २, पृ. ३१७, ३६. विज्ञान प्रगति जुलाई २०००, पृ. ५५-५२
प्रवक्ता, वीरमार्ग ककरवाहा जिला-टमकगढ़ (म.प्र.) 472010
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अहिंसा का व्यवहारपरक विश्लेषण एवं शिक्षण
- प्रो. चान्दमल कर्णावट
अहिंसा जीवन मूल्यों में अमूर्त हैं, अदृश्य हैं। अदृश्य होने से उन्हें देख-परख नहीं सकते। उनकी शिक्षा कैसे दी जाए? यह एक महत्त्वपूर्ण अहम प्रश्न है।
इस संबंध में मनोविज्ञान ने हमारी पर्याप्त सहायता की है। मनोविज्ञान को आज मानव व्यवहारों का अध्ययन माना गया है। इसी सन्दर्भ में शिक्षा को भी आज Modification of behaviour या व्यवहार परिवर्तन या व्यवहारों में सुधार की संज्ञा दी गई है । मूल्यों के भी व्यवहारपूरक विश्लेषण से शिक्षण और परीक्षण दोनों कार्य सुविधा पूर्वक सम्पन्न हो सकते हैं।
____ लगभग पांच दशाब्दि पूर्व ब्लूम ने Tazanomy of में संज्ञानात्मक, भावात्मक एवं मनोशारीरिक क्षेत्रों में मानव व्यवहारों का विश्लेषण प्रस्तुत किए गए व्यवहार विश्लेषण का शिक्षा जगत में पर्याप्त उपयोग किया गया और किया जा रहा है।
आध्यात्मिक, धार्मिक एवं नैतिक क्षेत्रों में व्याख्यायित अहिंसादि मूल्यों का क्षेत्र की आवश्यकतानुसार विस्तृत व्यवहारपरक विश्रूषण की आज अपेक्षा है। इससे इन मूल्यों की शिक्षा और परीक्षा का मार्ग प्रशस्त हो सकता है । मूल्यों की उपलब्धि भी सुनिश्चित हो सकती है। ये शिक्षण परीक्षण के उद्देश्य हो सकते हैं।
इसी आवश्यकता को दृष्टिगत करके अहिंसा के विभिन्न स्वरूपों, यथाकरुणा, आत्मतुल्य, रक्षा आदि का व्यवहारपरक विश्रूषण करने का प्रयास किया गया है। आगे दिये गए व्यवहारों में से घर, विद्यालय, कार्यालय आदि में यथायोग्य का चयन कर उनका विकास किया जा सकता है। अहिंसा की तरह अन्य मूल्यों का भी व्यवहारपरक विश्लेषण किया जा सकता है।
अहिंसा के निम्नांकित रूपों का क्रमश: व्यवहारपरक विश्लेषण प्रस्तुत है:
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करुणा : अहिंसा का एक रूप
वाचिक स्तर:- 1. वचन से दयालुतापूर्ण कथन करना, 2. जीव रक्षा की बात करना, 3. वचन से स्नेह, सहानुभूति, क्षमाशीलता के कथन करना, 4. प्राणिमात्र को सुखी बनाने की बात करना, 5. जीवमात्र के दुःख निवारण का कथन करना, 6. पानी, हवा, पृथ्वी, वनस्पति के अनावश्यक उपयोग न करने का कथन करना, 7. बुरी आदतों का उपयोग न करने का कथन करना, 7. बुरी आदतें, जैसे-जुआ, नशा, मांसाहार के त्याग करने की प्रेरणा देना, 8. सेवकों, पशुओं आदि पर भी अधिक कार्यभार/भार न डालना, उन्हें पीड़ित न करने का कथन करना, 9. सबकी स्वतंत्रता की रक्षा की बात करना।
कायिक व्यवहार-उपर्युक्त वाचिक व्यवहारों को कायिक रूप देकर उन्हें शरीर से संपन्न करना । जैसे-1. खोए बालकादि या मार्ग भूले को यथास्थान पहुंचाना, 2. दुर्घटनाग्रस्त, रूग्ण को चिकित्सालय तक पहुंचाना, 3. आदीपक औषधि, वस्त्र, भोजन, पानी आदि देकर विकलांग, अपंग को आवश्यक सहयोग देना, 4. पानी, वनस्पति, हवा, पृथ्वी आदि का केवल आवश्यक उपयोग ही करना, 5. जुआ, नशादि कुव्यसनों का त्याग करना, 6. पशु-पक्षियों की यथायोग्य रक्षा करना, 7. अपढ़ को शिक्षा में सहयोग करना, आदि।
मानसिक व्यवहार-जो वक्तव्य नहीं हो सकते, वे दृश्य नहीं हैं । वाचिक और कायिक व्यवहार मानसिक व्यवहारों यथा- भावना, विचार एवं चिंतन को पुष्ट कर सकते हैं। आत्मतुल्यता : एक अहिंसक व्यवहार
वचनपरक व्यवहार:-1. सब जीवों को आत्मतुल्य समझना अहिंसा है । अतः प्राणीमात्र के साथ आत्मतुल्य व्यवहार का कथन करना, 2. जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही सबको सुख प्रिय है, का विचार व्यक्त करना, 3. जैसे मुझे दुःख अप्रिय है, वैसे ही सभी प्राणियों को दु:ख अप्रिय है, का कथन करना, 4. जैसा व्यवहार हम औरों से चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार हम औरों के साथ करें, ऐसा विचार प्रकट करना, 5. जैसे मुझे कठोर वचन अप्रिय हैं, वैसे ही औरों को भी अप्रिय और पीड़ाकारी हैं, यह बताना, 6. जैसे मुझे कठोर व्यवहार प्रिय नहीं वैसे ही औरों को भी कठोर व्यवहार प्रिय नहीं, ऐसा विचार व्यक्त करना, 7. मेरी तरह सभी को मधुर व्यवहार, मधुर वचन प्रिय हैं । अतः सबको अपनी आत्मा के समान जानकर मधुर व्यवहार करने का कथन करना।
कायिक व्यवहार-उपर्युक्त सभी वचनपरक व्यवहारों को शरीर से संपन्न करना। . अनेकान्त : अहिंसा का एक व्यवहार
अपने से भिन्न विचारों को भी अपेक्षा से स्वीकारना, आदर करना अनेकान्त अथवा स्याद्वाद है । सत्य के अन्वेषण का यह बुनियादी आधार है। इसे वैचारिक अहिंसा माना गया है।
वचनपरक व्यवहार-1. वाणी में दुराग्रह का त्याग करने का विचार प्रकट करना, 2. वाणी में सहनशीलता, उदारता की अभिव्यक्ति करना, 3. एकांत आग्रहपूर्ण स्थितियों में न उलझने का विचार व्यक्त करना, 4. भाषण, चर्चा आदि में आग्रहरहितता, उदारता का कथन करना, 5. उदारतापूर्ण विचारों का वचनों से स्वागत करना, 6. लेखन में आग्रहमुक्त बनना, 7. घर, परिवार, समाज सर्वत्र उक्त व्यवहारों का वाणी में निर्वाह करना।
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कायपरक व्यवहार-1. वचनपरक व्यवहारों को शरीर द्वारा सम्पन्न करना, 2. विशेषतः उदारता, सहनशीलता की अभिवृद्धिकारक चर्चाओं में रुचि लेना, भाग लेना, 3. ऐसे कार्यक्रमों को सुनना, देखना, 4. अनेकांतपरक कार्यक्रमों की योजना, प्रस्तुति एवं प्रचार करना। स्वतंत्रता की रक्षा : एक अहिंसक मूल्य
दूसरों को पराधीन बनाना हिंसा है और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा करना अहिंसा का ही एक आयाम है।
वाचिक व्यवहार-1. सबकी स्वतंत्रता की रक्षा करने हेतु संयम, आत्मानुशासन आदि का विचार प्रकट करना, 2. सभी को उनके आवश्यक योग्य अधिकार देने का विचार प्रकट करना, 3. अनिवार्य स्थितियों के अलावा किसी के स्वतंत्र कार्य करने में बाधाकारी वचन नहीं बोलना, 4. अपने विचार (अनिवार्य स्थिति के अलावा) किसी अन्य पर नहीं थोपने का कथन करना, 5. सभी की स्वाधीनता का सम्मान प्रकट करना।
कायिक व्यवहार-1. बच्चों को (विशेष परिस्थिति के अलावा) बांधकर नहीं रखना, 2. पक्षियों को (विशेष परिस्थिति के अलावा) बंधन में नहीं डालना, 3. पराधीन बंधनग्रस्त प्राणियों को स्वाधीन बनाने में सहयोग करना, 4. सभी को उनके यथायोग्य आवश्यक अधिकार (हक) देना, 5. प्रतिनिधि व्यक्तियों को शामिल कर नियमादि का निर्माण करना।
पूर्वोक्त व्यवहारों के शिक्षण की संक्षिप्त योजना प्रस्तुत की जा रही है। इससे पूर्व इन व्यवहारों का सम्यक् निर्धारण एवं पूर्व परीक्षण आवश्यक है। जो इस प्रकार है:1. योग्य निर्णायक नियुक्त कर उनसे उक्त व्यवहारों पर राय लेना एवं यथायोग्य सुधार करना 2. घर में, विद्यालय में छोटान्यादर्श ( Sample) लेकर उक्त व्यवहारों का परीक्षण (Tryout) करना।
उक्त व्यवहारों का घर में, विद्यालय में, कार्यालय में सामान्य शिक्षण निम्न प्रकार किया जा सकता है:
1. दैनिक जीवन के लिए कुछ व्यवहारों का चयन करना, 2. दैनिकचर्या में निश्चित व्यवहारों का अभ्यास करना,
3. दिन में प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल उनका स्मरण करना। इन पर कितना पालन हुआ, क्यों नहीं हुआ? विचार करके भविष्य के लिए संकल्प करना।
4. व्यवहारों के शिक्षण की बाधाओं को नोट कर उनके निवारण का प्रयास करना।
व्यवहारपरक मनोविज्ञान को दृष्टिगत कर इनमें यथायोग्य परिवर्तन/परिवर्धन किया जा सकता है। उनका व्यवहार विश्लेषण तो एक अत्यंत सामान्य कार्य है। शोध विशेषज्ञ इन पर शोध प्रयोजनाएं बनाकर व्यापक कार्य सम्पन्न करें, ऐसी अभ्यर्थना है। इस प्रकार मूल्यों के व्यवहारपरक विश्लेषण को आगे बढ़ाकर मूल्यों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण कार्य किए जाने की असीम सम्भावनाएं छिपी हुई हैं।
प्लॉट-13, अहिंसापुरी फतहपुरा उदयपुर-313004( राजस्थान)
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आधुनिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में
भगवान महावीर का चिन्तन
- रजनीश शुक्ल
तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्त समग्र मानवीय जीवन दर्शन या जीवन-संस्कृति से अनुप्राणित हैं, जो मुख्यतया अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की त्रयी पर आधारित है । महावीर के अनुसार दृष्टिनिपुणता तथा सभी प्राणियों के प्रति संयम ही अहिंसा है। दृष्टिनिपुणता का अर्थ सतत जागरूकता तथा संयम का अर्थ है-मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं का नियमन । जीवन के स्तर पर जागरूकता का अर्थ तभी सार्थक होता है जब उसकी परिणति संयम हो । संयम का लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है जब उसका जागरूकता द्वारा सतत दिशानिर्देश होता रहे । लक्ष्यहीन और दिग्भ्रष्ट संयम अर्थहीन काय-क्लेश मात्र बनकर रह जाता है।
महावीर के सिद्धान्तों में प्रतिबिम्बित श्रमण संस्कृति के सन्दर्भ में ज्ञानदृष्टि के आधार पर जीवनचर्या का संयमन ही तात्विक संयम है। जीवनचर्या के संयमन के बिना मानव जाति में एकता की प्रतिष्ठा तथा विलास वैभव का नियंत्रण सम्भव नहीं। एकता
और समता, संयम और नियंत्रण के अभाव की स्थिति में हिंसा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है जिससे जनता का दुःख बढ़ता है। इसलिए महावीर ने दूसरे के दुःख को दूर करने की धर्मवृत्ति को अहिंसा कहा है। महावीर के सिद्धान्तों से मानव जाति को एकता का संदेश मिला है तथा अनुध्वनित अपरिग्रह एवं अहिंसा के संदेश मनुष्य की वर्तमान आर्थिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं को ऊपर उठाने से अधिकाधिक उपयोगी हो सकते हैं। उन्होंने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए बल दिया था कि वह जानते थे कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन को विघटित करने वाला है। महावीर ने ऐसे समाजघाती परिग्रहवाद के विरोध में आवाज उठाई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना की।'परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् जीवों के प्रति परस्पर उपकार की भावना ही उनकी जीवन साधना का लक्ष्य था और इसका प्रतिफलन उनके मूल्यवान सिद्धान्तों में हुआ है।
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वर्तमान विश्व के सामने जो आज समस्याएं हैं, लगभग वही भगवान् महावीर के युग में भी थीं। तब भी नारी पुरुष के बीच विषमता थी, समृद्धि और गरीबी के बीच गहरी खाई थी। क्षुद्र स्वार्थ के लिए हिंसा और बल का प्रयोग होता था, शास्त्र और शास्त्रों के धारक केवल अपने को शक्तिशाली मानते थे । विचारों की अशुद्धि और संकीर्णता ने पूरे वातावरण को प्रदूषित कर रखा था। यद्यपि भगवान् महावीर की साधना इन सब सांसारिक और क्षुद्र समस्याओं के निराकरण के उद्देश्य से नहीं थी, किंतु उन्होंने जो अपने चिन्तन की रश्मियां फैलायीं उसमें आत्मा का परम तत्त्व तो दिखा ही, इन सामाजिक समस्याओं का अंधकार भी तिरोहित हो गया। प्रत्येक वर्ग को लगा कि भगवान् महावीर का चिन्तन व्यक्ति के कल्याण के लिए भी है। भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म-दर्शन के चिन्तन के कुछ बिन्दुओं की प्रासंगिकता हम आधुनिक सन्दर्भ में देख सकते हैं।
भगवान् महावीर के युग पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि वह युग भी आज युग की भांति अत्यंत बौद्धिक कोलाहल का युग था । हमारा आज का युग अध्यात्म, मोक्ष आदि पारलौकिक चिन्तन के प्रति विरक्त ही नहीं, अनास्थावान भी है। भगवान् महावीर के युग में भी भौतिकवादी एवं संशयमूलक जीवन दर्शन के मतानुयायी चिंतकों ने समस्त धार्मिक मान्यताओं, चिर संचित आस्था एवं विश्वास के प्रति प्रश्रवाचक चिह्न लगा दिया था। पूरणकस्सप, मक्खलि, गोशालक, अजिकेशकम्बलि, पकुध कच्चायन, संजय बेलटिठपुत्त आदि के विचारों को पढ़ने पर
आभास होता है कि युग के जन-मानस को संशय, त्रास, अविश्वास, अनास्था, प्रनाकुलता आदि वृत्तियों ने किस सीमा तक आबद्ध कर लिया था। पुरणकस्सप एवं पकुध कच्चायन दोनों आचार्यों ने आत्मा की स्थिति तो स्वीकार की थी किन्तु अक्रियावादी दर्शन का प्रतिपादन करने के कारण इन्होंने सामाजिक जीवन में पाप-पुण्य की सभी रेखाएं मिटाकर अनाचार एवं हिंसा
बीज का वपन किया। पुरण कस्सप प्रचारित कर रहे थे कि आत्मा कोई क्रिया नहीं करती, शरीर करता है और इस कारण किसी भी प्रकार की क्रिया करने से न पाप होता है, न पुण्य । पकुध कच्चायन ने बताया कि - 1. पृथ्वी, 2. जल, 3. तेज, 4. वायु, 5. सुख, 6. दुःख एवं 7. जीवन
सात पदार्थ अकृत, अनिर्मित, अवध्य, कूटस्थ एवं अचल हैं। इस मान्यता के आधार पर वे यह स्थापना कर रहे थे कि जब वे अवध्य हैं तो कोई हंता नहीं हो सकता। 'यदि तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा किसी को काट भी दिया जाये तो भी वह किसी को प्राण से मारना नहीं कहा जा सकता।' अजितकेसकंबलि पुनर्जन्मवाद पर प्रहार कर आस्तिकवाद को झूठा ठहरा रहे थे तथा भौतिकवादी विचारधारा का निरूपण करने के लिए इस सिद्धान्त की स्थापना कर रहे थे कि 'मूर्ख और पंडित सभी शरीर के नष्ट होते ही उच्छेद को प्राप्त हो जाते हैं।'
भगवान् महावीर के समकालिक आचार्य मंखलि गोशालक की परम्परा को आजीवक या आजीविक कहा गया है। ' मज्झिमनिकाय' में इनकी जीवन-दृष्टि को ' अहेतुकदिट्ठि' अथवा 'अकिरियादिट्ठि' कहा गया है। इस प्रकार उनके मत में व्यक्ति की इच्छा शक्ति का अपना कोई महत्त्व नहीं है। नियतिवादी होने के कारण गोशालक प्रचारित कर रहे थे कि जीवन-मरण, सुख-दुःख, हानि-लाभ, अनतिक्रमणीय हैं। इन्हें टाला नहीं जा सकता, वह होकर ही रहता है ।
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संजयवेलट्ठिपुत्त अनिश्चय एवं संशय के चारों ओर चक्कर काट रहे थे। इनके अनुसार अयोनिज प्राणी, शुभाशुभ कर्मों के फल आदि के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
इस प्रकार जिस समय दर्शन के क्षेत्र में चारों ओर घोर संशय, अनिश्चय, तर्क, वितर्क, प्रश्नाकुलता व्याप्त थी, आचारमूलक सिद्धान्तों की अवहेलना एवं उनका तिरस्कार करने वाली चिन्तकों के स्वर सुनायी दे रहे थे, मानवीय सौहार्द एवं कर्मवाद के स्थान पर घोर भोगवादी, अक्रियावादी एवं उच्छेदवादी वृत्तियां पनप रही थी, जीवन का कोई पथ स्पष्ट नहीं दिखायी दे रहा था, उस समय भगवान् महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याण के लिए, अपने ही प्रयत्नों द्वारा उच्चतम विकास कर सकने का आस्थापूर्ण मार्ग प्रशस्त कर अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, परिग्रहवाद एवं अहिंसावाद आदि का संदेश देकर नवीन आलोक प्रस्फुटित किया।
आज की भौतिक विज्ञान की उन्नति मानवीय चेतना को जिस स्तर पर ले गयी है वहां पर उसने महावीर की मान्यताओं के सामने प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। प्राचीन मूल्यों के प्रति मन में विश्वास नहीं रहा है। महायुद्धों की आशंका, आणविक युद्धों की होड़ और यांत्रिक जड़ता ने हमें एक ऐसे स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां सुन्दरता भी भयानक हो गयी है। डब्ल्यु.बी. ईट्स की पंक्तियां शायद इसी परिवर्तन को लक्ष्य करती हैं
___All changed, changed utterly, A terrible beauty is born.
वैज्ञानिक उन्नति की चरम सम्भावनाओं से चमत्कृत एवं औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजरने एवं पलने वाला आज का आदमी इलियट के वेस्टलैंड के निवासी की भांति जड़वत एवं यंत्रवत होने पर विवश होता जा रहा है।
रूढ़िगत धर्म के प्रति आज का मानव किंचित भी विश्वास को जुटा नहीं पा रहा है। समाज में परस्पर घृणा, अविश्वास, अनास्था एवं संत्रास के वातावरण के कारण आज अनेक मानवीय समस्याएं उत्पन्न होती जा रही हैं। आर्थिक अनिश्चयात्मकता, अराजकता, आत्मग्लानि, व्यक्तिवादी आत्मविद्रोह, जीवन की लक्ष्यहीन समाप्ति आदि प्रवृत्तियों से आज का युग ग्रसित है। कोटिकोटि जन जिन्हें युगो-युगों से समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है वे आज भाग्यवाद एवं नियतिवाद के सहारे मौन होकर बैठ जाना नहीं चाहते किंतु सम्पूर्ण व्यवस्था पर हथौड़ा चलाकर उसे नष्ट कर देना चाहते हैं।
परम्परागत जीवन मूल्यों को तोड़ने की उद्देश्यगत समानता के होते हुए भी भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती एवं समसामयिक अक्रियावाद चिन्तन एवं आधुनिक अस्तित्ववादी चिन्तन में बहुत अन्तर है। अस्तित्ववादी चिन्तन ने मानव-व्यक्ति के संकल्प स्वतंत्र, व्यक्तित्व-निर्माण के लिए स्व प्रयत्नों एवं कर्मगत महत्त्व का प्रतिपादन, कर्मों के प्रति पूर्ण दायित्व की भावना एवं व्यक्तित्व की विलक्षणता, गरिमा एवं श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया है। अस्तित्वसम्पन्न मानव अपने ऐतिहासिक विकास के अनिर्दिष्ट, अज्ञेय मार्ग को मापता चलता है।
आज का व्यक्ति स्वतंत्र होने के लिए अभिशापित है। आज व्यक्ति परावलम्बी होकर नहीं, स्वतंत्र निर्णयों के द्वारा विकास करना चाहता है। सार्च का अस्तित्वाद ईश्वर का निषेध करता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 -
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है और मानव को ही अपने भविष्य का निर्माता भी स्वीकार करता है । यह चिन्तन महात्मा बुद्ध के 'अत्ता ही अत्तनो नाथो को ही नाथो परो सिया' अर्थात् आप ही अपना स्वामी है, दूसरा कौन स्वामी हो सकता है?
