SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्ति ही हिंसा करता है। क्रोध आदि आवेशजन्य और निराशा आदि अवसादजन्य- दोनों ही प्रकार के तनाव व्यक्ति को हिंसा की ओर ले जाते हैं। जैव रसायनविदों का मानना है कि क्रोध समय एक प्रकारका रसायन कार्य करता है, क्रोध शमन के लिए दूसरे प्रकार का । अन्तःस्रावी ग्रंथियों के रसायन में असन्तुलन मस्तिष्क को प्रभावित करता है और हिंसा की वृत्ति जाग जाती है। इसी तरह नाड़ीतंत्रीय असंतुलन होने पर व्यक्ति बिना प्रयोजन भी हिंसा पर उतारू हो जाता है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार पीयूष ग्रंथि से निश्रित ACTH हार्मोन से एड्रीनल ग्रंथि सक्रिय हो उठती है, जिसके कारण एपिनेफ्रीन और नॉर एपिनेफ्रीन हार्मोन निकलने लगते हैं। ये हार्मोन शरीर की विभिन्न पेशियों को अत्यधिक गति (Hyper active) से कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं और हृदय, फेफड़े एवं श्वसन की पेशियों को भी सामान्य से कहीं अधिक गति से कार्य करने के लिए उत्तेजित कर देते हैं। इस स्थिति में शरीर की चयापचय की दर पर मस्तिष्क का नियंत्रण कमजोर पड़ने लगता है और व्यक्ति अनजाने में हिंसात्मक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है । घृणा, ईर्ष्या, भय, काम, द्वेष आदि निषेधात्मक संवेग भी व्यक्ति को हिंसा की ओर ले जाते हैं । जातीय हिंसा, रंग-भेद पर आधारित हिंसा, वर्ग संघर्ष- इन सबके पीछे घृणा का भाव कार्य करता है। जिससे एक व्यक्ति दूसरे से घृणा करता है, दूसरों को छोटा मानता है। स्वयं को, स्वयं की जाति को एवं स्वयं के राष्ट्र को बड़ा एवं अच्छा मानता है। जिन व्यक्तियों में यह सोचने की अतिरंजित प्रवृत्ति होती है कि उनका अपना समूह अथवा जाति अन्य समूह या जातियों से अत्यंत श्रेष्ठ है, उन लोगों का सामान्य दृष्टिकोण रूढ़िवादी होता है। वे शक्ति की प्रशंसा व पराजितों से घृणा करते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री हॉब्स ने हिंसा के तीन प्रमुख कारणों की चर्चा की है(1) प्राप्ति की इच्छा, (2) क्षति का भय, (3) मिथ्याभिमान । मनोविज्ञान में उपार्जन को एक मौलिक मनोवृत्ति माना गया है। प्राणी केवल उपार्जन ही नहीं करता, उसका संरक्षण और उस पर स्वामित्व भी जताता है। हिंसा का प्रथम प्रयोग उपार्जन अर्थात् इच्छा पूर्ति के लिए होता है, हिंसा का दूसरा प्रयोग उपार्जित वस्तु के संरक्षण के लिए होता है और हिंसा का तीसरा प्रयोग वस्तु व अन्य प्राणियों पर स्वामित्व जताने के लिए होता है । आचारांगसूत्र, प्रश्नव्याकरण आदि जैन सूत्रों में भी हिंसा के इन कारणों का उल्लेख हुआ है। आचार्य महाप्रज्ञ की हिंसा के कारणों की अधुनातन प्रस्तुति सम्भवतः वैज्ञानिक खोजों का परिणाम और आगमिक सन्दर्भों की अधुनातन व्याख्या भी है 1 आहार और हिंसा के संबंध पर विमर्श भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। ग्रहण किये गये भोजन से शरीर में अनेक रसायन तथा मस्तिष्क में न्यूरोट्रांसमीटर का निर्माण होता है। ये न्यूरोट्रांसमीटर ही नियामक हैं। इनके द्वारा मस्तिष्क शरीर का संचालन करता है । आहार और हिंसा का सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है- विटामिन ई की कमी चिड़चिड़ेपन का रक्त में ग्लूकोज की मात्रा अत्यधिक कम होने से हत्या का विचार * और विटामिन-बी की कमी भय T * रक्त में ग्लूकोज की अत्यधिक कमी से मस्तिष्क को पर्याप्त पोषण न मिल पाने के कारण यह संभावना हो सकती है कि वह सही निर्णय न कर पाये और हत्या का विचार उसके मन में आ जाये । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 23 www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy