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________________ का कारण बनती है। प्रोटीन की अधिक मात्रा मानसिक असंतुलन के लिए जिम्मेदार है। मांसाहार एवं मादक वस्तुओं का सेवन भावात्मक असंतुलन को बढ़ाता है। शारीरिक, मानसिक और भावात्मक अस्वास्थ्य और हिंसा के संबंध को उजागर करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है-आदमी भूख से पीड़ित है, अस्वस्थ है, बीमार है, इन्हें मिटाने के लिए भी वह हिंसा करता है। हिंसा के कारणों की यह सूक्ष्म मीमांसा है, जो शरीर की आवश्यकताओं से जडी है। इसी तरह जो व्यक्ति शस्त्रों का निर्माण करता है, जो वैज्ञानिक शस्त्रों की खोज करता है और जो राजनेता राष्ट्र की सुरक्षार्थ शस्त्र जुटाता है, वे मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहे जा सकते। शस्त्रनिर्माण, शस्त्र नियोजन, शस्त्र खोज, शस्त्र व्यापार और शस्त्र प्रयोगये सब मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं। संवेग और भाव भी हिंसा के लिए जिम्मेदार बनते हैं। संवेग प्राणी की उत्तेजित अवस्था है। ऐसी उत्तेजनाएं प्रायः आकस्मिक और तीव्र होती हैं। संवेगात्मक उत्तेजना की तीव्रता इतनी अधिक होती है कि इस उत्तेजना के बने रहने तक प्राणी के अन्य सभी व्यवहार अस्त-व्यस्त हो जाते हैं । संवेग की इसी विशेषता के कारण मनोवैज्ञानिकों ने इसे एक विध्वंसात्मक शक्ति के रूप में स्वीकार किया है । मनोविज्ञान संवेग-मूल प्रवृत्तियों को मानता है। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जितनी कर्म प्रकृतियां हैं, उतने ही संवेग हैं । हिंसा से बचने के लिए इन संवेगों के प्रति जागरूकता आवश्यक है। हिंसा और अहिंसा की अभिव्यक्ति का सम्बन्ध हमारी मुद्राओं से भी है। प्राचीन समय में व्यक्ति की मांसपेशियों पर अधिक दबाव पड़ता था जबकि नाड़ीतन्त्रीय दबाव कम था। शारीरिक श्रम की महत्ता के कारण मांसपेशियों पर अधिक दबाव पड़ता किन्तु नाड़ीतंत्र को विश्राम मिलता । साधन-सुविधाओं की अधिकता के फलस्वरूप आज मांसपेशियों को आराम मिल रहा है जबकि नाड़ीतंत्र दबाव अत्यधिक रूप से बढ़ रहा है । अत्यधिक नाड़ीतंत्रीय दबाव हिंसा का निमित्त बन जाता है। शारीरिक और मानसिक श्रम का सन्तुलन बना रहे, इस हेतु योगासन का अभ्यास उपयोगी है। आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि अहिंसा के प्रति हमारी आस्था में गहराई नहीं है। एक छोटी-सी घटना होते ही हिंसा भड़क उठती है और वह सफल हो जाती है। अहिंसा में विश्वास रखने वाले भी अहिंसा की सफलता पर संदिग्ध हो जाते हैं। उन्हें हिंसा की तात्कालिक सफलता नजर आती है। अहिंसा सफल नहीं होती, क्योंकि अहिंसा में हमारी आस्था नहीं है और आस्था जगाने का प्रशिक्षण भी नहीं है। हिंसा के द्वारा मस्तिष्क बहुत प्रशिक्षित है, इसलिए हम हिंसा को समस्या का समाधान मान लेते हैं। मस्तिष्कीय प्रशिक्षण के अभाव में कोई भी व्यक्ति अहिंसा में आस्थावान नहीं हो सकता, अत: अहिंसा का प्रशिक्षण आवश्यक है। अहिंसक व्यक्तित्व विकास के लिए भी आचार्य महाप्रज्ञ ने एक नवीन विकल्प प्रस्तुत किया गया है-कायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठ जायें और निर्विचार का अभ्यास करें। मस्तिष्क को एक बार विचार शून्य कर निर्विकल्प बन जाएं । निर्विकल्प अवस्था में व्यक्ति देश और काल की पकड़ से मुक्त हो जाता है । वह ऐसी अवस्था में पहुंच जाता है जहां अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता। यह अवस्था निषेधात्मक भावों को बाहर निकालने तथा विधेयात्मक भावों के 24 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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