अस्तित्वादी दर्शन यह मानता है कि मनुष्य का स्रष्टा ईश्वर नहीं है और इसीलिए मानवस्वभाव, उसका विकास, उसका भविष्य भी निश्चित एवं पूर्व मीमांसित नहीं है। मनुष्य वह है जो अपने आपको बनाता है। जैनदर्शन में भी आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ॥ आत्मा ही दुःख एवं सुख का कर्ता या विकर्ता है। सुमार्ग पर चलने वाला आत्मा मित्र एवं कुमार्ग पर चलने वाला शत्रु होता है।
मानव को महत्त्व देते हुए भी सार्च सामाजिक दर्शन के धरातल पर अत्यंत अव्यवहारिक है, क्योंकि वह मानता है कि चेतनाओं के पारस्परिक सम्बंधों की आधारभूमि सामंजस्य नहीं, विरोध है तथा अन्य व्यक्तियों के अस्तित्व वृत्त हमारे अस्तित्व वृत्तों की परिधियों के मध्य आकर संघर्ष, भय, घृणा आदि भावों के उद्भावक एवं प्रेरक बनते हैं । सार्च इसी कारण वास्तविक संसार को असंगत, अव्यवस्थित, अवधारित और अज्ञेय मानता है। यही कारण है कि अपने को अपना स्वामी मानते हुए जहां गौतम बुद्ध स्वयं संयम के पथ से प्राणी को दुर्लभ स्वामी की प्राप्ति का निर्देश देते हैं वहां सात्र व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य संघर्ष एवं अविश्वास की भूमिका बनाता है।
___यदि हमें मानव के अस्तित्व को बनाए रखना है तो हमें मानवीय मूल्यों की स्थापना करनी होगी, सामाजिक सौहार्द एवं बंधुत्व का वातावरण निर्मित करना होगा, दूसरों को समझने और पूर्वाग्रहों से रहित मन:स्थिति में अपने को समझाने के लिए तत्पर होना होगा, भाग्यवाद के स्थान पर कर्मवाद की प्रतिष्ठा करनी होगी, उन्मुक्त दृष्टि से जीवनोपयोगी दृष्टि का निर्माण करना होगा। आज वही धर्म और दर्शन हमारी समस्याओं का समाधान कर सकता है जो उन्मुक्त दृष्टि से विचार करने की प्रेरणा दे सके। शास्त्रों में यह बात कही गयी है-केवल इसी कारण आज का मानस एवं विशेष रूप से बौद्धिक समुदाय एवं युवक उसे मानने के लिए तैयार नहीं है । दर्शन में ऐसे व्यापक तत्त्व होने चाहिए जो तार्किक एवं बौद्धिक व्यक्ति को संतुष्ट कर सकें । आज का मानव केवल श्रद्धा, संतोष और अंधी आस्तिकता के सहारे किसी बात को मानने के लिए तैयार नहीं होगा।
आज के भौतिकवादी युग में केवल वैराग्य से काम चलने वाला नहीं है। आज हमें मानव के भौतिकवादी दृष्टिकोण को सीमित करना होगा। भौतिक स्वार्थपरक इच्छाओं को संयमित करना होगा। मन की कामनाओं में परमार्थ का रंग मिलाना होगा। आज यौवन और ज्ञान, भौतिकता और आध्यात्मिकता के समत्व की आवश्यकता है। इसके लिए धर्म एवं दर्शन की वर्तमान सामाजिक संदर्भो के अनुरूप एवं भावी मानवीय चेतना के निर्यामक रूप में व्याख्या करनी है। इस संदर्भ में आध्यात्मिक साधना के ऋषियों एवं मुनियों की धार्मिक साधना एवं गृहस्थ सामाजिक व्यक्तियों की धार्मिक साधना के अलग-अलग स्तरों को परिभाषित करना आवश्यक है।
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धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो कि वैज्ञानिक हो । वैज्ञानिकों की प्रतिपत्तियों को खोजने का मार्ग एवं धार्मिक मनीषियों एवं दार्शनिक तत्त्वचिन्तकों की खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध नहीं होना चाहिए ।
आज ऐसे धर्म एवं दर्शन की आवश्यकता है जो समाज के सदस्यों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एवं बंधुत्व का वातावरण निर्मित कर सके। यदि यह न हो सका तो किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन पद्धति से समाज में शांति स्थापित नहीं हो पायेगी ।
इस दृष्टि से यह विचार करना है कि भगवान् महावीर ने 26 सौ वर्ष पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन पर आधारित अपरिग्रहवाद एवं अहिंसावाद से युक्त जिस ज्योति को जगाया था, उसका आलोक आज के अंधकार को दूर कर सकता है या नहीं ? आधुनिक वैज्ञानिक एवं बौद्धिक युग में वही धर्म एवं दर्शन व्यापक हो सकता है जो मानव मात्र को स्वतंत्रता एवं समता की आधारभूमि प्रदान कर सकेगा। इस दृष्टि से मैं यह कहना चाहूंगा कि भारत में विचार एवं दर्शन
धरातल पर जितनी व्यापकता, सर्वांगीणता एवं मानवीयता की भावना रही है, समाज के धरातल पर वही नहीं है। दार्शनिक दृष्टि से यहां यह माना गया है कि जगत् में जो कुछ स्थावरजंगम संसार है वह सब एक ही ईश्वर में व्याप्त है - उ ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्'
पंडित एवं विद्वान् की कसौटी यह मानी गयी है कि उसे संसार के सभी प्राणियों को अपने समान मानना चाहिए-" आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः " |
भक्ति का मूल भी यही है-आराध्य की सेवा, शरणागति एवं आराधना | भक्ति में भक्त भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना चाहता है, बिना उसके अनुग्रह के कल्याण नहीं हो सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी कारण लिखा कि वही जान सकता है जिसे वे अपनी कृपा द्वाराज्ञान देते हैं-" सो जानई जेहि देहु जनाई "" । भक्ति सिद्धान्त में भी साधक अपनी साधना के बल पर मुक्ति का अधिकार प्राप्त नहीं कर पाता, इसलिए उसे भगवत्कृपा होनी जरूरी है।
जैन दर्शन समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है। सामाजिक समता एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्त्व है। इस परम्परा में मानव को मानव के रूप में देखा गया है, वर्णों, वादों, सम्प्रदायों आदि का लेबल लगाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं। मानव महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैनदर्शन में हुआ है वह अनुपम है । भगवान् महावीर ने जातिगत श्रेष्ठता को कभी आधार नहीं बनाया ।
वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेणां, कसुचीरेण न तावसो ।'
अर्थात् केवल सर मुंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जाप करने मात्र से कोई ब्रह्म नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा, अपने असद् गुणों और दूसरों के
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सद्गुणों को ढांकना तथा स्वयं के अस्तित्वहीन सद्गुणों को प्रकट करना नीच गोत्र की स्थिति के कारण बनते हैं
"परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसदगुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य'"
इस प्रकार जैन दर्शन में यह मार्ग बतलाया गया है जिसमें व्यक्ति अपने बल पर उच्चतम विकास कर सकता है, प्रत्येक आत्मा अपने बल पर परमात्मा बन सकती है।
उपनिषदों में जिस तत्वमसि' सिद्धान्त का उल्लेख हुआ है उसी का जैनदर्शन में नवीन आविष्कार एवं विकास है एवं प्राणी मात्र की पूर्ण स्वतंत्रता, समता एवं स्वावलम्बित स्थिति का दिग्दर्शन कराया गया है।
जैन दर्शन अनेकान्तवादी दृष्टि पर आधारित होने के कारण किसी विशेष आग्रह से अपने को युक्त नहीं करता। सत्यानुसंधान एवं सहिष्णुता की पहली शर्त अनेकान्तवादी दृष्टि है। पक्षपात रहित व्यक्ति की बुद्धि विवेक का अनुगमन करती है। आग्रही पुरुष तो अपनी प्रत्येक युक्ति को वहां ले जाता है, जहां उसकी बुद्धि सन्निविष्ट रहती है
आग्रही वत निनीषति यक्तिं तत्र यत्र पतिरस्य निविष्टा ।
पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र पतिरेति निवेशम्॥ आज के युग में वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन एवं आध्यात्मिक दर्शन के सम्मिलन की अत्यधिक आवश्यकता है। इस दृष्टि से दर्शन के अद्वैत एवं विज्ञान के सापेक्षवाद की सम्मिलन भूमि जैन दर्शन का अनेकान्त हो सकती है।
भगवान् महावीर ने जिस जीवन दर्शन को प्रतिपादित किया है वह आज के मानव की मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार की समस्याओं का अहिंसात्मक पद्धति से समाधान प्रस्तुत करता है। यह दर्शन आज के प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था एवं वैज्ञानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनुरूप है । इस सम्बन्ध में सर्वपल्ली राधाकृष्णन का यह वाक्य कि "जैनदर्शन सर्वसाधारण को पुरोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान करता है" अत्यन्त संगत एवं सार्थक
है।
'अहिंसा परमो धर्मः' चिन्तन को केन्द्र मानने पर ही संसार से युद्ध एवं हिंसा का वातावरण समाप्त हो सकता है। आदमी के भीतर की अशांति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को दूर करना है तथा अन्ततः मानव के अस्तित्व को बनाये रखना है तो भगवान् महावीर की वाणी को वर्तमान युगीन समस्याओं एवं परिस्थिति के सन्दर्भ में व्याख्या करनी होगी। यह ऐसी वाणी है जो मानव मात्र के लिए समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करती है। सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था का चिन्तन प्रस्तुत करती है। पूर्वाग्रह हित उन्मुक्त दृष्टि से दूसरों को समझने एवं अपने को समझाने के लिए अनेकान्तवादी जीवनदृष्टि प्रदान करती है। समाज के प्रत्येक सदस्य का समान अधिकार एवं स्वप्रयत्न से विकास करने के समान साधन जुटाती है।
महावीर के दर्शन क्रियान्वयन से परस्पर सहयोग, सापेक्षता, समता एवं स्वतंत्रता के आधार पर समाज संरचना सम्भव हो सकेगी, समाज के जिन वर्गों, वादों, वर्णों, जातियों एवं
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उपजातियों में साग्रह बांट दिया गया था, वे भेद के बन्धन टूट सकेंगे। भारत में आज भी साम्प्रदायिक उन्माद हो रहे हैं। धर्म के नाम पर ही इस देश का विभाजन हुआ और आज भी विभाजन की मांग प्रतिदिन उठती रहती है । कहना न होगा कि साम्प्रदायिक संकीर्णता वैचारिक असहिष्णुता को उभारती है। इस संदर्भ में भगवान् महावीर के अनेकान्तवाद का सिद्धान्त आधुनिक समाजवादी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के निकटवर्ती होने के साथ ही वैयक्तिक तथा सामाजिक एवं राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विचारों को स्वस्थ बनाने में अधिक प्रभावकारी है। वस्तुतः आज भी महावीर के सिद्धान्त भावी विनाश से हमारी रक्षा कर सकता है, इसलिए इसकी प्रासंगिकता निर्विवाद है।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची 1. तत्त्वार्थ सूत्र 5/21 2. उत्तराध्ययन सूत्र 20 : 37 3. ईशावास्योपनिषद्-1 4. गीता 5. रामचरित् मानस 6. उत्तराध्ययन 25 : 29 7. तत्त्वार्थसूत्र 6/25 8. समराइच्चकहा
शोध छात्र जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर-313001 (राजस्थान)
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गांधी - चिन्तन में अहिंसा एवं उसकी प्रासंगिकता
( जेहादी हिंसा के सन्दर्भ में)
- राजेन्द्रसिंह गुर्जर
गांधी चिंतन का केन्द्रीय तत्त्व सत्य व अहिंसा है। सत्य का अर्थ है - जिसकी सत्ता है, जो शाश्वत है। सत्य को एक निरपेक्ष सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया। उन्होंने सत्य की महत्ता को स्वीकारते हुए 'ईश्वर सत्य है' के स्थान पर 'सत्य ही ईश्वर है' कहना अधिक उपयुक्त समझा। गांधीजी के अनुसार निरपेक्ष सत्य सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान और शाश्वत है। अहिंसा का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया कि अहिंसा हिंसा न करना ही नहीं है बल्कि मनसा, वाचा व कर्मणा से अन्य किसी भी जीव को हानि या ठेस न पहुंचाना है । व्यक्ति सभी जीवों के प्रति सदैव दयालुता पूर्ण व्यवहार करे तथा अन्य के प्रति प्रेम, स्नेह एवं सद्भावपूर्ण व्यवहार करे।
समग्र रूप में देखा जाये तो गांधीजी की विचारधारा, उनका चिन्तन सत्य तथा अहिंसा पर टिका हुआ था । उनकी विचारधारा सत्य और लोककल्याण की ओर जाने वाली थी । अत्याचार के विरुद्ध अहिंसा तथा सत्य को ही प्रभावशाली एवं अमोघ शस्त्र उन्होंने स्वीकार किया ।
गांधीजी के अनुसार अहिंसा वह साधन है, जिसके द्वारा सत्य की साधना की जा सकती है। गांधीजी ने स्पष्ट किया कि सत्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा अनिवार्य साधन है। अत: अहिंसा स्वयं में साध्य नहीं होते हुए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसके बिना सत्य की साधना ही असंभव है। अहिंसा गांधीजी का आविष्कार नहीं है। बल्कि अहिंसा का आदर्श भारतीय उपनिषदों, बुद्ध तथा महावीर स्वामी के दर्शन में शताब्दियों पहले प्रतिपादित किया गया था । अहिंसा के सम्बन्ध में गांधीजी का योगदान रहा है कि उन्होंने नवीन संदर्भ में अहिंसा के सिद्धान्त को परिमार्जित किया और मानवीय आचार की एक जीवन्त नियम के रूप में पूर्ण व्याख्या की।
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स्थूल और परम्परागत अर्थ में अहिंसा एक नकारात्मक शब्द है जिसका अर्थ है हिंसा न करना अथवा हिंसा का अभाव। किन्तु गांधीजी अहिंसा के नकारात्मक अर्थ को अपूर्ण मानते थे। उन्होंने अहिंसा के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पक्षों पर बल दिया और स्पष्ट किया कि अहिंसा का मर्म किसी को क्षति न पहुंचाने की स्थूल व भौतिक क्रिया की अपेक्षा इस क्रिया के पीछे विद्यमान मन्तव्य में निहित है। इस प्रकार नकारात्मक या निषेधात्मक विचार के रूप में अहिंसा का अर्थ है-किसी भी प्राणी को विचार, शब्दों या कार्यों से हानि न पहुंचाना। किन्तु यह नकारात्मक अर्थ तभी पूर्ण होता है जबकि इसके मूल में इस नियम की सकारात्मक प्रेरणा प्राणी मात्र के प्रति निरपवाद प्रेम आवश्यक रूप से विद्यमान हो।
गांधीजी के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के प्रति जागृत प्रेम या करुणा अहिंसा का सटीक मापदण्ड है । उन्होंने उदाहरण दिया-यदि मैं किसी ऐसे व्यक्ति पर, जो मुझ पर आक्रमण करने आये, बदले में प्रहार न करूं तो मेरा यह कृत्य अहिंसक हो भी सकता है और नहीं भी। यदि मैं भय के कारण उस पर प्रहार न करूं तो यह निश्चित रूप से अहिंसा नहीं है। किन्तु यदि मैं पूर्णतया सचेतन होकर प्रहार करने वाले के प्रति करुणा और प्रेम के कारण उस पर हमला नहीं करता हूं तो यह निश्चित रूप से अहिंसा है।
गांधीजी के अनुसार अहिंसा का सार शाश्वत प्रेम में समाविष्ट है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अपने मित्रों और सम्बंधियों से प्रेम करना सहज भाव है। सच्चा अहिंसक दृष्टिकोण वह है जो व्यक्ति को अपने विरोधियों और शत्रुओं से भी प्रेम करने के लिए प्रेरित करे। उन्होंने कहा, अहिंसा उस व्यक्ति के प्रति प्रेम, संवेदना और सेवा के भाव में निहित है जिससे घृणा करने के लिए कारण उपस्थित हो। ऐसे व्यक्ति के प्रति प्रेम करने में अहिंसा निहित नहीं हैं, जो हमें प्रेम करता है, अपितु यह तो स्वाभाविक नियम है। गांधीजी के अनुसार सच्ची अहिंसा वह है जो निःस्वार्थ और निरपेक्ष हो।
गांधीजी की मान्यता रही कि अहिंसा का विचार कोई जड़ सिद्धान्त नहीं है अपितु एक गुणात्मक और नैतिक आस्था है। अत: विशिष्ट परिस्थितियों में अहिंसा का नियम किसी को न मारने के स्थूल विचार की अपेक्षा, दूसरों के प्रति नि:स्वार्थ प्रेम और उन्हें पीड़ा व कष्ट से मुक्त करने की निर्मल प्रेरणा से निर्दिष्ट होता है। उन्होंने ऐसी परिस्थिति को स्वीकार किया जबकि किसी दूसरे प्राणी के शरीर को नष्ट कर देने अथवा उसके प्राण ले लेने को भी हिंसा न माना जाये। जब कुछ लोगों ने गांधीजी के इस निर्णय के अहिंसक होने में संदेह किया तो गांधीजी ने स्पष्ट किया कि किसी कृत्य को अहिंसक ठहराने के लिए दो शर्ते पूर्ण होनी आवश्यक हैं
1. ऐसे कृत्य के पीछे पवित्र उद्देश्य ही नहीं, सम्बंधित प्राणी का हित निहित होना चाहिए।
2. यह भली-भांति सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए कि उस प्राणी को भौतिक क्षति पहुंचाना उसके हित की पूर्ति के लिए एकमात्र संभव उपाय है तथा स्वयं उसके हित की पूर्ति उसे भौतिक रूप से क्षति पहुंचाने के अलावा अन्य किसी रीति से की ही नहीं जा सकती।
गांधीजी के लिए अहिंसा आस्था व निष्ठा का विषय है, कोई व्यावहारिक नीति नहीं है। नीति व्यक्ति के स्वार्थपरक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परिवर्तित की जा सकती है, किन्तु एक तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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नैतिक आस्था के रूप में अहिंसा के प्रति समर्पित व्यक्ति की अहिंसा के प्रति आस्था कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अडिग रहती हैं। गांधी के अनुसार अहिंसा मानव के गरिमामय अस्तित्व का शाश्वत नियम हैं किन्तु उसकी असीम शक्ति तभी सक्रिय हो सकती है जबकि उसे अपनाने वाले व्यक्ति का मन, मस्तिष्क और आचरण अहिंसा के प्रति आस्था से पूरी तरह ओत-प्रोत हो। अहिंसा कायरता नहीं
गांधीजी की अहिंसा में कायरता के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होनें स्पष्ट किया कि अहिंसा एक ऐसा अस्त्र है जिसका प्रयोग केवल बहादुरों द्वारा किया जा सकता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि भय और अहिंसा एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत प्रकृतियां हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक व्यक्ति पूरी तरह निर्भीक नहीं होगा, वह सर्वोच्च मानवीय सद्गुणों के रूप में अहिंसा की प्रभावकारी शक्ति का आत्मसात ही नहीं कर सकेगा।
गांधीजी ने कहा कि अहिंसा सर्वोच्च सद्गुण हैं, कायरता निकृष्टतम दुर्गुण । अहिंसा में कष्ट सहने की तत्परता, कायरता में कष्ट पहुंचाने की प्रवृत्ति, पूर्ण अहिंसा सर्वोच्च शौर्य है। अहिंसक कृत्य कभी नैतिक विवाद उत्पन्न नहीं कर सकता जबकि कायरतापूर्वक कृत्य सदैव नैतिक पतन का कारण होगा।
___ गांधीजी का दृढ़ मत था कि अहिंसा का अभ्यास कायरों द्वारा किया जाना संभव ही नहीं है। किसी अन्याय का हिसंक साधनों के प्रतिकार करने वाले व्यक्ति की तुलना में अहिंसा के अनुयायी की अनिवार्य रूप से अधिक साहस और शौर्य की आवश्यकता होगी। उनका मत था कि व्यक्ति जो युद्ध के लिए तलवार लिए हुए है, निश्चित रूप से बहादुर है किन्तु वह व्यक्ति को अपनी कनिष्ठिका को उठाये बिना भी और बिना किसी भय के मृत्यु का सामना करने के लिए तैयार हैं, निश्चित रूप से अधिक बहादुर हैं । जब तक कोई व्यक्ति अपने हाथ में तलवार रखना चाहता है, यह स्पष्ट है कि उसने पूर्ण निर्भयता की स्थिति प्राप्त नहीं की हैं। दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति को कोई भय प्रभावित ही नहीं कर सकता जिसने स्वयं को अहिंसा की तलवार से सुसज्जित कर लिया है।
गांधीजी का मत है कि अहिंसा के साधक के सामने एक ही भय होता है और वह है ईश्वर का भय। अहिंसक व्यक्ति को नश्वर शरीर की तुलना में आत्मा की शाश्वतता में विश्वास होता है। आत्मा की शाश्वतता हो जाने मात्र से वह अपने नश्वर शरीर का मोह छोड़ देता है और वह इस सत्य को जान लेता है कि हिंसा के द्वारा बाह्य नश्वर और स्थूल चीजों की ही सुरक्षा की जा सकती हैं जबकि अहिंसा के द्वारा आत्मा और आत्मसम्मान की रक्षा की जा सकती है।
गांधीजी ने स्वीकार किया कि समस्त व्यक्ति अहिंसा के पालन में समान रूप से सक्षम नहीं हो सकते, क्योंकि अहिंसा के लिए आवश्यक निर्भीकता और आत्मबल को सब व्यक्तियों में उत्पन्न नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार किसी व्यक्ति के अहिंसक आचरण की प्रकृति उसके पास उपलब्ध आत्मबल और निर्भीकता की मात्रा के अनुपात में निश्चित होती है। अतः इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अहिंसा की तीन श्रेणियों को स्वीकार किया है
1. जागृत अहिंसा, 2. औचित्यपूर्ण अहिंसा, 3. भीरूओं की अहिंसा 60 -
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जागृत अहिंसा वह है जो व्यक्ति में अन्तरात्मा की पुकार पर स्वाभाविक रूप से जन्म लेती है। इसे व्यक्ति अपने आन्तरिक विचारों की उत्कृष्टता अथवा नैतिकता के कारण स्वीकार करता है। इस प्रकार की अहिंसा में असंभव को भी सम्भव में बदल देने की अपार शक्ति निहित होती है। औचित्यपूर्ण अहिंसा वह है जो जीवन के किसी क्षेत्र विशेष आवश्यकता पड़ने पर औचित्यानुसार एक नीति के रूप में अपनाई जाए । यद्यपि यह अहिंसा दुर्बल व्यक्ति की है पर यदि इसका पालन ईमानदारी और दृढ़ता से किया जाए तो यह काफी शक्तिशाली और लाभदायक सिद्ध हो सकती है। भीरूओं की अहिंसा डरपोक और कायरों की अहिंसा है, निष्क्रिय अहिंसा है। अत: कायरता
और अहिंसा पानी तथा आग की भांति एक साथ नहीं रह सकते। गांधी-अहिंसा की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिह्न, जेहादी हिंसा
वर्तमान में विश्व के समक्ष आतंकवाद की समस्या मुंह फाड़े खड़ी हुई है। आतंकवाद क्या है ? इसकी आज तक सर्वसम्मत् परिभषा नहीं दी गई है। कोई इसको एक प्रवृत्ति मानता है, तो कोई अपनी बात, अपने मत, अपने विचार को दूसरों से हिंसा के द्वारा मनवाने को आतंकवाद कहता है । अत: आतंकवाद आतंकवादी की वह प्रवृत्ति है, जिससे वह अपनी मांगें मनवाने के लिए चरम हिंसा का प्रयोग करके व्यक्ति विशेष, समाज या किसी सरकार पर दबाव डाले अर्थात् आतंकवाद का आशय अपनी मांगें मनवाने के लिए बल प्रयोग से है। परन्तु सामज ने इसमें कुछ अपवाद भी माने हैं-1. सुरक्षा हेतु की गई हिंसा। 2. शांति के नाम पर की गई हिंसा। 3. एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र से युद्ध इत्यादि। आतंकवाद और युद्ध विरोधी लोग आतंकवाद को सामाजिक कलंक या पाप आरोपित कहते हैं।
गांधीजी ने संकीर्ण अर्थ को स्वीकार नहीं किया बल्कि उनकी दृष्टि में धर्म शाश्वत और सार्वभौम नैतिक नियमों का संग्रह है। उन्होंने कहा, मेरे मत में धर्म का अर्थ है नैतिकता। मैं ऐसे किसी धर्म को नहीं मानता जो नैतिकता का विरोध करता हो या नैतिकता के परे कोई उपदेश देता हो। धर्म तो वास्तव में नैतिकता को व्यवहार में घटित करने की पराकाष्ठा है। अत: नैतिकता धर्म का केन्द्र बिन्दु है । गांधीजी किसी धर्म विशेष को महत्त्व न देकर सभी धर्मों को समान महत्त्व देते थे। उन्होंने कहा कि विभिन्न धर्म तो एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के विभिन्न मार्ग हैं। जब हमारा लक्ष्य एक ही है तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम उसकी प्राप्ति के लिए अलगअलग रास्तों पर चल रहे हैं । अत: गांधीजी सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखते थे।
वर्तमान के इस आतंकवादी युग में धर्म की व्याख्या उसके अनुयायी लोग अपनी सुविधा के अनुसार कर रहे हैं । विश्व के इस्लाम देशों में विभिन्न प्रकार के जेहादी नारे दिये जा रहे हैं। इनका मानना है कि इस्लाम खतरे में है, इसलिए जेहाद करो अर्थात् इस्लाम को बचाने के लिए काफिरों को मारो और अल्लाह के पास स्वर्ग में स्थान सुरक्षित करो। इनका यह भी मानना है कि अन्य धर्मों के कारण हमारा इस्लाम संकट में है, इसलिए इसको हिंसा करके बचाओ। गांधीजी राजनीति के आध्यात्मीकरण की बात करते थे जबकि वर्तमान में धर्म का राजनीतिकरण हो गया है। इजराइल जो कि ईसाई, यहूदी एवं इस्लाम धर्म की जन्मस्थली रहा है, वहां पर भी एक धर्म की दूसरे से टकराहट पैदा हो गई है और उसमें हिंसा का प्रवेश हो चुका है। इसमें दोष धर्म का नहीं बल्कि मानव विचारों का है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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ऐसे में गांधी-अहिंसा की प्रासंगिकता पर प्रश्र चिह्न लग जाता है कि जब धर्म का ही इस्तेमाल हिंसात्मक तरीके से होने लग जाये तो अहिंसा का पाठ किसे पढ़ाया जाये? आतंकवाद के दो रूप मुख्यत: देखने को मिलते हैं-1. जेहादी आतंकवाद, 2. आत्मघाती आतंकवाद । पहले में धर्म का इस्तेमाल जेहाद के नाम किया जा रहा है, तो दूसरे आतंकवाद में आतंकवादी स्वयं अपने प्राणों की चिन्ता किये बिना आतंकी हिंसा फैला रहे हैं। जब व्यक्ति स्वयं मरने एवं मारने पर ही उतारू हो जाए तो ऐसी स्थिति में अहिंसा का पाठ किसे पढ़ाया जाये?
भारत, चेचन्या, फीलीपीन्स एवं कोसावों में जेहाद के नाम पर प्रतिदिन हिंसात्मक गतिविधियां जारी हैं। गांधीजी हृदयपरिवर्तन की बात करते हैं किन्तु जब व्यक्ति बिना किसी भय, बिना किसी चिन्ता के हिंसा करने पर उतारू है तो ऐसी स्थिति में उसका हृदयपरिवर्तन करना बड़ा मुश्किल कार्य है।
आज मानव का आत्म-चिन्तन करना अनिवार्य है। नैतिक मूल्यों को केन्द्रीय तत्त्व मानते हुए जेहादी युवकों की मूल समस्याओं की पहचान करनी होगी। इसके लिए राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों, सामाजिक संस्थानों को आगे आना होगा, क्योंकि इस समय सम्पूर्ण मानव जाति संकट में है। आतंकी युवकों की मूलभूत समस्याओं का न्यायोचित समाधान करके ही उनको अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा सकता है। जिससे व्यक्ति को व्यक्ति से एवं राष्ट्र को राष्ट्र से जोड़ा जा सकता है और विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है।
संदर्भ सूची 1. हरिजन, 07-09-1935 2. नवजीवन, 31 मार्च, 1929 3. प्रभा बेन का लिखा पत्र, 5 फरवरी, 1932 4. कलैक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खण्ड 50, पृ. 207 5. वही, खण्ड 50, पृ. 212 6. वही, खण्ड 50, पृ. 212 7. हरिजन, 19 दिसम्बर, 1936 8. यंग इण्डिया, 31 अक्टूबर, 1929 9. यंग इण्डिया, 3 जनवरी, 1929 10. कलैक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, खण्ड 44, पृ. 187 11. हरिजन, 1 त्तिम्बर, 1940 12. गोपीनाथ धवन, सर्वोदय-दर्शन पृ. 11 13. गांधी मार्ग, मई-जून 1989, पृ. 11 14. नवजीवन, 21 जुलाई 1929 15. हरिजन, 30 अप्रैल 1938
राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर (राजस्थान)
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नेतृत्व में अनेकान्त का प्रयोग
- समणी डॉ. कुसुम प्रज्ञा
भगवान महावीर अनन्तचक्षु थे। अनन्तचक्षु होने के कारण वे अनेकान्त के प्रबल उद्गाता और प्रयोक्ता हुए। उन्होंने हर प्रश्न का उत्तर विभज्यवादी शैली में दिया। 'विभज्जवायं च विपागरेजा' महावीर का यह उद्घोष वाणी के सापेक्ष प्रयोग का स्पष्ट निदर्शन है। भगवतीसूत्र में ३६ हजार प्रश्नोत्तरों का संकलन किया गया। आज उसमें जितने प्रश्नोत्तर या वर्णन प्राप्त हैं वह लगभग विभज्यवादी शैली में उपलब्ध हैं ।।
विक्रम की तीसरी शताब्दी से नौवीं शताब्दी तक अनेकान्त की दार्शनिक व्याख्या बहुत हुई लेकिन उसे जीवन व्यवहार में जोड़ने का प्रयत्न नहीं हुआ। यह एक अनुसंधान का विषय है कि अनेकान्त के सूत्र जीवनगत और व्यवस्थागत किए जा सकते हैं, यह जानते हुए भी प्राज्ञ आचार्यों ने इस दिशा में विशेष प्रयत्न क्यों नहीं किया?
गणाधिपति तुलसी कहते थे कि जो दर्शन जन-जीवन की समस्याओं को नहीं सुलझा सकता, वह दीर्घकाल तक अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता तथा जो नया बोध नहीं दे सकता, वह अतीत में चाहे कितना ही बड़ा क्यों न रहा हो, उसकी मूल्य स्थापना नहीं हो सकती। अत: आज अपेक्षा है कि अनेकान्त को आज के संदर्भ में प्रस्तुत करके उसे जीवन में साथ जोड़ा जाए।
जहां समाज होता है, वहां नेतृत्व होता है। नेतृत्व के अभाव में समाज एवं संगठन विशृंखलित हो जाता है। उसके विकास की सारी संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। आज पाश्चात्य देशों में एक विचार पनप रहा है कि एक नेतृत्व की बात व्यर्थ है, सबका स्वतंत्र अस्तित्व है, सब संकल्प करने में स्वतंत्र हैं, अत: किसी के अधीन क्यों रहें? इस प्रश्न का समाधान महावीर अनेकान्त की भाषा में देते हैं। उन्होंने कहा-निश्चयनय से आत्मानुशासन ही अनुशासन का सर्वोत्कृष्ट रूप है-'पुरिसा अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं त्ति मनसि (५-१०१) वरं मे अप्पा दंतो संजमेण
तवेण य'-ये सूक्त आत्मानुशासन का आदर्श प्रस्तुत करने वाले हैं। पर यह वैयक्तिक तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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दृष्टि या निश्चयनय से सत्य है। जहां सामाजिक जीवन जीना है वहां महावीर अनुशासन के सूत्रों का स्थान-स्थान पर उल्लेख करते हैं। आणानिद्देसकरे, आणाए मामगं धम्मं जं मे बुद्धाणुसासंति, आदि सुभाषित अनुशासन की महत्ता प्रस्थापित करते हैं।
__ ये दोनों बातें सापेक्ष सत्य हैं कि आत्मानुशासन जगाने के लिए पहला सूत्र सही है किन्तु जब तक वह नहीं जगे तब तक व्यवहार चलाने के लिए दूसरों पर अनुशासन करना और दूसरों के अनुशासन में रहना दोनों सत्य हैं। इसी सत्य को महावीर आचारांग में सापेक्ष भाषा में प्रस्तुत करते हैं-'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के' अर्थात् कुशल व्यक्ति आंतरिक अनुशासन से मुक्त नहीं होता और बाह्य अनुशासन से बद्ध नहीं होता । गुरुदेव तुलसी इसी तथ्य को अनेकान्त की भाषा में कहते हैं-अनुशासन की सतह पर तैरने वाला बंधता है और उसकी तहों तक पहुंचने वाला मुक्त हो जाता है।
वस्तु सत्य यह है कि हर व्यक्ति अनुशास्ता और अनुशासित दोनों भूमिका का निर्वाह करता हुआ चलता है । भाष्य साहित्य में यही सत्य उद्गीत हुआ है-'सीसस्स हुंति सीसा, नत्थि सीसा असीसस्स' अर्थात् जो स्वयं अनुशासन में रहना नहीं जानता, वह अच्छा अनुशास्ता नहीं हो सकता। यह सापेक्ष सत्य है कि जो अच्छा शिष्य नहीं, वह अच्छा गुरु नहीं हो सकता। गणाधिपति तुलसी ने इसी का संवादी एक घोष दिया-'निज पर शासन, फिर अनुशासन'। वस्तुतः अनुशासन तभी सफल होता है जब वह स्वयं से प्रारम्भ किया जाए।
अनेकान्त वस्तु की अनंत पर्यायों को स्वीकार करता है। अनुशास्ता की दृष्टि यदि अनेकान्तस्पर्शी नहीं होगी तो वह अनुयायी में सोयी अनंत संभावनाओं को नहीं देख सकता। मंदबुद्धि और सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी भविष्य में महान् दार्शनिक बन जाता है। इसके स्वयंभू प्रमाण हैं आचार्य महाप्रज्ञ । वे स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि बचपन में मैं इतना मंदबुद्धि था कि एक पद्य कंठस्थ करने में अनेक दिन लग जाते । यदि आचार्य तुलसी उस समय उन संभावनाओं को अस्वीकार कर उपेक्षित कर देते तो आज मेरा यह रूप संभव नहीं होता, अतः अनेकान्त यह दृष्टि प्रदान करता है कि केवल वर्तमान पर्याय के आधार पर किसी के बारे में कोई निर्णय मत लो। भविष्य में अन्य पर्यायों का आविर्भाव भी हो सकता है। यदि नेता अनंत पर्यायों के आधार पर संभावनाओं को स्वीकार करता है तो उसके लिए किसी का व्यक्तित्व-निर्माण असंभव नहीं होगा और न ही उसका धैर्य विचलित होगा।
___ अनेकान्त उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-तीनों तत्त्वों को एक साथ स्वीकार करता है। यदि नेता की दृष्टि अनेकान्तस्पर्शी नहीं होगी तो वह समय के अनुसार अपने को बदल नहीं सकेगा। वह केवल परम्परा का ही निर्वाह करता रहेगा। अनेकान्त कहता है कि वही परिवर्तन मान्य होना चाहिए जिसमें मौलिकता सुरक्षित रहे। अनेकान्त परम्परा का विरोध नहीं करता पर अवांछित परम्परा का भार न ढोया जाए, यह विवेक अवश्य देता है।
सफल नेतृत्व के लिए जो गुण आवश्यक हैं वे सभी अनेकान्त से उद्भूत हैं। अनेकान्त के घटक तत्त्व हैं-समता, सह-अस्तित्व, आत्मौपम्य, सापेक्षता, सहिष्णुता, सामंजस्य, समन्वय,
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उदारता । एक सफल अनुशास्ता इन सूत्रों को अपना कर ही अनुशासन को जीवन्त और हृदयग्राही बना सकता है। समता
आचार्य महाप्रज्ञजी के शब्दों में अनेकान्त तीसरा नेत्र है, वह तीसरा नेत्र समता है। समता अनुशासन का प्राण है, सफलता का सूत्र है। यदि अनुशास्ता में राग-द्वेष प्रबल होंगे तो अनुशासन निष्पक्ष नहीं हो सकता। द्वेष की प्रबलता से सबकुछ विपरीत ही प्रतीत होगा। छोटी गलती भी बड़ी नजर आएगी और राग की अधिकता होगी तो बड़ी गलती भी छोटी नजर आएगी। ऐसी स्थिति में दोषों का परिष्कार एवं प्रतिकार संभव नहीं हो सकता। आज के समाजशास्त्रियों ने तटस्थता को नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण माना है। समता रूपी यथार्थ आंख से नेता प्रशंसा में फूलता नहीं और निन्दा में कुम्हलाता नहीं। किसी भी विषम परिस्थिति में उसका संतुलन और धैर्य अक्षुण्ण बना रहता है। सह-अस्तित्व
समाज अनेक व्यक्तियों की इकाई का समाहार है। सबकी रुचियां, स्वभाव एवं संस्कार भिन्न-भिन्न होते हैं। ऐसी स्थिति में सबका सह-अस्तित्व समस्या बन सकता है। भेद में अभेद, अनेकता में एकता तथा विरोधी विचारों में सामंजस्य की क्षमता अनेकान्त द्वारा संभव है। नेतृत्व करने वाला यदि इस बात में विश्वास करता है कि विरोधी युगलों का पदार्थ में एक साथ रहना स्वभाव है, विभाव नहीं। अस्ति, नास्ति दोनों विरोधी धर्म होते हुए भी एक ही पदार्थ में पाए जाते हैं, ऐसी स्थिति में भिन्न-भिन्न विचार वाले व्यक्ति यदि एक साथ अविरोध के साथ रहे तो इसमें
आश्चर्य की बात नहीं है। अनेकान्त दृष्टि यह प्रशिक्षण देती है कि विरोध विचारों में है, अस्तित्व में नहीं। आवश्यकता इतनी ही है कि अपनी सीमा में रहें, सीमा का अतिक्रमण न करें। यदि नेता उपाय कौशल के गुण से युक्त हैं तो भिन्न-भिन्न रुचि वाले शिष्यों को अलग-अलग दिशा में विकास के लिए प्रेरित कर सकता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार किस व्यक्ति को कहां नियोजित करना है? यह अनेकान्त का व्यावहारिक प्रयोग है। इसके बिना नेता अपने समूह या संघ को गतिशील एवं तेजस्वी नहीं बना सकता। आत्मौपम्य
अनेकान्त स्वत्व का विस्तार करता है। वहां अपने-पराये का भेद नहीं होता। अतः अनेकान्त की व्यावहारिक फलश्रुति है-आत्मौपम्य भावना का विकास । आत्मौपम्य भाव का यह तात्पर्य नहीं कि सबको एक बना दिया जाए। इसका तात्पर्य है कि सबमें आत्मा के अस्तित्व की गहरी अनुभूति करना, सहानुभूति रखना तथा दूसरे की पीड़ा का संवेदन स्वयं करना, दूसरे के दुःख को स्वयं का दुःख मानना। नेता यदि स्वत्व का विस्तार करके स्वयं को समष्टि रूप नहीं बनाता तो वह समूह के साथ एकरूप या श्रद्धापात्र नहीं बन पाता। अनुशास्ता में आत्मौपम्यभावना विकसित होने पर संगठन एक कुटुम्ब बन जाता है। वहां अनेक बुराइयां स्वतः पलायन कर जाती हैं।
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सापेक्षता
__ अनेकान्त कहता है कि सभी एकांगी दर्शन अधूरे सच हैं । अधूरे सत्यों को मिलाने पर भी पूरा सत्य हाथ नहीं आएगा, क्योंकि अधूरे-अधूरे मिलकर भी पूरे नहीं हो सकते । सापेक्षता संकीर्णता एवं आग्रहमुक्ति का सूत्र है। प्रत्येक पदार्थ की अनेक पर्यायें हैं, अत: पदार्थ जैसा दीख रहा है वैसा ही नहीं है। वह और भी कुछ है। दृश्य जगत् में भौंरा काला है पर यथार्थ में उसमें पांचों वर्ण हैं । ये दोनों बातें सापेक्ष हैं।
सापेक्षता अनुशास्ता को यह विवेक प्रदान करती है कि कहां स्थिर रहना है, कहां आगे बढ़ना है और कहां पीछे हटना है । गति का क्रम है कि एक पैर आगे बढ़ता है, दूसरा पीछे रह जाता है। जब पीछे वाला आगे बढ़ता है तब आगे वाला पीछे जाता है । नेतृत्व की सफलता के लिए आवश्यक है कि नेता परिस्थिति के अनुसार कभी गौण को मुख्य बनाए और कभी मुख्य को गौण बनाए, क्योंकि व्यक्ति में गुण और दोष दोनों ही होते हैं। कभी समय देखकर गुण उजागर किया जाए तथा कभी अवगुण पर ताड़ना दी जाए, तभी संगठन में सक्रियता रहती है। नवनीत प्राप्ति का भी यही क्रम है
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण।
अन्तेन जायते जैनी, मन्थानमिव गोपी॥ अनुशासन का नवनीत तभी जनभोग्य हो सकता है जब एक को खींचा जाए और दूसरे को ढीला छोड़ा जाए। इस क्रम से न किसी के अतिरिक्त अहं को पोषण मिलता है और न किसी में हीनभावना पनपती है। इससे अनेक प्रतिभाएं तो उभरकर सामने आती हैं, साथ ही अकरणीय के प्रति सदैव भय भी बना रहता है।
सापेक्ष अनुशासन ही प्रभावी एवं कामयाबी हो सकता है। न अनुशासन इतना मृदु हो कि अनुशास्ता का अस्तित्व ही न रहे और न इतना कठोर हो कि उसमें व्यक्ति दूर चला जाए। वीणा की तार को उतना ही कसा जाए कि उससे संगीत फूट सके । राजा के नेतृत्व को भवभूति इसी भाषा में प्रस्तुत करते हैं
वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि। सापेक्ष चिंतन के बिना नेता सदैव अनुयायी को रंगीन चश्मे से देखेगा। वह अनुयायी के कथनभेद की अपेक्षा को नहीं समझ सकने के कारण विरोधी विचारों को नहीं खपा सकेगा। अनेकान्त दृष्टि नेता को यह मार्गदर्शन देती है कि एक विचार दूसरे से सापेक्ष होकर ही सत्य हो सकता है। निरपेक्ष होते ही असत्य हो जाता है।
व्यवहारभाष्य में सापेक्ष अनुशासन का एक मार्मिक उदाहरण मिलता है। एक ही गलती पर तीन व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न दण्ड की विविधता के पीछे राग-द्वेष नहीं अपितु सापेक्ष दृष्टि की प्रधानता थी। सापेक्षता यह विवेक जागृत करती है कि एक ही उपाय सब पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता। महावीर भी कहते हैं-'जेण सिया तेण नो सिया।'
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सहिष्णुता
अनेकान्त सामंजस्य एवं सहिष्णुता की क्षमता प्रदान करता है। गुरुदेव तुलसी के शब्दों में-झगड़ते हुओं में समझौता करना यही अनेकान्त है। अनुशासन की प्रक्रिया समान होने पर भी अनुशासित व्यक्ति की प्रतिक्रिया में अंतर देखा जाता है। एक व्यक्ति उस अनुशिष्टि को हितकर मानता है और दूसरी उसे अप्रीतिकर या अहितकर मानता है । उत्तराध्ययन सूत्र इसका संवादी है'हियं तं मन्नई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो' ऐसी स्थिति में यदि नेता अनेकान्त दृष्टि से भावित नहीं है तो तनाव से भर जाएगा। अनेकान्त नेता को यह विवेक प्रदान करता है कि एक ही क्रिया का परिणाम एक जैसा होना आवश्यक नहीं है । अतः दोनों परिस्थितियों को सत्य मानकर उनकी प्रतिक्रया को सहन करना चाहिए। समय पर सहन करने वाला नेता ही अपने अनुयायी को इस बात का बोध करा सकता है कि कटुक औषधि पीड़ित करने हेतु नहीं अपितु रोगमुक्त करने हेतु जाती है । उसी प्रकार समय पर किया गया कठोर अनुशासन परभव करने के लिए नहीं अपितु व्यक्तित्व विकास के लिए होता है ।
संतुलन
अनेकान्त विरोधी धर्मों में संतुलन स्थापित करता है। नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण हैसंतुलन। जैन आगम में अनुशासन के दो रूप मिलते हैं--सारणा, वारणा अर्थात् अनुग्रह और निग्रह । यद्यपि ये दोनों विरोधी युगल हैं पर संगठन की रीढ़ हैं। जिस संगठन में नेता उचित कार्य या विशिष्ट कार्य संपादित करने वाले को प्रोत्साहन नहीं देता वह संगठन गतिशील एवं सक्रिय नहीं होता । निष्क्रिय होकर समाप्त हो जाता है। जिस संगठन में अकरणीय कार्य के प्रति अंगुली नहीं उठती है, उसे दंडित नहीं किया जाता, वह संगठन हड्डियों का ढेर अथवा दोषों का घर बन जाता है। प्रोत्साहन देना मृदुता का बोधक है और दंड प्रायश्चित्त देना कठोरता का । इन दोनों की संतुलित व्याप्ति अनेकान्त द्वारा ही संभव है ।
विरोधी युगल है- श्रद्धा और तर्क । केवल श्रद्धा अंधी होती है और केवल तर्क पंगु । यदि अनुशास्ता अपने सदस्यों में दोनों का सामंजस्य नहीं कर पाता तो संगठन छिन्न-भिन्न हो जाता है। केवल श्रद्धा में समर्पण होना जड़ता होगी, चापलूसी पनपेगी। केवल तर्क में बौद्धिकता होगी पर हृदय नहीं होगा। दोनों का समन्वय अनेकान्त दृष्टि से ही साधा जा सकता है। नेता के प्रति विश्वास और समर्पण भी आवश्यक है पर कोरी अनुकरणप्रियता न रहे जिससे व्यक्ति की स्वतंत्रता सत्ता या बुद्धि कुंठित या प्रत्याहत हो जाए। भाव और बुद्धि का यह वैषम्य मिटाया नहीं जा सकता पर इसमें समन्वय साधा जा सकता है। सापेक्ष दृष्टि वाला अनुशास्ता श्रद्धाप्रवण व्यक्तियों की बुद्धि को तीक्ष्ण करता है तथा तर्कप्रवण व्यक्तियों को समर्पण की मूल्यवत्ता और यथार्थता का बोध कराता है। उत्तम तर्क वही होता है जो श्रद्धा के प्रकर्ष में फूटता है ।
सामंजस्य
सामंजस्य के बिना नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के संघर्ष को नहीं रोका जा सकता। पुरानी पीढ़ी का अनुभव एवं नयी पीढ़ी का कर्त्तव्य दोनों का पारस्परिक संयोजन समाज की प्रगति के
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लिए आवश्यक है। अनेकान्तद्रष्टा नेता अपने संगठन में दोनों का उचित संतुलन स्थापित कर दोनों की शक्ति का उपयोग कर लेता है।
हाथ में पांच अंगुलियों के समान संगठन में भी सभी व्यक्ति समान नहीं होते। संगठन में मंदगति, प्रखरमति एवं प्रज्ञासम्पन्न सभी प्रकार के व्यक्ति होते हैं । जो अनुशास्ता अनेकान्त को जीना जानता है वह सबकी क्षमता के अनुसार अलग-अलग तरीके से सबको समाहित करने का प्रयत्न करता है। उदारता
अनुशास्ता की सफलता का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-उदारता । अनेकान्त चिन्तन को उदार एवं व्यापक बनाता है । इस कारण नेता समय पर सही निर्णय लेने में सक्षम हो सकता है और दूसरों के विरोधी विचारों में भी सारतत्त्व ग्रहण कर सकता है। वह मानता है, मैंने जो सत्य पाया है वह बूंद के समान है। दूसरे की बात में भी सत्य का अंश हो सकता है। तेरापंथ के आद्य आचार्य श्री भिक्षु ने संविधान बनाने के बाद लिखा-मैंने अपनी बुद्धि से संविधान लिखा है। आगे किसी
आचार्य को परिवर्तन की अपेक्षा हो तो वह इसे बदल सकता है। यह उदारता अनेकान्त की ही परिणीत है।
अनेकान्त अनुशास्ता को यह विवेक देता है कि कहां कहा जाए और कहां मौन रखा जाए ? यदि अवक्तव्यता का गुण नेता में नहीं होगा तो उसकी वाणी से अनेक बार विग्रह या तनाव की स्थिति भी आ सकती है।
आज सर्वत्र सक्षम नेतृत्व की कमी आ रही है। आवश्यकता है नेतृगण अनेकान्त को सक्षम कर अपने जीवन के व्यवहारों में प्रयोग करें और वे देश और समाज को नयी गति दे।
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व्यवहार में अनेकांन्त दृष्टि का विकास
- साध्वी वर्धमानश्री
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में यदि मानव स्वस्थ और समस्यामुक्त जीवन जीना चाहता है तो उसके लिए सर्वोत्तम उपाय है - अनेकान्त दृष्टि का निर्माण । अनेकान्त हमें हर विचार में छिपी सत्यता का दर्शन कराता है।
अनेकान्त का अभिमत है- प्रत्येक वस्तु के अनेक छोर हैं, अनेक धर्म हैं। वस्तु में अनन्त-अनन्त विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं। व्यवहार में भी प्रत्यक्षतः देखा जाता है। एक फोटोग्राफर ने सोचा मैं एक ऐसे व्यक्ति का फोटो लूं जिसके चेहरे से साक्षात् देवत्व टपक रहा हो। उसे एक ऐसा व्यक्ति मिल ही गया। काफी समय बाद उसके मन में आया - मैं एक ऐसे व्यक्ति का फोटो लूं जिसके चेहरे से साक्षात् हैवानियत टपक रही हो। अन्वेषण करते-करते वह व्यक्ति भी मिल गया जिसके चेहरे से अत्यन्त क्रूरता टपक रही थी। बातों ही बातों में ज्ञात हुआ कि जिस चेहरे से देवत्व टपक रहा था वह भी उसी व्यक्ति का फोटो था। ___व्यक्ति एक, स्थितियाँ अनेक। पर्यायें बदलती रहती हैं। प्रत्येक द्रव्य में एक दूसरे के विरोधी युगल अस्तित्व में रहते हैं। उनमें केवल एक विरोधी युगल ही नहीं किन्तु अनन्त विरोधी युगल अस्तित्व में रहते हैं। एक साथ एक का दूसरे विरोधी पर्याय के बिना अस्तित्व टिक नहीं सकता। यह सार्वभौम नियम है। इस जगत में ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं है जिसका पक्ष हो और प्रतिपक्ष न हो तथा पक्ष और प्रतिपक्ष में सह-अस्तित्व न हो । आज वैज्ञानिकों ने भी इस तथ्य को सिद्ध कर दिया है। परमाणु में जितनी संख्या एलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि कणों की होती हैं उतनी ही संख्या प्रतिकणों की भी होती हैं। एलेक्ट्रॉन का प्रतिकण प्रतिएलेक्ट्रोन, प्रोटोन का प्रतिप्रोटोन
और न्यूट्रॉन का प्रतिन्यूट्रॉन होता है । परमाणु के नाभिक का जब विखण्डन होता है तब ये प्रतिकण एक सैकेण्ड के करोड़वें भाग से भी कम समय के लिए अस्तित्व में आते हैं। उस समय कण और प्रतिकण में टकराव होता है । फलस्वरूप गामा किरणें
या प्रोटोन्स पैदा होते हैं। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि प्रतिकण कण का प्रतिद्वन्द्वी होते हुए भी उसका पूरक है। वे दोनों साथ-साथ रहते हैं । परस्पर एक दूसरे का सहयोग करते हैं और उनमें क्रियाप्रतिक्रिया का व्यवहार भी चलता रहता है।
अनेकान्तवाद के आधार पर मुख्य रूप से चार विरोधी युगलों का निर्देश किया जाता है1. शाश्वत और परिवर्तन
2. सत् और असत्
3. सामान्य और विशेष
4. वाच्य और अवाच्य
1. शाश्वत और परिवर्तन
भगवान महावीर ने उत्पाद व्यय और ध्रौव्य, इस त्रिपदी का व्याख्यान किया है। प्रत्येक द्रव्य शाश्वत और परिवर्तन के नियम से आबद्ध है। जीव एक द्रव्य है। वह कभी अजीव नहीं बन सकता लेकिन मनुष्य, पशु, नारक या देव रूप में उसकी पर्यायें पलटती रहती हैं। कंगन को तोड़कर कुंडल बनवा लिए लेकिन सोना अपने रूप में स्थिर रहता है। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य में प्रकम्पन्न होता रहता है । उसकी पर्याय प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है लेकिन वह अपने मूल रूप को नहीं छोड़ता । उसका मूल ध्रुव रहता है । इस प्रकार ध्रौव्य प्रकम्पन के मध्य अप्रकम्पन है । परिवर्तन के मध्य शाश्वत है। पर्याय (उत्पाद-व्यय) अप्रकम्पन की परिक्रमा करता हुआ प्रकम्प और शाश्वत की परिक्रमा करता हुआ परिवर्तन है । अस्तित्व में परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील दोनों प्रकार के तत्व विद्यमान रहते हैं । कोई भी अस्तित्व शाश्वत की सीमा से परे नहीं है और कोई भी अस्तित्व परिवर्तन की मर्यादा से मुक्त नहीं है। इसीलिए कहा है - द्रव्यं कदा केन वियुतं, दृष्टाः मानेन केन वा ।
अर्थात् पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय कब, कहां, किसने देखा ? अस्तित्व के लिए परिणमन अनिवार्य है । अनन्तकाल के अनन्त क्षणों में और अनन्त घटनाओं में किसी द्रव्य को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए अनन्त परिणमन करना आवश्यक है। यदि उसका परिणमन अनन्त न हो तो वह अनन्तकाल में अपने अस्तित्व को बनाए नहीं रख सकता। ऐसी स्थिति में आग्रहपूर्वक ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह नहीं है। हमें कहना होगा - किसी अपेक्षा से यह वह है। गुलाब के फूल में जितनी सुगन्ध है उतनी ही दुर्गन्ध है किन्तु उसमें सुगन्ध व्यक्त है और दुर्गन्ध अव्यक्त। चीनी जितनी मीठी है उतनी ही कड़वी है किन्तु उसमें मिठास व्यक्त है और कड़वाहट अव्यक्त । यदि पूछा जाए घास में घी है या नहीं? तो उत्तर होगा- ओघ शक्ति की दृष्टि से है किन्तु समुचित शक्ति की दृष्टि से नहीं है ।
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2. सत् और असत्
प्रत्येक द्रव्य में सत् और असत् का युगल विद्यमान है। सामने जो घड़ा पड़ा है वह मिट्टी का है, सोने या चांदी का नहीं है। मिट्टी की अपेक्षा से है और सोने और चाँदी की अपेक्षा से नहीं
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है, अत: घड़ा नहीं है, यह कथन भी किसी अपेक्षा से सत्य है। अत: उसके सत् धर्म को लेकर आग्रही नहीं बनना चाहिए। 3. सामान्य और विशेष
प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष दोनों गुण पाए जाते हैं। सामान्य गुण ध्रौव्यत्व का प्रतीक है और विशेष गुण पर्याय का । एक ही व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक यह वही है, इस कथन से अभिव्यक्त होता है लेकिन यह बच्चा है, युवक है, बूढ़ा है, इसी के विशेष गुण हैं । अतः सापेक्षता का यह सिद्धान्त हर स्थिति में व्यवहार्य है। 4. वाच्य और अवाच्य
प्रत्येक द्रव्य में अनन्त विरोधी धर्म होते हैं। जिस समय जिस धर्म का कथन किया जाता है उस समय शेष सभी धर्म अवाच्य हो जाते हैं लेकिन उसका यह अर्थ नहीं होता कि उसमें वे धर्म नहीं हैं। उदाहरण के लिए एक लड़की संगीतज्ञा भी है, लेखिका भी है, गृहकार्य में दक्ष भी है, और भी अनेक गुणों से युक्त है लेकिन प्रसंगवश उसके सभी गुणों का व्याख्यान न करके, एक गुण का ही व्याख्यान किया जाता है । उस समय बाकी के गुण अवाच्य ही रहते हैं, अतः ऐसा मानना कि वह मात्र लेखिका ही है, यह मिथ्या होगा।
हम वर्तमान पर्याय के आधार पर पदार्थ की व्याख्या करते हैं, यह हमारा सापेक्ष दृष्टिकोण हैं। अपेक्षा के मुख्य दृष्टि बिन्दु चार हैं-1. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव
एक के लिए जो गुरु है वही दूसरे के लिए लघु, एक के लिए जो दूर है वही दूसरे के लिए निकट, एक के लिए जो ऊर्ध्व है वही दूसरे के लिए निम्न, एक के लिए जो सरल है वही दूसरे के लिए वक्र होता है। अपेक्षा के बिना किसी की सही व्याख्या नहीं हो सकती कि गुरु और लघु क्या है ? दूर और निकट क्या है ? ऊर्ध्व और निम्न क्या है ? सरल और वक्र क्या है ? द्रव्य
और क्षेत्र आदि की निरपेक्ष स्थिति में उसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। द्रव्य अनन्त गुणों और पर्यायों का सहज सामञ्जस्य है। इसके सभी गुण और पर्याय निरपेक्ष दृष्टि से नहीं समझे जा सकते। एक गुण द्रव्य के जिस स्वरूप का निर्माण करता है वह उसी गुण की अपेक्षा से होता है। दूसरे गुण की अपेक्षा से नहीं होता। चेतन द्रव्य चैतन्य गुण की अपेक्षा से ही चेतन है। उसके सहभावी अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुणों की अपेक्षा वह चेतन नहीं है।
भगवान महावीर के युग में प्रत्येक द्रव्य तथा उसके गुण और पर्यायों का नय दृष्टि से विचार किया जाता था। उस समय नय वाक्य के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता था। सिए अत्थि, सिए नत्थि, सिए सासए, सिय असासए- ये शब्द नय वाक्य के आगमयुगीन उदाहरण
आज के इस विषम युग में जहां विश्व भौतिकता की अन्धी दौड़ में बेतहाशा दौड़ा जा रहा है। कोई किसी को सहन करने में सक्षम नहीं हैं, संयुक्त परिवारों की नींवें तीव्र गति से उखड़ती जा रही है। पति और पत्नी में भी नित्य नौंक-झौंक बनी रहती है। गुरु-शिष्य, पिता
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पुत्र, मां-बेटी सभी के बीच वैमनस्य की दीवारें खड़ी हो रही हैं। वहां भगवान महावीर की अनेकान्तदृष्टि अत्यन्त व्यवहार्य है।
अमुक व्यक्ति जो कुछ कह रहा है वही सही नहीं है, सामने वाला व्यक्ति भी किसी अपेक्षा से सही है। यह सापेक्ष दृष्टिकोण जिस दिन मानव के भीतर उतर जाएगा, सम्यग् दर्शन आ जाएगा। निषेधात्मक भावों की विषवल्लरी स्वयमेव भस्मीभूत हो जाएगी। विधेयात्मक भावों का बगीचा खिल उठेगा। सब प्रकार का तनाव धीरे-धीरे धुलता चला जाएगा। अन्ततः परम शान्ति, परम आनन्द और परम सुख का सागर लहराने लगेगा।
जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान)
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Ācārānga-Bhāṣyam
Dear Reader,
We are introducing the Acārānga-Bhāṣyam and commentary on it by Acarya Mahāprajña from this issue. This work was published in a book form from Jain Vishva Bharati in 2001. It gives us immense pleasure to publish this work in a series to reach you in an easier way. Hope, you will appreciate.
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- Acārya Mahāprajña
- Editor
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Preface
This title of the present chapter is Sastraparijñā' (comprehending and giving up the weapon of injury). The topic propounded in the súlra is self-restraint as regard living beings.? This self-restraint is ahimsă. The secret of ahimsā, says the Dasavaikälika Sūtra (6.8), is self-restraint in regard to all living beings, which was realised by Lord Mahāvīra. According to Acharya Bhadrabahu, the author of the Ācāranga Niryukti (the earliest commentary), four topics have been expounded in this chapter,' namely soul, exposition of six classes of living beings, bondage and abstinence. These topics relate to the Jaina science of conduct.
Self-restraint stands for not injuring earth-, water-, fire-, air-, and plant-bodied beings as well as two-, three-, four-, and five-sensed beings: also for restraint in using inanimate objects, control of the senscs, avoiding laxity, proper disposal of excreta, inspecting and sweeping the place before use, and mental, vocal and physical restraint. Of these seventeen varieties, the first nine are concerned with the six classes of living beings:' the first five constituting five classes of immobile beings and the last four making the class of mobile beings. This self-restraint is possible only on the acceptance of the existence of soul (the sentient substance). Such acceptance leads to the four doctrines as the basis of self-restraint, doctrine of soul, doctrine of the cosmos, doctrine of karma and doctrine of action. The existence of soul, moreover, cannot be established without accepting the existence of its counterpart, namely, non-soul (the non-sentient substance). This is why the doctrine of the non-soul, like the doctrine of soul, is also the basis of self-restraint. 7 In the aforesaid list of seventeen varieties of self-restraint, the tenth is concerned with the non-sentient bodies. The doctrine of karma is bound up with the principle of bondage to which the doctrine of action is causally related.
The scripture, Ācārānga, propounds brahmacarya' in its widest connotation as the science of soul and the discipline of conduct based
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UF GHORT-HTET, 2002
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on that science. In this spiritual scripture.'' abstinence has been accepted as the essence of conduct. Abstinence means giving up all sorts of violent activities. This is the principal aim of the asceticâs conduct.
In the Upanisads there are discussions, about the existence of soul, but the doctrine of six classes of living beings is an absolutely original contribution of the Jainas. There is mention of mobile beings and also plant life in nonJain literature, but the exposition of other lypes of living beings such as, immobiles like the earth-bodied, etc. and the scientific classification of beings based on the number of senses is exclusively a contribution of the Jainas. In the Sutrakrtanga" and other subsequent scriptures, 12 the doctrine of six classes of living beings has found universal acceptance.
The attribution of pleasure and pain to the immobile beings such as, earth-bodied creatures is also an absolutely novel contribution. The comparison of the plant body with human organism in this context attracts the altention of the modern scholars. The doctrine of the weapons of injury to the living beings opens up a new vista of research in this field. Attention is spontaneously drawn to the description of such weapons and the logical argumentation to prove the category of sentient beings. Thus the present chapter is uniquely important from a number of standpoints
1. Acaranga Niryukti. Gātha 31. 2. Ibid. Gatha 33.
Dasavcaliyam. 6/8 4. Acaranga Niryukti, Gálha 35:
jivo chakkayaparūvaņa ya lesim vahe ya bamdholli.
viraic ahigaro, satthaparinnae nayavvo.. 5. Angasuttani 1. Samavāo 17/2:
sallarasavihe samjame pannalle, lam jaha--pudhavikayasmjame aukāyasamjame Icukayasam jame văukayasamjame vaņssaikayasamjame beim diyasamja me tiemdiyasamjamc caurimdiyasamjame pamcimdiyasamjame ajıvakāyasamjame pchasamjame upchásamjame avahallu-samjame pamajjanásamjame manasamjame
vaisamjame kāyasmjamc. 6. Ayaro, 1.5. 7. Scc the note of Ayaro, 1.5. 8. Ayāro, 1.6. 9. Angasutlani 1, Samavão, 9/3 nava bambhaccrå panntiá, lam jaha---samgahani
gaha-satthapariņna logavijao, siosanijjam sammaltam.
ávamti dhutam vimohāyaṇam, uvahănasuyam mahaparinna.. 10. Ayaro, 1.7 11. Angasultāṇi 1, Suyagado, 1/9/8,9 12. Dasaveyaliyam, IV.
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Chapter-1
Comprehension and Abandonment of
Weapon of Injury
Section-1
1.1 suyam me ausam! tenam bhagavayā evamakkhayam
ihamegesim no sannā bhavai, tam jaha-puratthimao va disao agao ahamamsi, dahina0 vã disao ahamamsi, paccatthimão vá disão ágau ahamamsi, ultarão vá disão āgao ahmamsi, uddhão vá disão ágao ahamamsi, ahe va disão ágao ahamamsi, annayario vā disão ágao ahamamsi, anudisão vā agao ahamamsi?
O longlived (Jambūsvāmin)! I (Sudharmā) have heard the following discourse from Lord Mahavira: Here many do not have the experience (that is memory of the place from where they have transmigrated) such as
Have Itransmigrated (to this world) from the eastern direction, or from the southern direction, or from the western direction, or from the northern direction, or from the direction above, or from the direction below, or from any other direction, or from any intermediate direction?
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.
1.2 evamegesim no natambhavati-atthi meayā ovavāie, nalthi me
ava ovavảie? Ke aham asio ke va io cuoiha pecca bhavissămi?
Similarly many do not know-Is my soul subject to birth, or is my soul not subject to birth? Who was I (in my previous life), or after departure from here what shall I become in my next birty?
1.3 sejjam puna jānejja-sahasammuiyāe, paravågaraṇenam,
aņņosim vă amtie soccă tam jaha--puratthimão vă disão āgao ahamamsi, dakkhinào vă disão ágao ahamamsi, paccatthimão
vã disão ăgao ahamasi, uttarảo và disão ägao ahmapsi, IME WE Haf-418, 2002 C
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uddhão vă disão ágao ahamamsi, ahe vă disão ágao ahamamsi, annayario vā disão ágao ahamamsi, anudisão vá agao ahamamsi.
By ones own power of recollection, from exposition advanced by an authority having the power of direct knowledge and on hearing from some one (who had learnt about it from one who commanded direct knowledge), some (people) acquire knowledge such as I have transmigrated (to this world) from the eastern direction, or from the southern direction, or from the western direction, or from the northern direction, or from the direction above, or from the direction below, or from any other direction, or from any intermediate direction. 1.4 cvamegeism jam nãtam bhavai-atthi me āyā ovavăie. jo imão disão
anudisão vă anusamcarai. savvão disão savvão anudisão jo ăgao anusamcarai soham.
In the same way some may know-my soul, being subject to birth, transmigrates in these cardinal direction or intermediate directions, that (soul) is I myself.
Commentators Auspicious Invocation Visuddham visadātmãnam Paramātmānamātmanā. Sannidhim sahajam nitvā,
Tanomyācāramadbhutam. With inborn devotion, I surrender myself to the pure, manifest, great soul and propose elaborately to explain the excellent Ayāro (Spiritual discipline).
Bhāṣyam Sūtras 1-4
One of the chief disciples of Lord Mahāvīra, Suddharmā, spoke thus to Jambū: 0, long-lived! I have directly heard this from Lord Mahāvīra, whatever lam saying is not the imagination of my own mind, but has been told by Lord Mahāvīra himself.
There is birth. There is death. There cannot be any doubt about them in the mind of anybody. These obviously happen to everybody. The person who takes birth had of necessity experienced death in the past, and he will be reborn again. This is, of course, not directly perceived by the common man. There is cause for doubt on objects not perceived directly. Owing to such doubt, the believers in direct perception alone as the valid source of knowledge consider birth and death as without any precedence. In other words, according to them, there was no birth before, and in the absence of birth, the pre-incidence of death is utterly impossible.
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Some philosophers attempted at realising the events of birth and death by their constant endeavor to attain the state of direct intuition of those events. They realised the eternal cycle of birth and death, that is, transmigration of the soul from birth to birth. At the end of such realisation, they declared that there were people who had intuition of past and future lives, and that there were also people who were bereft of such intuition
It has been explained in the Výtti that such experience of transmigration is not possible for beings not endowed with mind. And among beings, cndowed with mind, only some have the experience of transmigration from particular direction, while others have not. The Sūtra makes such experience as the starting point of its disquisition:
I have migrated from the castern direction, of from the southern direction, or from the western direction, or from the northern direction, or from the direction above, or from the direction below,
or from any intermediate direction. This question of life before and life hereafter is of supreme importance not only for those who believe in the existence of the soul, but also for all living beings endowed with reason. To ignore this question is to deny the truth about birth and death. In the absence of such query the birth of philosophy itself would be impossible. Is it possible to disentangle the soul from the body? If it is not possible, the issue of brith and rebirth will be only imaginary and unreal. Only if it was possible to disentangle the soul from the body, it would be feasible to comprehend that the body and the soul are not identical entities.
This is expressed in the sūtra 'I have to soul that is subject to birth or I have none that is so'. All people have no intuition as to what I was in the past or what shall be in the future after departing from here. We find two investigating sütras in this context: 'what I was in the past'--this is concerned with the past life, 'what shall I be in the future'—this is concerned with the future life.
Is such intuition possible? To this query, Lord Mahāvīra says that it is possible to have intuition of the past life as well as the future birth. There are three sources that prove such possibility: ones own power of recollection: exposition by the Jina having the power of direct knowledge, and hearsay, i.e., heard from some one who had learnt about it from one who commanded direct knowledge.
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Ones own power of recollection
This is the first source. Some children in their childhood get the memory of the past life spontaneously. With modern psychologists many events of spontaneous memory of past occurrences are found registered. In Jaina literature also, there are records of such incidents.
In the Susruta Samhitā, it is pointed out the persons with their mind, cultivated in the past life by the study of spiritual lore, are capable of the memory of the past life.' Exposition by the Jina
This is the second source. The exposition is ascribed to the supreme authority namely the Jina. This is confirmed in the Niryukti (commentary) where it is said that there is no higher authority than Jina who had expounded the doctrine of transmigration.?
In this connection, Meghakumāra's memory of previous life deserves mention. In the commentaries, the example of Gautama Svāmi is also mentioned
Lord Mahāvīra was asked by Gautama Svāmī, "O Lord ! how is it that omniscience is not arising in me''?
The Lord explained “O Gautama! This is so because you have deep attachment to me”.
Gautama Svāmi, "O Lord! this is exactly so, but what is reason of my excessive attachment towards you''?
Then the Lord mentioned that there was mutual relation between them in many past lives. In this connection, the Lord said, “You had been attached to me for a long time. You had been acquainted with me for a long time"'.'
On hearing this explanation of the Lord, Gautama Svāmi came to possess the knowledge (memory) of the specific direction from which he came to the present state of existence, and the life.
Hearsay
This is third source. It is not direct revelation by the Jina, but it is something heard as propounded by a person with his power of extrasensory perception. Such hearing is conducive to intuitive knowledge in the listener. In ancient commentaries, such source was indicative of all people, other than the Jinas, who were possessed of special knowledge.
The memory of the past life is inborn in some souls, while in other it is an acquired faculty due to some auxiliary causes, which are: the special
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subsidence of deluding karma, purity of perception (purity of aura), the process of speculation, elimination (of doubt), investigation, intensive search."
The special subsidence of deluding karma is illustrated in Namipavvajjā in the Uttaradhyayana. There it is said that Nami remembered the past life on account of the subsidence of deluding karma.?
On account of his purity of perceplion, Mrgāputra got the memory of his past life simply at the sight of a monk. here the cause is mentioned to be the subsidence of the deluding karma and purification of the perceptive faculty simultaneously." Similarly, Harikesabala also had the memory of past life while engrossed in reflection. In the introduction to the chapter on Cifrasambhūti, there is mention of the memory of the past life.10 Both the sons of Bhrgupurohita, simply at the sight of a monk, acquired the memory of their past life, and also recollected their practice of penance and selfrestraint. 11
Realising that the faith in religion and desire for liberation are easily nourished by the memory of the past life, Lord Mahāvīra led many people recollect their past life. When Meghakumāra was in the point of reverting to the householders life, the Lord reminded him of the third life in the past, 12 which produced in him the memory of his past rational lives due to beneficial psychical processes, auspicious perception with aura gradually purified. This was the result of speculation, elimination, investigation and intensive search due to the elimination-cum-subsidence of relevant karmic veils. 13 The memory of the past life arose in Sudarśana Śresthi too in the same manner. 14
The third auxilary cause consisting of speculation, elimination, investigation and intensive search is illustrated by the memory that occurred to Meghkumāra as soon as he heard the name of Meruprabha elephant. There started 'speculalion' in his mind about the elephant. As a result, there was some agitation in his mind to know the elephant. Thereafter the process of elimination started with the querty-- "Ilad I been an elephant in the past''? In the process of ratiocination, he entered the state of investigation. In other words, he entered the area of past experience in order to search out the event in his past life. While reflecting on the past, he embarked upon the state of 'intensive research'. Even as a cow reaches the grazing posture visited earlier, while engaged in search of fodder, Meghakumära gained the memory of his elephant-life by investigating through concentrated investigation.
The memory of the past life arises on account of some specific event, or without such evenl. The memory that arises simply on account of the IMET Ugla - HFC, 2002 C
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elimination-cum subsidence of the relevant karmic veils is without the occurrence of any specific event. Sometimes, on the other hand, such memory takes place due to the presentation of some external event.
The memory of the past life is a variety of empirical knowledge. Maximally, one can recollect nine rational lives by means of this memory. According to the Acārānga commentary, however, the possessor of the power of recollection can remember any number of past lives, not only nine. 16
Rational life means life of a being who is possessed of mind which has the power of reasoning. Ordinarily, it is not possible to remember the past lives that were not endowed with mind.
It is not possible for all beings to have this memory. The reason for this is given the Tandulaveyalia" which says that the intense suffering at the time of birth and death stupefies the person so deeply that he is incapable of remembering his past life. The supine remnants of past experiences need specific events for their revival. This is the reason for the non-occurrence of memory in ordinary persons.
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Experience
It is the act of experiencing, which is twofold: feeling and knowing. Knowing includes five kinds of knowledge, i.e., empirical, articulate, clairvoyant, mind-reading and omniscient. The feeling is a kind of sensation. The Niryukti explicitly says that the feeling is due to the rise of ones karma. It is not the subject matter in the present context. Only the knowledge aspect of experience is relevant here.
That (soul) is 'I' myself this phrase refers to the person who recollects his past life and acquires a deep faith in his external existence through past, present and future. The person endowed with the memory of the past life is convinced of his own existence in the past. Such person has been directly referred to in the Sutra (1.4)-"the person who transmigrates from the cardinal and intermediate directions and subdirections is identical with myself".
The Curni has defined atman with reference to the aforesaid phrase. The query is made, "Although there is ätman, its defining characteristics have not been indicated". To this query, the preceptor answers thus: "experience of 'I' ness in the body which is not the 'I' in the judgements 'I am doing'. It is done by me, 'I' shall do this, defines the character of soul identified as 'I'. 18
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1.5 se āyāvāi, logavai, kammāvāi, kiriāvài
Only he (who knows the transmigration) is the upholder to the doctrine of soul, world, karma and action.
Bhagyam Sutra 5
There were many doctrines about soul and world in the age of Agamas, which are mentioned in the eighth chapter of the present Agama.'' There were some who believed in the existence of should and there were others who did not. They tried to establish the doctrines by arguments and logic. Lord Mahāvīra assigned superior position to self-realisation or direct perception of the soul, as what was established by arguments could be rejected by counter-arguments. The reality that was perceived directly could not be refuted by a thousand and one arguments. This was the reason why the Lord attached supreme importance to the way of direct perception. The person possessed of the memory of the past life turns a supporter of the doctrine of soul, as his mind is absolutely free from any kind of doubt or suspicion. The admission of the eternal existence of the soul implies the admission of the doctrines of world, karma and action.
As a result of the memory of past existence, nihilism, ontological and ethical is rejected, spiritualism is accepted, and the faith in religion is intensified. Such intensification of faith is endorsed in the Bhagavati20 where the merchant Sudarsana is said to have intensified his faith and dread of worldly life on being reminded of his past life by Lord Mahāvīra.
The upholder of the doctrine of soul The doctrine of the soul has been described in the fifth chapter 21 The upholder of the doctrine of the world
The Prakrit equivalent of 'world' is loga which has been used in different senses at different place in the present Āgama. It has been used in the sense of the body, 22 the sensibles, 23 the passions,24 the soul,25 the world, 26 the people and so on. It should, therefore, be explained in different ways in different places. In the present context, the word stands for the physical universe. The substance soul is devoid of form and therefore is not visible to us. Among the other substance only the material bodies have form and colour and, therefore, these alone are meant by the word 'loga 'here. In the Bhagavati Sūtra, the word loga is explained exactly in this sense. 24 Generally, in the Āgamas, the loga is variously defined as the totality of jīva and ajīva and so on, but here, those definitions are not applicable.
The meaning of the word loga as given by the Cūrņi also appears plausible. According to the upholder of the doctrine of loga, the other DHE U Hi-FE, 2002
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creatures of the world are considered as real as one's own self. The jīvas and ajīvas (the substances other than the souls) constitute the loga. The doctrine signified by the word logå vådī (the upholder of the doctrine of loga) is to be understood in this sense of the word loga.29
The upholder of the doctrine of karma
The
Through memory of past existence the relation between soul and matter is properly understood. The acquisition of new body by the soul and its transmigration and wandering in different directions is due to its association with the matter. The soul has finer material body composed of material particles, auspicious and inauspicious, accumulated by it through the exertion of its own self-conscious will (adhyavasāya). The material particles are attracted by the activity (karma) of the soul and, therefore, they are called karma. The material body thus formed being the receptacle of those particles also designated as karma.
In the doctrine of karma, the ethical theory of retribution is accepted. This is the implication of the sutra: 'one has to experience himself the consequence of ones own karma'. 90
The upholder of doctrine of action
The soul and the karma are related by means of the activity of the soul. The soul relates itself to the karmic particles so long as there are vibrations in it due to the passions of attachment and hatred. The doctrine of karma is thus the outcome of the doctrine of action. A detailed description of the doctrine of action has found place in the present Agama. The soul with the memory of his past existence clearly understands that there is soul cternal, there is matter, there is association between the two, and there is a cause of the continuity of their association. 1.6 akarissam caham, kāravesum caham, karao yavi samanunne bhavissāmi. I did it, I got it done, and I shall be the approver of the doer. Bhāsyam Sutra 6
The person with the memory of the past has a deep experience of the causal chain of action, the karmic bondages and the resultant transmigration in different directions and subdirections. This has found vent in this sūtra.
The action is threefold: was done by the agent himself, or was got done, or shall be approved of by him. This threefold action becomes ninefold when combined with the three periods of times-past, present and future. From the present sutra all these nine types of action can be derived. The first, second
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and ninth types are explicitly mentioned here. Others can be formulated as follows:
(iii) I had approved of what was done.
(iv) I am doing myself.
(v) I am getting it done.
(vi) I am approving of what is being done.
(vii) I shall do myself.
(viii) I shall get it done.
Due to action there is the inflow of karmic particles, and therefore, the action is called inflow. in fact, this inflow is the cause of the transmigration in various directions. The comprehension of the cause of transmigration is due to the memory of the past existence.
1.7 eyavamti savvavamti logamsi kamma-samarmbhā parijāṇiyavvā bhavamti.
All these worldly violent activities31 are to be comprehended and given up. Bhăşyam Sutra 7
There is a radical change in the thinking of the person with an insight into his past existence. Saturated by faith, he develops dread for worldly life and resolves: "I should comprehend these violent actions". Such comprehension is twofold: theoritical knowledge and practical application. The implication is that the activities are first of all to be known and then abandoned. 32 1.8 aparinṇāyā-kamme khalu ayam purise, jo imão disão vã aṇudisão vā anusamcarai, savvão disão savvão aṇudisão saheti, aṇegarüvão joņio samdhei, virūparūve phase ya paḍisam vedei.
The person who does not comprehend and renounce the karma, transmigrates in cardinal or intermediate directions, wanders loaded with karma to all cardinal and intermediate directions ad is born again and again in manifold births, and experiences various painful feelings.
Bhaşyam Sutra 8
In Samkhya philosophy, the person (purușa) stands for soul. In the present scripture also, at many places the word 'person' is used to denote soul. The person with memory of past births comes to understand that his various transmigrations from directions to direction and place to place and his sufferings are due to non-comprehension of the nature of karma. On knowing this truth, the person attempts at getting the comprehensive knowledge of karma.
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Here a sgnificant problem crops up. Is it possible to do away with karma? The maintenance of the body and sustenance of life are controlled by karma. How can a person live without karma? The meaning of the abandonment of karma is not the abandonment of all karma, but only of karma which nourishes non-restraint. “One should not conceal his energy". 33 This ways proclaimed by the Lord as experienced by himself. The energy is invariably bound up with the karma. The ascetic 'keeps his senses under complete restraint and does not let them go wanton". 34 In this sūtra also, the self-restrained karma is prescribed. In the sutra: "One should not do anything for earning reputation". 35 There is prohibition only of action for the purpose of gaining name and fame, but not absolute prohibition of all kinds of karma. In the sútra: “The evil deeds are unworthy of being done it is clearly maintained that only evil actions are to be avoided and not all actions without exception.
The statements about the comprchension and abandonment of karma are virtually the statements about the purity of karma. Even the seer makes use of worldly things, and such use is nothing other than karma. It is, therefore, said that the seer makes use of worldly things in a different manner and for a different purpose. 37 For instance, the ordinary man uses thing or enjoys them in a worldly way without any self-restraint. But a man of selfrestraint does not do so. He makes use of those things with proper restraint, and an act done with proper self-restraint is virtually not karma. It is with this veiw that the statement about the comprehension and abandonment of undertaking of the karma has been made. The upshot is that an ascetic should avoid the act that involves absense of self-restraint. 1.9 tattha khalu bhagavayā pariņņā paveiya.
On this subject, the Lord has propounded the principle of comprehension and abandonment. Bhagyam Sutra 9
The Lord has revealed the nature of comprehension and abandonment by confirming the truth of the knowledge of the person with the memory of previous births through his own experience of special events. Comprehension and abandonment means discrimination between self-restraint and indulgence. The person who does not comprehend the nature of karma, travels from one birth to another in different cardinal and intermediate directions. This is indeed a fact. It is nevertheless necessary to search out the basic causes of the non-comprehension of the nature of karma leading to transmigration. The following causes of transmigration are enumerated in the sūtra 10.
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1.
1.10 imassa ceva siviyassa, parivamdana-mānanna-puyanae, jāi-marana
moyaņãe, dukkhapadighāyaheum.
Longing for survival, praise, reverence and adoration; life and death; emancipation, and elimination of physical and mental suffering. Bhāsyam Sutra 10
The following cause of transmigration are enumerated in the sūtra 10: Longing for survival—There are multitude of longings in a living being. Among these, the longing to live is the strongest and foremost. This truth has been demonstrated in the following words coming out of the deepest experience of the seer. "All beings love life...... They are attached to this mortal coil. They want to hang on to life" 34 Life is dear to all brings": 39 The person longing for life stores up things to perpetuate cruel acts of violence. Thus the longing for life turns into a spring of karma."" This is the whirphool of suffering. 41 Praise-The word 'honour' (parivandana) has been explained as
praise' by the commentator. 42 People indulge in violent actions to earn praise. Here it seems that the original text has got vitiated. It should read Jiviyassa paribamhana". In the Cūrni we get corroboration of this reading. According to the book of Ayurveda, the nourishment should help the growth of life. The word brmhaniya as used here in the context of present sūtra, the meaning will be people indulge in violent activities for strengthening the life. The error of the scribe may be responsible for writing 'da' in place of 'ha'. This has resulted in changing of the whole meaning. The Cūrņi, however, accepts the reading paribamdana. Reverence (mananam)-This word is to be explained in two different ways. First, a person engages in violent actions in order to honour another persons. Secondly, a person, when not honoured, indulges in violent action such as punishing the person who failed to honour him. For instance, when a powerful tyrant does not get proper honour and reverence from his subjects, he indulges in imprisoning and killing them and confiscating their possessions. Adoration (pūjanam)—Even as acts of violence are done for offering respect, exactly so harmful acts can be prepetrated in order to adore others. The show of respect is done by standing up in order to welcome, while the worship is performed by putting mark of sandal or saffron on the forehead of the person to be adorned.
3.
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5.
Life and death-We have used the word birth for jāti which has two meanings: birth and similarity. Here, the meaning birth is relevant and appropriate. Death means the end of life. The indulgence in violent karma can be easily be found to be done for the sake of birth and death. For instance, a person performs sacrifices for his birth in heaven, or he can arrange for special ceremony in advance on the occasion of his death.
6.
Emancipation- It means liberation or freedom. It is well known that in many religious traditions, varieties of cruel acts are prescribed for liberation from worldly bondage.
The phrase 'for birth, death and emancipation' ca be interpreted as one single concept, which means emancipation from birth and death. We find people believe in acts of violence (such as animal sacrifice) for their own freedom from birth and death, as well as the spiritual freedom of the victims of such violence.
The reading 'bhoyaņãe', for ‘moyaņāe'. accepted by the Cürņi appears to be more appropriate. People are found engaged in agriculture and the like for food. Even the psychoanalysts and biologists admit that the search for food is a fundamental instinct. 44 Freud has accepted only two instincts, e.g., instinct of life and instinct of death.45 The later psychologists expanded the scope of instincts and emotions. In the sūtra 10, only seven fundamental instincts are mentioned. Maslo has admitted 'regard' and 'respect' also as a fundamental instinct and emotion. 46 7. The elimination of mental and physical suffering—- For the purpose
of getting rid of various kinds of physical and mental suffering, a person indulges in various acts of violence. Such indulgence is the fountainhead of worldly activity.
In the sutra under discussion, the most profound estimate and enumeration of the causes of violence has been made. 1.11 eyāvamti savvávamti logamsi kamma-samārambhä parijaniavva
bhavamti. All these worldly violent activities are to be comprehended and given up.
Bhāsyam Sūtra 11
What was stated as thesis in the sūtra 7 is given in sūtra 11 as conclusion. Persons who are ignorant of the source of violent karma are incapable of comprehending the true nature of karma and getting rid of it. Consequently, the sources of karma are given at the outset, to be followed by the
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comprehension of the latter. The present sutra, therefore, does not repeat the content of sutra7.
1.12
The ascetic who has comprehended and avoided these violent indulgences in karma in his life is indeed an ascetic who has realise the essence of comprehension and abandonment. Thus I say.
jassete logamsi kamma-samārambhā parinṇāya bhavamti, se hu muņi parinnäya-kamme.―tti bemi.
Bhāsyam Sutra 12
The word 'karma' has different connotations. But here it stands for 'action'. The person who has given up all kinds of violent actions is an ascetic who has comprehended the nature of karma. In Gītā, "one whose all actions are sans desires and aspirations, and whose all actions are burnt up by the fire of knowledge, is called a pandita (learned) by the wise ones"."7
The view of Lord Mahāvīra, in this connection, can be formulated thus: alongwith the reduction in the intensity of passions, the karma is proportionately purified and inhibited. The freedom from desire is due to the intensity of passions.
Muni (ascetic)- The word muni connotes wisdom and knowledge. A muniis so called because he knows, munei the world as it was, is and will be in the past, present and future."
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The comprehender of karma A wise person abstains from violent worldly activities by knowing their results. This is the reason why such person is designated as the comprehender of karma. The curni has clearly said that the person who has comprehended the karma has abstained from it by realising its nature." 49
Thus I say
The Lord thus spoke to his principal disciples, or Sudharma addressed his disciple Jambu thus: "Whatever was experienced by me is being uttered for the well-being of all people".
1.
6.
7.
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Susrutasamhita, sarirasthana 2.57
bhävitaḥ pūrvadehesu, satatam sastrabuddhayaḥ, bhavanti sattvabhūyiṣṭhah, purvajätismarah naraḥ.
2. Acaranga Niryukti, gatha 66.
3.
4.
5. Acaränga Niryukti, gatha 66.
Angasuttāņi II, Bhagavai, 14.77. Acaränga Vṛtti, patra 20.
Acaranga Curņi, p.13. Uttarajjhayaṇāņi, 9.1.
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8.
9.
Ibid, 19.5.-7.
Sukhabodha, patra 174: evam bhāvemano takkhansamjayajaisambhararano
sumariyavimāṇavāso......
10. Uttarajjhayaṇāni, Chapter 13.
11. Ibid, 14.5 sarittu poraniya tallha jāim,
taha succinņam tavasamjamam ca.
12. Angasuttāni III, Nāyadhammakahão, 1.156: evam khalu meha! tumam! io tacce are bhavagga-hane.........
13. Angasultāṇi III: Nāyādhammakahão, 1.190: tac nam lassa mchassa aṇagārassa samanassa bhagavao mahavīrassa amtic evamaṭṭham socca nisamma subhchim pariņāmchim pasatthehim ajjhavasanehim lesähim visujjhamanihim tayavaraṇijjhāṇam kammāṇam khaovasameṇam ihāpühama-gganagavesanam karemāṇassa saņņipuvve jāīsarane samuppanne, eyamaṭṭham sammam abhisamei. 14. Angasuttāņi II, Bhagavai, 11.115-171.
15. Senaprasna, ullasa 3, praśna 341:
puvvabhava so picchai ikka do tinni jāva navagam vā.
uvarim tassa avisao sahāvao jaisaranssa..
16. Acaranga Vṛtti, patra 19 : jātismaraṇastu niyamalaḥ samkhyeyāniti.
17. Tamdulaveyāliyam, 39
18. Ibid, p.14 jai vā koi baṇcjjā bhaṇittam bhattarac nam-appa atthi, na tassa lakkhanam uvadittham, bhannai-bhanitam so hamiti, iha nirahamkare sarire jassa imo hamkaro, lam jaha-aham karemi maya kayam aham karissami, eyam tassa lakkhanam jo ahamkaro, bhaṇi-tam appalakkhanam.
19. Sec-Ayaro, 8.5.
20. Angasuttāni II, Bhagavaī, 11.172: tac nam se sudamsane setthi samaneṇam bhagavaya mahavirenam sambhariyapuvvabhave duguṇāṇiya saḍdhasamvege......
21. Ayaro, 5.104-106: je aya se viņṇāyā, je vinna ya se āyā.jena vijānati se ayā.
tam paducca padisamkhaya.
csa ayavadi samiyac-pariyãe viyahite.
See also 5.123-140.
22. Ibid, 2.125.
23. Ibid, 2.159.
24. Ayaro, 'logavijao' biam ajjhayanam: also, Acaranga Niryukti, gatha 175.
25. Ibid, 3.3.
26. Ibid, 3.5
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27. Ibid, 2.190.
28. Angasuttāņi II, Bhagavai, 5.255 ajivchim lokkai pallokkai, jo lokkai se loc? 29. Acaranga Cúrni, p.14.
30. Ayaro, 5.103.
31. 'eyavamti and savvāvamti-these two are words of Magadhi language. The meaning of the word 'eyavāmti' is 'these' and 'savvāvamli' is all. cyāvamtī savvāvamtīti etau dvau sabdau magadhade-śībhāṣāprasiddhaya etavantaḥ sarve, pityetaparyayau. (Acaranga Vṛtti, patra 25)
32. Parijñā is defined thus in Buddhist works
'anāśravaviyogaptcḥ, bhavägravikalikṛteḥ.
hetudvayasamudghatât, parijñā dhātvatikaramāt.... (Abhidhammakosa, 5.68)
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33. Ayaro, 5.41.
34. Ibid, 5.51.
35. Ibid, 5.53.
36. Ibid, 5.55.
37. Ibid, 2.118.
38. Ayaro 2.63.
39. Ibid, 2.64.
40. Ibid, 2.65-69 tam parigijjha dupayam cauppayam abbhijumjiyānam samsimciyānam tivihenam já vi se tattha matta bhavai-appà va bahugā vā.
se tattha gadhie citthai, bhoyaṇāc.
tao se cgaya vipañsiṭṭham sambhūyam ma hogavaranam bhavai.
tam pi se cgaya dayāyā bibhayamti, adattahāro vă se avaharati, rāyāno vă se vilumpamti, passati va se, viņassati vá se, agaradahena va se dajjhai.
iti se parassa aṭṭhāc kūrāim kammāim bāle pakkuvvamāņe teṇa dukkheņa mūḍhe vippariyāsuvei.
41. Ibid, 2.74: bale puna nihe kämasamaṇuņne asamiyadukkhe dukkhi dukkhāṇameva āvaṭṭam anupariyaṭṭai.
42. Acārānga Vṛtti, patra 24: parivamdanam samstavah prasamsa.
43. Acaranga Cūrni, p.16 parivamdanam nāma chattī avilio hohāmi, vaṇņo vă me bhavissai, tena nehamāņi karoti, mallajuddhe vā samgame vä samsarādi balakaram bhottunam niltharissammi tena satte hanati.
44. McDogugall, W: Introduction to Social Psychology, London, Metheun & Co. 45. Freud-The erotic instincts, which are always trying to collect living substance in
to ever larger unitics and the death instincts whichact against that tendency and try to bring living matter back into an inorganic condition. The co-operation and opposition of these two forces produce the phenomena of life to which death puts and end. (Great Books of the Western World, vol. 54, Editor-in-Chief-Robert Maynard Hutching, pp.851).
46. Maslow, A.H. 'Motivation and Personality.' N. Y. Harper.
47. Gită. 4.19:
yasya sarve samārambhāḥ, kāmasamkalpavarjitāḥ.
jñānagnidagdhakarmanam, tamähuḥ, panditam budhah. 48. Acäränga Cürni, p.17. 49. Ibid, p. 17.
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Psychophysiological Essence of Meditation
Dr. J.P.N. Mishra
Being simple yet having impressive evidence meditation brings about positive changes which may alter a person's personality and life profoundly. No doubt it is a powerful intervention. We need to ask a simple question - where this power comes from? What is meditation's secret?
In trying to understand why meditation has the transforming effect it does, we might imagine watching many different streams flowing into one river. The characteristics of the river can be explained only by its volume of water and the direction of the flow. Similarly many, many factors converage in meditation, lending to it their combined power, something that is above and beyond the effects of any single component. While we may consider various explanations for its effectiveness, we must remember that the full experience of meditation is quite different from any of these and that our limited understanding can give only partial answer.
Process of Discharging Negative Emotions
Meditation functions, it may be assumed, like on electrical demagnetizing circuit. When a tape is demagnetized, the electrical charges are removed from it and the tape is wiped clean or become neutralised. It is quite possible that the thoughts and the feelings, which trouble us, are being neutralized by the process of meditation in the similar way.
A psychological view States that if a person is asked to recall distressing thoughts, especially fears, while at the same time he is in a state of deep relaxation, the fears will lose their hold and thoughts about them become converted into objective and relatively nonemotional concerns. It is not possible for a person to be acutely anxious and at the same time deeply relaxed. If we deliberately couple
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relaxation with distressing thoughts, therefore, this can bring about a sharp change in a person's reaction to those thoughts and this change may be more or less permanent in its effect. The process by which this is done is called 'Systematic Desensitization'. In this form of behaviour therapy the person is deliberately presented with the distressing thoughts (and sometimes with the actual distressing situation) while he is in a state of deep muscle relaxation. This process is accomplished in small increments and may take many sessions to complete but it can overcome deep-seated fears and phobias in some people.
Daniel Goleman, a renowned psychologist has suggested that meditation may be a highly effective densensitization process which work much the same way as systematic desensitization except that it is much wider in its scope and under complete control of the meditator - no therapist is needed for it to work. He calls this process 'Global Desensitization' to indicate its all - inclusive nature (1). He has noted that when distressing thoughts and images float unbidden through the mind of a meditator, these typically occur in the deeply relaxed meditative state, and has suggested that this natural linking of distressing thoughts with deep physical calm makes the disturbing thoughts loose their emotional charge.
This concept coincides with the views of most of the therapists and scientists working in the field of meditation, which states that mediator will often report that in a particular meditation session thoughts of a disturbing nature have passed through their mind, sometimes with great vividness, but that somehow they were able to remain calm despite the unpleasantness of these thoughts. After such a session the disturbing thoughts or fears seemed no longer to 'bother them' the same way. Something has happened. Meditation may well have acted to desensitize the individual who reports such experiences.
Microcosm of Psychic Action and Meditation
A living organism is an organic unity of two elements - a nonmaterial conscious element called 'Psyche' or soul, and a material element called body, as per the view of spiritualistic philosophy. Acharya Mahaprajna opines that the organism is circumscribed by the limits of the gross body, sense-organs and brain, a subtle taijasa sarira, a more subtle karma sarira, conscious mind (chitta), psychical expression (adhyavasaya), and finally the psyche or the soul itself (2). The soul itself i.e. conscious substance (dravyaatma) forms the nucleus of the organism, which is surrounded by an envelope of contaminating field producing malevolence (kasaya) created by karma sarira. Adhyavasaya, the primal drives, are processed by all living organisms and are the prime movers of the three fold activities - mental, vocal and physical, to be manifested later on in the gross physical body.
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Microwawes of urges and impulses cross the border between the subtle body and the gross body. These compulsive forces, originating in the subtle body, first effect the endocrine system when they reach the physical body and compel the latter to secrete and distribute chemical messengers (hormones), suitable and corresponding to the nature and intensity of the impulses. Thus the hormones become the agents for executing the orders of primal drives in the physical body. The chemical messengers secreted by the endocrines use blood circulation as their transport medium and interact with central and peripheral nervous system. Together they constitute an integral coordinating system known as neuro-endocrine system. This system controls and regulates not only bodily functions but also profoundly influences mental states, emotions, thought, speech and behavioural patterns of the individual. Meditation influences the route of analysis in the brain there by influencing the neuro-endrocrine pathway. This in-turn results in altered psychological function. Modified mental and emotional state brings about significant changes in behavioural patterns of an individual. The whole mechanism of change comes under the domain of psycho-neuro-endocrine system. This acts as transformer between the most subtle spiritual self and gross physical body and this may be attributed to meditation itself.
Balancing the Brain Hemispheres
One of the most important characteristics of meditation is a change in cognitive (thinking) style. During Meditation, the verbal, logical 'self' that reasons in orderly sequences and is highly aware of the passing of time seems to more into the background, and is replaced by a different áselfâ - one that we usually encounter only under special circumstances such as the period just before we fall asleep, when our mind drift among images and impressions whose content and meaning we feel or know only intuitively. The self we know during meditation operates in a dim but intimate world, removed from considerations of time and involvement with past or future. Our 'interior speech', that ever-present running stream of words that occupies our thinking during regular activity, is now either stilled or relegated to a background role. In the meditative sphere of our being, images and an awareness of space are often the most real aspects of our experience.
Scientific researches has shown that verbal, logical, time - linked thinking is usually processed through the left side of the brain in right-handed persons (3), and that this 'left hemispheric', more predominant type of thinking seems to be lessened during meditation (4). Holistic, intuitive, wordless thinking, the kind that is usually processed through the right-side of the brain, seems however, to come to the fore when we meditate. The regular practice of meditation may therefore create a greater balance between the two hemispheres of the brain by righting a skewed balance. In our fast
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moving society the logical left hemisphere carries most of the workload - we are called upon to be very rational most of the time - while the use of intuition is generally down graded. Meditation may correct this imbalance.
Reduction of Sensory Overload
It is obvious to anyone who meditates that the process of meditation reduces the intrusive effect of the external world. Sight, sound and touch become relatively unimportant as we focus on our chosen object of meditation, whether this be a mantra a candleflame, the sensations of our own breathing, or some other repetitive or unchanging stimulus. As we engage with our chosen focus of meditation, our inner world comes to the fore as the outer world recedes (4). What effect does this have on us? The answer may lie in what happens when human beings are bombarded by stimuli. Too much stimulation can be annoying and, carried to an extreme, overstimulation can seriously break down the adequacy of our mental or physical functioning. The strategies of the third degree' and of 'brain washing' are based on this principle. If someone is kept overstimulated by constant bombardment with intense lights, sounds or sense impressions for hours on end, day after day, the clarity of his/her thinking processes eventually deteriorates. At this point people often become susceptible to suggestions or willing to comply with demands which, in a more rational state, they would reject. With overstimulation our normal tendency to withdraw from tense stimuli seems to be dulled. At this point instead of withdrawing from excitement, we may actually reach for more. The tendency to drive towards higher pitch of excitement and to more exhausting levels of stimulation is one reason why meditation is beginning to be looked upon favorably by so many people in the modern world. We may sense that we are being caught in a trend which, unless we stop it, may continue until we drop in our tracks.
One of the most effective ways for us to re-establish a balance between too little and too great an amount of stimulation may be to meditate. If meditation restores us to a state of inner balance with respect to the adjustment of our stimulation level, its effects upon our health, both physical and mental, are highly beneficial.
Meditation Restores Natural Rhythms
Although during meditation we withdraw from our awareness of external things, when we meditate we do not retreat into a mere absence of external stimulation, but into the presence of something else. When one level of stimulation is removed - that of the world which often acts on us in ways convenient to it rather than to us - we are released to sense more subtle forms of stimulation. In the quiet of the meditative state, we may become attuned to the voices of the body which are ordinarily obscured by waking activity, Meditation seems to be the only natural state which is sufficiently still, and at the same time sufficiently alert so that when we are in it we can clearly perceive
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our own inner rhythms. People often report that during meditation they hear the beating of their own hearts or sense their breathing as a compelling occurrence, or sense other minute and delicate bodily processes usually obscured by activity (5).
might compare our insensitivity to bodily processes when active to our inability in the daytime to perceive stars in the sky. Although they are present twenty four hours a day, we can not see them when the sun is up because its brilliant light obscures them. When the sun sets, however, the far more subtle light of the celestial bodies are readily seen and it is as though a host of stars had 'appcared in the sky. So it is with meditation, which removes us from the bright light of the activity to the softer light or inner awareness-away from one level of perception toward an entirely different one. When we ccase to perceive ourselves in active interaction with the world, we are set free to see ourselves in one rhythmic livingness.
Harmony of the Hormonal Profile
The endocrine glands, whose secretions are known as 'harmones', are the tuning keys that tighten or lighten up the driving force of organism. They are, therefore, the psychic centers. They form a system, often called Endocrime Orchestra, and function in the form of chain (6). The system is inter-related by chemical processes and interlocked with brain and nervous system. Our thoughts affect the endocrines as the latter also influence our brain and mind. Practice of meditation restorcs equilibrium in the endocrine system to strengthen the power of reasoning mind and weaken the forces of primal urges. In the system of Preksha Meditation very specific emphasis is laid on perception of psychic centers, which lcads blissful tranquil state along with altitudinal changes through the route of conscious and subconscious mind.
References 1. D. Goleman, 'Meditation as Mela c therapy : Hypothesis toward a proposed fifth state
of consciousness'. Jl. of Transpersonal Psychology, 3 (1971), pp. 1-25. 2. Acharya Mahaprajna, 'Prekshadhyan : Theory and Practice', J.V.B. Publication,
Ladnun, Rajasthan (India) 3. J.B. Earlc, Cerebral laterality and meditation : A review of the literature', Jl. of
Transpersonal Psychology, 13 (1981), pp. 153 73. 4. R.W. Sperry, 'The great cerebral commissure', Scientific American (January, 1964),
pp æ 42-52. 5. P. Carringlon, 'Why does meditation work', In the Book of Meditation', Element
Books (Pub), USA. pp. 283-297. 6. Muni Mahendra Kumar, 'Raison Dâctre of Preksha Dhyan', in 'Prokshadhyan: Theory
and Practice', JVB, Ladnun (Rajasthan) India.
Associate Professor Deptt. of Science of Living, Preksha Meditation & Yoga JVBI, Ladnun-341 306 (Rajasthan)
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Eternal values for Divine Society
The nature of man is such as to urge him to participate in the fulness of life, to be receptive of the significant and to lie open to whatever has meaning and value. Fortunately, our country has a cultural heritage which is at least five thousands years old and quite a few of its elements have been widely appreciated and acclaimed. There is a common belief, that Indian tradition is out and out spiritual in nature. And, the history of India would remain enigmatic, particularly, the remarkable phenomenon of the continuity of Indian culture through the millennia would remain a mystery, if we do not take into account the role that spirituality has played not only in determining the direction of her philosophical and cultural effort but also in replenishing the springs of corcativity at every crucial hour in the long and often many journey. It is true that spirituality has played a role in every civilization and that no culture can claim a monopoly for spirituality. And yet, it can safely be affirmed that the unique greatness and continuity of Indian culture can be traced to her imparalleled experimentation, discovery and achievement in the vast field of spirituality. Indian culture has recognised spirituality not only as the supreme accupation of man but also as his all integrating accupation. Ancient visionary seers and saints have expouned the universal and eternal values playing a role of beacon in the midst of darkness and helps one to perform his worldly duties in harmony and attain the highest goal prescribed for human being.
Dr. Anil Dhar
Thus, quest after values and the attainment of these constitute the very core of human life. There is an innate necessity in man, caused by his finitude and imperfection to participate in the process of value-realisation. That is why consciously or unconsciously value - concepts, value discrimination and value judgement feature prominently in his life. Infact, values occupy a pivotal role in human life. Values are described as the socially defined desires and goals that are internalised through the process of conditioning, learning and socialization. Values are goals set for achievements and they motivate,
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define and color all our activities cognitive and affective. Eternal ideals and values profounded ages ago like of non-violence, truth, nonstealing, chastity, non-possession, love, compassion, purity, simplicity etc. etc. Out of these the first five one are the basic of the foundation of morality and value realization and, in fact, are more relevant to the present times.
The principle of non-violence is existent all over in Vedic, Jaina and Buddhist scriptures. It has been stressed by religious exponents, social reformers and political leaders, and above all it has been accepted as important from the point of view of one's ownself. Thus, it is religiously, ethically, socially, politically and psychologically important and necessary. The instinct of love, sympathy or 'Karma' Iconfussion) furnishes the basis of nonviolence. In-fact, it is essential for an individual as a member of a family, as a member of the society, as a member of a nation and as a member of the whole universe.
Schopenhaner has laid that non-violence is non-hate or absence of hatred, that is in positive sense sympathy or love. Absence of hatred promote love, which is the source of unification of different individuals. Further, it is a fact of common experience that hatred retards the common development of both the mind and the body of the individual, while love makes them bloom forth in their natural splendour in the lover. And to this culture of hatred there is no antidote except the practice of love, compassion, equanimity etc.
There are certain peaks of development of the concept of non-violence, and can be traced from the vedic times down to the times of Buddha, Mahavira and Gandhi, and its extreme can be noticed in Jainism. The entire Jaina religious and philosophical system is founed on non-violence. The essence of knowledge, lies in non-killing which is the supreme principle laid by the omniscients. The principle of non-violence is the principle of equality, of 'samta' as has been pointed out, 'samta' is the basis of all morality, philosophy and logic of Jaina thought and prevails all over system. Samta is that no one is inferior or superior, everybody has the potentiality to develop himself and can achieve the highest goal. One's behaviour should be such that it does not retard the development or injure the physical, mental, or intellectual vitality of life of others.
In the intellectual or the philosophical field too, Jainism propound the theory of 'Anekant', which means that every judgement is relative. This theory in brief, expresses the view that every judgement reveals only one aspect of reality, and therefore every judgement is relative and subject to certain conditions. It is because one forgets this limitation and regards his own judgements as unconditionally true, that he indulges in number of quarrels and disagreements and thus hurts the feelings of those who have a different view of reality. ‘Anekant' purifies the thinking. It invites to do away
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evil thoughts and to cultivate good thoughts. The importance of this comprehensive synthesis of 'Anekant' in day to day life is immense in as much as these doctrines supply a rational unification and synthesis of the manifold and rejects the assertions of bare absolutes. The moment one begins to consider the angle from which a contrary view-point is put forward, one begins to develop tolerance, which is the basic requirement of the practice of non-violence. Origin of all bloody war fought on the surface of this earth can be traced to the war of ideas and beliefs. 'Anekant' puts healing touch at the root of human psyche and tries to stop the war of bloodshed. It makes all absolutes in the field of the thought quite irrelevant and naive, imports maturity to the thought process and supplies flexibility and originality to human mind, which in return helps the individual, society nation to become conflict-free. And, only in this type of environment and atmospheare a person can use his potentiality to attain the supreme goal.
The term 'truth' has got varied implications. It is derived from 'sat? and 'sat' is more often understood in the sense of ultimate Reality. It is that which is never destroyed or destroyable. But some time 'sat' also means a general adjective goodness, virtue and chastity; beside this, it means genuine, honest, sincere and faithful etc. It is considered the true essense of the whole universe is even more profound than the ocean and more stable than Mt. Meru. This, as is apparent in the metaphysical truth and understood as highly important in the Jaina scriptures. As a moral principle also it is considered very significant.
Truth, it is said, does not only pertain to our faculty of speech but to mind and body as well. Only that truth in speech is called truth which is coherent with body and mind, as it is sometimes said that the origin of truth lies not in the mouth but in the heart. Truth, in the systems of Indian philosophy is one of the top ranking tenents of morality. Its validity and universality can be realized as a basic principle of life.
In the modern era, Gandhiji is one of the biggest exponents of truth. The remarkable thing about him is his application of truth, not only in his personal life, but in political life too with remarkable success, which is his unique contribution. The concept of 'satyagraha' is Gandhi's contribution to international politics, which means nothing but holding to or sticking to the principle of truth. About the results of this programme of 'satyagraha', which Gandhi applied against the untruthful regime of British, nothing is needed to be said as every thing is known. Today even, this application of the principle of truth has an extreme potentiality in itself. For the cultivation of which certain basic defects such as fear, selfishness greed and cowardice are needed to be checked.
The ethical principle of non-stealing is actually based on the first and foremost principle of non-violence. Whether stealing is understood in the
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sense of a crime or in the sense of a sin, the virtue of non-stealing fundamentally originates in non-violence either in the positive sense of maintenance of social order or in the negative sense of abstinence from hurting others by way of depriving them of their property or other necessary belongings. But it is only limited or restricted non-violence pertaining to human beings and not to all living creatures. One who observes this precept has a very strong or healthy feeling of social welfare, (which is rooted in non-violence, love and sympathy) it is therefore not only negative but positive as well.
Its importance has been pronounced by all major schools of thoughts for the all aspects of life, in this life and the lives beyond. In Jainism the principle of non-stealing is a moral principle only because it indicates the principle of non-violence. Stealing is also violence, because it hurts both apparent and real vitalities of the person whose wealth is stolen, which maintains the mental as well as physical equipoise of him. Any thing taken ungricess with attachment or inadvertence is stealing. Abstinence from this is non-stealing. It has been laid down that, if you really want to obtain spiritual happiness and to preserve your moral life, fame and character, and above all want to attain the supreme happiness in this life, and the life after, never get entangled in the net of stealing. One, who really desires riddence from this embroilment, never takes anything ungiven.
For understanding properly the precept of non-stealing in practical conditions, five major transgressions are mentioned in the scriptures. These are: (i) Buying a stolen article or property, (ii) imparting instruction on the method of committing a theft, or engaging theives, (iii) evading the civil laws and political laws, (iv) adulteration and selling impure commodities and deceiving the customer and (v) keeping false weights and measures. In these five heads come all the modern businessmen's tacts, of wrong sampling, reducing the quality of the product, getting involved in summggling markets, buying smuggled goods, helping the smugglers etc. It can be said that nonstealing (stealing either taken in the sense of a crime or a sin) has been regarded important virtue in Indian tradition ever since the time of Vedas, and is one of the most accepted moral tenents of all civilizations, in a certain sense it is made more important than non-violence because it directly deals with social morality.
One of the significant moral precept is sexual or sensual restraint. This value of divine deed is prevalent in entire Indian religious system. The term 'brahmacarya' however, is most popular. The reason for its popularity lies in its very connotation and literal meaning which is comprehensive enough to include in itself all allied moral principles, primary and secondary. 'Brahmacarya', as it is known, means control or complete renunciation of sexual or sensual desires but this is only what it conventionally means. It is a
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combination of two terms 'Brahman' and 'carya'. 'Brahman' in brief means the ultimate reality, the supreme being, the ultimate or the final truth in the sense of the highest good or ideal and 'carya' means code of conduct or way of living. The combined term 'brahmacarya' thus means code of conduct, actions, or movement in quest of true 'Brhman' or the ultimate truth. The ideal of 'brahmacarya' is therefore, the attainment of the final goal of ultimate truth by eradicating wrong and superficial notions or ideas and airiding wrong actions. In this sense, it has a close relationship with the principle of truth as a moral and metaphysical principle as sexual or sensual desire becomes a hindrance to the achievement of final goal. It is an established fact that sex restraint would give power and energy to a person which can be applied to various other projects.
In Jainism, the term of 'brahmacarya' indicates all relevant virtues which are auxiliary to liberation. In general, therefore, it means the means of liberation, but as a precept its field has been restricted to abstention from sexual indulgence, since sex is considered a major hindrance to liberation because like other vows, this vow of 'brahmacarya' too is dependent on the vow of non-violence. It is asserted in various texts that the vow is rooted in the vow of non-violence, and sex desire and sex indulgence are also explained as an act of violence.. The vow is therefore a corollary of the vow of nonviolence; though the value of 'brahmacarya' is much emphasized because the very institution of asceticism is dependent on it, asceticism is futile in itself without the implementation of celibacy. Actually there are only two strong tenets of asceticism, viz. non-violence and celibacy. With this concept of ábrahmacaryaâ based on non-violence, its glory is pronounced in the scriptures in various places. It is said that all gods, demons and satans, etc., show respect for him who observes 'brahmacarya', which is very severe and painstaking.
However, the institution of marriage occupies an important place in the whole of Indian culture and religion, though it may appear as contrary to the principle of 'brahmacarya'. But, an historiacal account of the institution of marriage, its aim and development, is very necessary and important in the sense that it gives an idea of relative social habits in different times and cultures, and also an idea of different ethical standards in different times. Marriage in itself is not an instinct, but an institution based on the instinct or the need. It is a symbol of development of the advanced human make up, which manifests the fulfilment of the basic desire of sex in a controlled and channelized form and stoppage of anti-social outburst of this desire. A person is supposed to be faithful to his own wife both physically and mentally, he should not think of any other women, It is said that if you speak to a woman, do it with pureness of heart say to yourself, placed in this sinful world, let me be a spotless lily, unsoiled by the more in which it grows, is she old,
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regard her as your mother, is she honourable as your sister, is she of small account as your younger sister; is she a child, treat her with reverence and politeness. In this age of free-sex the demographical problems, several discases like AIDS etc., etc. this concept of chastity or controlled chastity plays a role of light tower to the passionate and lustfull psersons and restless world.
The fifth significant value of 'non-possession' is one of the basic values propounded in the traditional Indian system and has the equal importance in the different schools of thought. 'Non-possession' which is usually translated as 'aprigraha'. The term 'prigraha' is the opposite of the 'aparigraha', and is constituted of two terms, i.e. 'pari' and 'graha'. 'Graha' is rooted in 'grahana' which means to take hold of, taking or accepting or receiving something. 'Pari' means round or round about abundantly, richly, but it is usually used to express fullness of high degree. Thus, parigraha means acceptance, or taking or receiving gifts or other worldly possessions, 'Aparigraha' means abstention from taking possession, or refusal to master or overpower. The concept relates to renunciation and refers to the absence of desire to keep possessions. Basically, real parigraha arouses from within, it pertains more to thoughts and attitude than to objects and thus is inseparably associated with violence. It is said that one who has attachment to land and other objects, money, gold and silver, cattle and horses, servants, wife and other relatives, and is obstructed by such desires is to face the dangerous calamities just as a boat with a small hole in it is ultimatelly to face disorders.
But it is non-practical for one to abstain himself from the possessions, as he has to make sure of his maintenances, for the maintenance of his family and for a normal living in the society. Eventhough, it is very much possible for him to observe this value in part in his daily life. The duty of the householder lies in limiting all his possessions and consequently controlling his limitless desire to possess more and more. It is in this sense of limitation of possessions that it is called the vow of partial limitation of possession or abstention from major possessions which are endless, as the desires are endless. The laity's vow of 'aparigraha' thus can be referred such as smaller vow of non-possession. aimitation of possessions, abstention from major kinds of possession and as Gandhi said, limitation of desires which implies both a limitation of desires as well as a spirit of generosity.
To conclude, it is necessary to say that behind the limitation of desires the essential quality of aparigraha - there works a self-imposed socialistic spirit. Though it makes room for the fulfilment of the needs, it requires desires to be controlled. Here an apparent resemblance can be discovered between 'aprigraha' and the communist belief that every one should be equal economically, and that one should be given according to ones needs and not according to one's desires; for the staunch communists this ideal of economic equality is to be achieved by bloody revolution. However, the two ideologies
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dcast 'parigraha' and a cconomic equality, cannot be assimilated to a great extent, but it can be said at the outset that the former would function in a definitely better way than the latter if applied at all, because voluntariners always works better than force. But at the same time one can very well imagine the picture of the new society, which would certainly be different from that of the present society. Here, as the precept declares, the ideal of the householder is lo curtail his desires, limit his possessions and try to remain satisfied with what he has and not always to strike for newer and newer achievement in terms of physical, social, economic and industrial development. For the moral way of living in society, partial vow of nonpossession of the laity is incvitably necessary. Even from social point of view in the modern world partial non-possession or limited possession would be great blessing, specially in developing or under-developed countries like India. These moral principles, which have been guiding human behaviour for thousands of ycars, may still remain potential for establishing the 'Divine Society'.
Associate Professor Department of Non-violence & Peace JVBI, Ladnun-341 306 (Rajasthan)
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Role of Jeevan Vigyan (Science of Living) in transformation of Human Personality
S.C. Jain Adviser (Research & Academics)
Nature and scope
Science of living (Jeevan Vigyan ) is crucial for the all-round development of human personality. It is a unique experiment in the field of education. It lays much greater emphasis on practice and experimentation. Its nature and scope revolves around the bas problems of modern education including the problem of growing erosion of human values. For the revival of human values in the society and for the harmonious development of human personality, it has designed a conceptual framework on scientific lines. According to the framwork of Jeevan Vigyan (Science of Living), four factors, namely human mind, speech, body, and breath, play a valuable role in shaping the personality of an individual in a positive and integrated form. If these four factors work in a positive, balanced and integrated manner, the human personality is bound to develop in an integrated manner. On the contrary, if these factors are unbalanced or diseased, the personality of an individual will face mal-adjustment and unhealthy development. In other words, for the all-round development of human personality, the balanced coordination and perfect harmony between the mind, speech, body and breath is essential according to the approach of Jeevan Vigyan. Experiments and practical activities of Jeevan Vigyan give high priority to deep breathing and correct processes of inhaling, retention and exhaling of breath. This helps very significantly in the transformation of human personality and behaviour towards positive direction.
Another important factor of the frame of work, Jeevan Vigyan, which needs to be mentioned, is that there are three crucial centres
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in our body namely Pran Kendra. (The centre of the life force), Darshan Kendra (The centre of intuition), Jyoti Kendra : (The centre of controlling and disciplining the temperament). The Pran Kendra is located on the tip of the nose, Darshan Kendra at the middle point between the eyebrows and Jyoti Kendra in the middle of forehead. These three are primarily responsible for the development of life force, the development of intuition and the development of self discipline respectively. It is only when these three developments take place, an independent and integrated personality develops. The master controller or governor is the hypothalamus, which controls even the pineal, which in turn controls the pituitary.
The predominant aspect of the process of Jeevan Vigyan is the effort to make body, breath, speech and mind refined and well trained. The process of training consists of four parts namely (i) Preksha : (Carefully and profoundly perceiving), (ii)Anupreksha (a Contemplation), (iii:) Kayorsarga (Total relaxation) and (iv) Spiritual vigilance (Awakening of the consciousness and observing constant alertness). These four ways together constitute the contents of Jeevan Vigyan and exercise a potent role in the transformation of human personality. It is through these four basic steps that an individual can enrich and intensify his consciousness and energy and can ensure total harmony and integrated working relationship between basic elements.
Jeevan Vigyan places stress on the refinement of outlook, refinement; of behaviour, and refinement of feelings. The refinement is achieved by concentrating on the hypothalamus first which refines the secretions of endocrine glands, which in turn, refines the outlook, behaviour, feelings and attitudes. Thus Jeevan Vigyan revolves around following four aspects:
The balance of vital force. 2. Establishment of biological balance. 3. Creation of faith in the infinite powers and potentialities of the individual. 4. Refinement of outlook behaviour, feelings and attitudes including emotions.
These four aspects, combined together, are able to provide positive directions for the all-round development of human personality. In other words, Jeevan Vigyan activates the inner faculties of the individual, the inner potential is fortified and thus brings about an overall and balanced development of the personality.
The foremost element of Jeevan Vigyan is the flow of regulated life force. The development and practice of right kind of techniques for breathing in and out is essential for the growth of mind and for attaining an emotional balance. Surya-nadi (right nostril) generates anxiety and heat. In contrast, the Chandra-nadi (let nostril) promotes quietness and coolness. The Sushumna-nadi strikes a delicate balance between these two opposite sets of life breath. These are called sympathetic and para-sympathetic nervous system respectively. When the right side of breath mechanism is abnormally
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active, it promotes the possibilites of irresponsibility, violence and aggression. On the other hand, when the left nostril is extra active the human being suffers from the feelings of weakness, inferiority and fear. In order to have an integrated and balanced development, it is, therefore, cssential to achicve a balance between the two sets of life breath, Unless and until, we are able to have a balanced flow of these two kinds of breaths, it would not be possible to have disciplined children having right conduct and being capable of realizing
the dreams of their parents and countrymen. Thus for a harmonious · development of personality, it is essential that children should have the practice of right breathing.
These are two parts of human brain, namely left hemisphere. The left side of the brain assists in the learning of logic, mathematics, languages, sciences, etc., while the right side of the brain promotes mental and emotional development, which enables an individual to raise the level of internal awareness and consciousness. Excessive growth of one part of the brain to the utter neglect of the other part leads to the unbalanced growth of mind. It is Jeevan Vigyan which establishes balance between the growth of both the parts of the brain. Transformation of thoughts, attitudes and emotions
An essential condition for the modification of conduct and behaviour is the change in the attitudes and emotions. The dream of creating a disciplined and matured society cannot be realized unless there is an all out effort to transform negative attitudes and emotions into positive ones. The secretions from hypothalamus and pineal gland determine the quality of our attitudes, thoughts and emotions. Pineal and pituitary glands, particularly, influence the adrenal glands which in turn determines the quality of character and conduct. Thus the secretions realized by hypothalamus, pituitary and pineal glands can optimally be regulated to guide the formation of positive attitudes and to refine emotions leading to a balanced and harmonious personality.
Another significant factor which influences attitudinal and emotional behaviour is the external environment and the situations which generate four kinds of imbalances (1) imbalanced life breath (2) imbalanced life style (3) lack of awareness about one's own capacities, and (4) the feeling of inferiority complex. The way in which fuel generates fire, in the same manner, the adverse external situations and circumstances enhance the negative and destructive emotions and feelings. Overcoming of the disorderliness created by the above imbalances, through restoration of balance between various secretions, can lead to the creation of a new human being capable of facing adverse circumstances in his life successfully and peacefully and he would be imbibing values in his behaviour.
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Subtle regulation of body, mind, speech and breath
The essence of education imparted through the medium of Science of Living : (Jeevan Vigyan) lies in the training and subtle regulation of mind, speech, body and breath. So long as we do not comprehensively understand the significance of these fundamental elements, we shall not be able to have balanced flow of breath and balanced life style and shall remain unaware of ourinfinite capacities. Hence complete balance between body, mind, speech and breath is essential, for the development of an integrated personality. A disciplined mind in a disciplined body
It is impossible to have a disciplined mind and speech in the absence of a disciplined body. If various parts of body such as heart, lungs, liver etc. are not healthy, how can the body be healthy? The functioning of the mind and body is so intimately interrelated that one can expect to be healthy only as long as the other is healthy. A healthy body is, therefore, essential for the development of a disciplined mind and an integrated personality. One of the important features of education for Science of Living (Jeevan Vigyan) is the development of a healthy body. Yogic exercises, right postures and forms. therefore, occupy a central place in promoting the health. Imparting of education in yogic exercises, right postures and related practices helps the children in building a flexible body, healthy flow of blood, sound digestion system and balanced flow of breath. Flow of adequate blood to brain helps in building up sound mind and a sound body. Science of Living (Jeevan Vigyan) deals with these experiments on the body and lays stress on their significance. Comprehensive and intensive knowledge of the functioning of various parts of the body is also essential for having sound health. Science of Living (Jeevan Vigyan) attempts to provide information to children on these aspects. Balanced food and correct breathing are equally necessary for the sound health. A healthy mind, balanced breath and sound speech are essential for a sound body and these form part of the personality of an individual. Right direction to Thought Process and Mental Development
A sound body, sweet speech and healthy mind pave the way for growth of balanced thought amongst the children. To begin with, the parents have to perform the crucial role of encouraging their children to follow the right path. The human mind has unlimited strengths and potentialities. In the absence of correct vision, positive feelings and right conduct, potencies of the mind remain unutilized and eventually get degenerated. It is, therefore, essential to provide a direction to the mind so that it remains positively occupied and is able to identify the correct vision of society.
Three important functions of mind are remembrance (memory), contemplation and imagination. However, if the mind gets agitated and
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perturbed, it becomes incapable of taking any right decision. Consequently, one lands in a directionless and purposeless state. The essential purpose of the Science of Living is to give right direction to the mind. Attending to one task at one point of time, helps in completing that task efficiently. Attending to several tasks together at the same time Affects the productivity of efforts. The Science of Living therefore, endeavors to impart knowledge regarding situations where the students could observe silence or make use of right kind of speech.
Balance between Knowledge and Energy
Knowledge and energy are two important sources of life force. Balanced flow of life force can be achieved only if there is a balance between knowledge and energy. Energy alone is destructive and knowledge alone is unimportant. In order to strike a right balance between knowledge and energy, it is essential to have a balance in the life force. The activity of journey within can help in achieving balanced life force. During this activity the children are as sit in 'Kayotsarg Asana' with a peaceful and relaxed state of mind.
They are guided to undertake a journey within the body between the energy centre and the intelligence centre. This process helps in developing a balance between sympathetic and para-sympathetic nervous system. In the language of Science of Living, the life force coming through Surya-nadi and Chandra-nadi comes with a right balance and begins to flow smoothly through the spinal cord and other parts of the body. This leads to the growth of awareness. The efficiency level of children also improves in the process. Perception of breath, perception of inhaling and exhaling and increased awareness of intelligence centre are some of the activities in Preksha Dhyan, which serves as effective medium of developing a balanced mind. Harmonic balance and optimal secretion from pituitary gland is essential for achieving balanced mind. For achieving this, the students are guided to focus their attention on various colors and at various points in the body. This process helps the children in emotional transformation and modification of attitudes towards positive directions.
Correct breathing: The essence of life
Another important element of the Science of Living is 'Pranayam'. Breathing is vital to our life and existence. No one can live without breathing. It is of utmost importance. Therefore, to educate our children in the art and science of correct breathing is essential.
The predominant function of breathing is the generation of life force in the body. The life force is generated with the combustion of oxygen and glucose, derived from the food, which we consume. Thus, in order to stay healthy, it is essential that the life force gets generated in a balanced manner.
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Further, the life force should be used judicially. The final stage in this cycle is that the body should be able to recoup the energy spent. Recouping of energy is as essential as its generation. Hard work and sustained efforts should always be followed by relaxation to the body and the mind. There are two ways of providing rest to the body and the mind namely: (a) 'Kayotsarg' and (b) sleep. The Science of Living gives training in respect of both the processes.
Another important function of breathing is to regulate and guide our natural tendencies and inclinations. Short and shallow breaths lead to negative feelings like anger, pride, arrogance, conceit, greed, jealousy and conflict while, long and deep breathing works significantly towards the weakening of these negative feelings and emotions and helps in awakening of conscience. The Science of Living attaches very high significance to the activity of long and deep breathing. The activities in Preksha meditation give high priority to deep breathing and correct processes of inhaling, retention and exhaling of breath. Practice of breathing exercises invariably helps in the transformation of the fundamental nature and temperament of children towards positive and ethical directions.
THE SEVEN POINT STRATEGY
Jeevan Vigyan has therefore adopted the following Seven-point strategy for developing an integrated personality of an individual.
1. Yogasanas
Physical fitness of its members is the first essential requirement of a healthy and happy society. Yogic physical exercises are prescribed for keeping a healthy diseaseless body and for keeping perfect balance in body movement and maintaining its elasticity. These exercises are highly instrumental in promoting perfect absorption of nutrients taken with food and maintaining regular body movements to extricate the unabsorbed material. This keeps the digestive system of the body in perfect order which is the basic characteristic of a healthy physique. Thus through regular practice of Yogic Asanas, postures and exercises, we are able to achieve balanced secretions from various glands in the human system. These secretions are also responsible for generating positive thinking and stable temperament in an individual. It also promotes smooth flow of blood and a healthy flow of breath.
Particular 'Asanas' are recommended for meditation purpose like the full lotus posture (Padamasana) half lotus posture (Ardh-padamasana), Simple crossed legged posture Sukhasana) the diamond posture (Vajrasana). These postures help in mental concentration and smooth flow of energy through the nervous system, which is a predominent ingredient of human personality.
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2. Yogic Mudras
Practice of different postures of the body with palms and fingers kept at particular angles and combination (mudras) is necessary for achieving mental concentration and generating positive thinking. The postures (Mudras) are a great help to memory, mental clarity as also to positive thinking. These are of two types:
(i) Jnan-Mudra (Gyan-Mudra): This posture is recommended for activating the nervous system for promoting and energizing the learning and assimilating processes.
(ii) Brahma Mudra: This posture involves keeping of the left hand palm under the right hand palm and putting both the hands in lap while sitting in one of three postures mentioned above. This position enables one to sit in meditation for long periods. While practicing these Mudras, eyes should be kept softly closed. (iii) Pranayam (Breathing Exercise)
Conscious control and regulation of breath is called 'Pranayam'. It is an exercise in regulating the breath to generate maximum energy and achieve concentration of mind. It leads to strengthening the determination power and manifold increase in will power i.e. (Sankalp Shakti). It also generates control over the autonomous nervous system.
The 'Pranayam' has to be practiced in its various modifications under a trained yogic teacher. If properly practiced daily for 10-15 minutes, it leads to emotional stability, mental concentration and attainment of self-confidence.
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4. Kayotsarg
It is an exercise in complete relaxation of mind and body making them free from physical (Muscular), mental (Nervous) and emotional stress. In 'Kayotsarg', total relaxation is practiced with full awareness and detachment through autosuggestion. It starts with total cessation of all voluntary movements of body. All tensions are drained out and the cellular structure of the body is revitalized and rejuvenated. It may be explained as relaxation with self-awareness producing alpha level in brain even in awakened state.
5. 'Prekhsa Dhyan' (Meditation Technique)
It is a process of awakening one's reasoning mind ('Viveka') to control passions and emotions. It is the master technique of seeing one's inner self by concentrating on perception (inner phenomena of consciousness) rather than on thought. This process of self-observation reveals the mysterics of unconscious mind. This results in equilibrium of the neuro-endocrine system. Self perception moves the mind from gross to subtle and makes it
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aware of the chemical, bio-electrical and magnetic energy in the nervous system. Simultaneous perception of diversity of individual parts of the human body and its organic unity results in the integration of personality wherein sympathetic and parasympathetic systems are kept in perfect balance with each other. Preksha Meditation is practiced for perceiving and realizing the deepest and highest levels of consciousness by conscious of mind.
A humming sound through nostrils like the buzzing of bee is to be produced to prepare yourself for meditation. This is called 'Mahaprana Dhwani'. It liberates the brain from surrounding tensions and brings it in tune with the resolve to practice meditation for the purification of mind (Psyche).
6. 'Anupreksha' (Contemplation & Auto-suggestion)
Through the practice of 'Anupreksha' an effort is made to inculcate Values in students' behaviour. It seeks to generate in the individual a deeprooted awareness of social, moral and spiritual values which are the distinguishing traits of a human being, when compared with an animal. The technique used in the training is called 'Anupreksha' (A process of contemplation and auto-suggestion) involving practice of concentration on psychic centres to control and regulate the breathing process to imbibe important values of life like sense of duty, truthfulness, fearlessness, patience, patriorism, honesty, freedom from envy, jealousy, and other negative traits. This may be described as therapautic thinking through autosuggestion for imbibing values through concentrated repetition of autosuggestion for reaching the subconscious mind.
Through the medium of 'Anupreksha' and perception, an attempt is made to sow the seeds of positive values and right conduct amongst children. Continuous and sustained practice over a long period of time can be instrumental in giving birth to the following positive qualities:
Devotion to duty Self reliance-Self confidence Truthfulness Equanimity Co-existence-Co operation Secularism and Nationalism Patience Stability and balance of mind Honesty Freedom from greed and fear Self Discipline Feeling of friendship Will power and determination
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On imbibing the above qualities, an individual will be at peace with himself and his surroundings. His contacts with others will also radiate positive signals for the all-round benefit of all.
7. Leshya Dhyan (Awareness and regulation of deep-rooted characteristics & involuntary inclinations of the self)
Leshya is a basic characteristic of an individual formed through the interaction of micro-vibrations and primal thought force producing matching secretions in the endocrine system generating feelings & urges demanding satisfaction through negative or positive actions. Natural Inclination (Positive or negative) thus formed for a short, long or indefinite period is known as Leshya. These are classified into six (3 negative & 3 positive) categories and attached to a particular colour like 'Krishna' (black), 'Neel' (blue), 'Kapot' (grey like pigeon), 'Peet' (yellow), 'Padam' (lotus colour) and áShuklaa (white). Human tendencies of cruelty, hate, lost, theft (all negative) and that of love, compassion, sacrifice & charity (all positive) are caused and determined by these 'Leshyas'.
This process of subduing the forces of primal drives consists in generating counter-vibrations, which can counter-act this demand by conscious reasoning. Concentrated perception of specific colours is used to awaken the forces of malevolent 'leshyas' and strengthening those of benevolent leshyas. Leshya Dhyan results in eradication of psychological distortions of greed, cruelty, lust, hate etc.
This seven fold methodology of Jeevan Vigyan is free from dogmas of religion and theology and can be freely learnt and practiced by anybody without distinction of caste, creed, religious denomination or social status. It is equally useful to all depending upon the sicnerity and dedication one puts in to learn this wonder technique. Once this practice becomes a regular function of one's life, he or she will never be overwhelmed or taken away by the overflow of passions and emotions. Jeevan Vigyan in School Curriculum
As already explained Jeevan Vigyan is an innovative scientific technique for learning about a balanced and all-round development of a student's personality in its physical, intellectual, emotional & spiritual aspects. A full course curriculum has been developed by educationists for imparting training in this area to students of primary, secondary and senior secondary classes. The books have been designed for each class of students beginning from 3rd standard upwards, keeping in view the age group and the capacity of the students. Each book contains 16 to 18 chapters covering 11 to 12 units of Jeevan Vigyan. Details of these units are given below:
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Sound-Rhythm, Resonance, Musical, Noisy, Harsh etc. Resoluteness-Development of Determination and firm resolve in the students. Right Exercises-To keep the body fit Right Breathing - For physical and mental health & longevity “Kayotsarg' - Complete relaxation of mind and body. *Dhyan' Colour perception, and Meditation. Anatomy- Knowledge of Human body, its structural frame, blood circulation and nervous system. Physical health-Food and nutrition, human physiology and cultivation of good habits among students. Emotional health - Development of emotional balance in the child is the basic aim of this unit of learning. He is taught to control anger, fcelings of hatred, prejudice, sense of false superiority etc. Emotional framework is so designed as to imbibe finer qualities of life in the speech and behaviour. Awareness of Values in life - The child is made to imbibe values in life through the medium of short stories, illustrated charts on happenings of day to day life, awareness of values like truthfulness, respect for elders. Uprightness in conduct and behaviour etc., Inculcation of feelings of love and helpfulness, sense of sacrifice, developing a peace-full disposition and boldness to resist injustice
and cruelty.
Non-Violence - The utility and efficacy of non-violence in child's conduct and behavior is brought home to the young child through real anecdotes from the life of great men like Gandhiji, Practical examples and experiences of real life are also effectively explained to him and he is made to experience it in actuality through games and community involvement. The experiences of love, compassion, tolerance, brotherhood etc. are inculcated in him.
These twelve units are gradually upgraded as the child moves from one class to another and is able to grasp finer aspects till he reaches the school leaving stage. It has been observed that the students studying Jeevan Vigyan (Science of Living I attain better levels of performance than those who do without it. Besides performance in studies and examinations, a Jeevan Vigyan student exhibits a greater stability of mind and temper and is more balanced and rational in his conduct and behaviour in day to day life. In brief it may be said that he is better prepared to face the onslaught of life than a normal student.
In schools where it is not possible to include Jeevan Vigyan in regular
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curriculum, short courses and practice oriented programmes have been designed to suit the convenience of the school management. The objective is that the benefits of this scientific innovation reach the young students even in small dosages so that they are able to utilize it as they move ahead in the regular stream of life.
Jeevan Vigyan as an extra curricular activity Jeevan Vigyan in Morning Assembly
As time table of schools is already over-crowded with the teaching of routine subjects like science, mathematics, social science, languages history, economics etc., a noble method has been evolved to make Jeevan Vigyan vibrant in the daily life of a student without burdening him with the study of an additional subject or an extra period in his curriculum. In some schools. 16 to 20 minutes programme has been kept in the Morning Assembly to give a blissful start to the day as mentioned below:
1. One brief Anuvrat Song or/and Mahaprana Dhwani to open up the nerves of the mind, to refresh the mental apparatus and to improve memory. (Three minutes)
2. Two or three 'Asanas' (Sitting or standing postures) as given below of two minutes each to activate body muscles and improve blood circulation. a. Sampadasana
- one minute b. "Tadasana'
- one minute c. 'Konasana'
one to three minutes d. 'Padhastasana'
- two minutes e. Exercise in determination.
(Sahnkalp Shakti Abhyasa) - (Two minutes) f. Practice of Exercise in Relaxation (Kayotsarg) - (Three minutes) g. Practice of Long Breath and colour therapy. - (Two minutes)
These 'Asanas' besides being very useful in improving the health of child are instrumental in causing a positive change in the hormones of ductless glands. These also help in maintaining balance in the glandular system and improvement of memory and grasping power.
The practice of Jeevan Vigyan in 'Morning Assembly' has been found the most acceptable to schools, as it does not disturb the normal routine of the school.
These items are changed as per the daily availability of time. (All these exercises have been illustrated with explanatory notes in a pocket size booklet of ten pages which is available from Kendriya Jeevan Vigyan Academy address on request)
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In some schools, three minutes are devoted to the practice of Jeevan Vigyan in each period, In some others, one full period a week is set apart for the teaching and practice of Jeevan Vigyan. Some schools are so much convinced of the efficacy of Jeevan Vigyan that they have allotted a period for it in the daily programme.
CONCLUSION
It can be summed up that Jeevan Vigyan is an effective medium for the transformation of human personality. It stresses more on practical demonstrations and activities and aims at developing an integrated personality by ensuring a balanced development of human mind and emotions. The subject matter of Jeevan Vigyan predominately consists of practice and experiment oriented activities. The practice of Jeevan Vigyan seeks to achieve following basic outcomes: -
(i)
Awareness of the inherent powers of the self.
(ii) Access to those paths of development which above awareness makes known.
(iii) Careful study, practice and experimentation.
(iv) The method of Jeevan Vigyan is a method of refinement of emotions which, in turn leads to the elimination of negative thoughts or state of mind. Genetic traits can also be refined through the refinement of emotions. The refinement of genetic traits plays a significant role in the development personality, character formation and inculcation of values. Thus Jeevan Vigyan (Science of Living) is a comprehensive, practical and balanced intervention of value oriented education. It seeks to inculcate sixteen values as mentioned below:
(a) Social Value:
(i) Dutifulness
(iii) Truth
(v) Non-sectarianism. (vii) Mental Balance
(ix) Honesty and Integrity
(xi) Co-existence
(xiii) Tolerance
(xv) Fearlessness
(b) Intellectual - Spiritual values:
(c) Mental values:
(d) Moral Valucs:
(e) Spiritual values:
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(ii) Self reliance. (iv) Harmony. (vi) Human Unity (viii) Patience
(x) Compassion
(xii) Non - attachment
(xiv) Gentle Sweetness.
(xvi) Self Control and Discipline
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With this fram work of values, Jeevan Vigyan attempts to establish a natural harmony bet en science and spirituality and plays a potent role in removing the imbalace between intellectual and emotional developments and in empowering the child with a value based personality.
The schoolteachers can make an effective use of techniques of Jeevan Vigyan in providing training to the students in the art of making a realistic self-assessment. With the application of the techniques of breath and body Preksha Meditation, yogic exercises, Kayotsarg: (Relaxation), Anu-Preksha (Contemplation), Antaryatra (Internal Trip), Perception of Phychic Centres, Jagrukta (Spiritual vigilance) etc. An individual can know his own strengths, weaknesses and potentialities. Thus the practice of Jeevan Vigyan will facilitate the work of school teachers. In order to ensure correct practice of various activities, it will be imperative that school teachers undergo a short training in the field of Jeevan Vigyan (Science of Living) and they themselves imbibe a regular practice in the area of Jeevan Vigyan because this innovative technique of education educates the mind, body and speech in a balanced manner. The practice of Jeevan Vigyan activates the latent powers of an individual and opens the path of natural integration and a creative union between external knowledge and internal energy with consciousness.
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________________ Postal Department : NUR 08 R.N.I. No. 28340/75 य:स्याद्वादी वचनसमये योप्यनेकान्तदृष्टिः श्रद्धाकाले चरणविषये यश्च चारित्रनिष्ठः। ज्ञानी ध्यानी प्रवचनपटुः कर्मयोगी तपस्वी, नानारूपो भवतु शरणं वर्धमानो जिनेन्द्रः / / जो बोलने के समय स्याद्वादी, श्रद्धाकाल में अनेकान्तदर्शी, आचरण की भूमिका में चरित्रनिष्ठ, प्रवृत्तिकाल में ज्ञानी, निवृत्तिकाल में ध्यानी, बाह्य के प्रति कर्मयोगी और अन्तर् के प्रति तपस्वी है, वह नानारूपधर भगवान् वर्द्धमान मेरे लिए शरण हो। हार्दिक शुभकामनाओं सहितएम.जी. सरावगी फाऊण्डेशन (महादेव लाल गंगादेवी सरावगी फाउण्डेशन) 41/1 सी, झावुतल्ला रोड़, कोलकता- 700 019 प्रकाशक - सम्पादक - डॉ. मुमुक्षु शान्ता जैन द्वारा जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के लिए प्रकाशित एवं जयपुर प्रिण्टर्स, जयपुर द्वारा मुद्रित la Education le national