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________________ को संरक्षण मिलता है। इसीलिए तो संतों ने मनुष्य के संयत आचरण को जीव-मात्र के लिये कल्याणकारी कहा है। इस विधान से यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अहिंसा का अर्थ कायरता नहीं है। जीवन से पलायन भी अहिंसा का उद्देश्य नहीं है। अहिंसा तो जीवन को व्यावहारिक बनाकर कर्तव्य और धर्म के बीच संतुलन बनाते हुए स्व और पर के घात से बचने का उपाय है। अहिंसा मनुष्य के जीवन में मानवता की प्रतिष्ठा का उपाय है। अहिंसा मानव-मन का स्थायी भाव है। राजनीति के कुचक्र में क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कहीं धर्म के नाम पर, कहीं भाषा के नाम पर बार-बार हिंसा को उकसाया जाता है। संतोंमहात्माओं के द्वारा जगाई अहिंसा की ज्योति को बुझााने का प्रयास किया जाता है परन्तु वह ज्योति केवल कांप कर रह जाती है, न बुझती है और न कभी बुझेगी। महावीर द्वारा परिभाषित अहिंसा __ अहिंसा जैन-धर्म का प्राण है। इसलिए भगवान् महावीर के उपदेशों में अहिंसा की प्रेरणा के लिए और हिंसा के निषेध के लिए बार-बार जोर दिया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने महावीर की देशना का आधार लेकर हिंसा और अहिंसा की परिभाषा के लिये एक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा। अहिंसा के मार्ग से चारों पुरुषार्थ सिद्ध हो सकते हैं, ऐसा विश्वास करके उन्होंने उस ग्रन्थ का नाम रखा पुरुषार्थ-सिद्धि-उपाय । तीर्थंकर महावीर की परम्परा के सभी धर्माचार्यों ने अपने लोक-कल्याणकारी उपदेशों में अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए उसे जीवन में उतारने की प्रेरणा दी है। उन्हीं आर्ष वचनों के आधार पर अहिंसा के कुछ सूत्र हम यहां प्रस्तुत करेंगे। चित्त में क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों की उत्पत्ति ही हिंसा है। चित्त की निष्काम, निर्मल परिणति ही अहिंसा है। जीव जब राग-द्वेष-मोह रूप परिणामों से प्रेरित नहीं है तब उसके द्वारा किसी के प्राणों की हानि हो जाने पर भी वह अहिंसक है और जब राग आदि कषायों से युक्त है तब किसी के प्राणों का विघात न होने पर भी वह हिंसक है, क्योंकि चित्त का विकारी होना ही हिंसा है। हिंसा के संदर्भ में प्राय: यह समझा जाता है कि दूसरों को पीड़ा पहुंचाना हिंसा है। कोई व्यक्ति क्रोधित होकर किसी को मारता है तब निश्चित ही पिटने वाले व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक पीड़ा होती है। इसी पीड़ा को प्रायः हिंसा की सीमा समझ लिया जाता है । परन्तु पीटने वाले व्यक्ति की मानसिक या शारीरिक पीड़ा को या प्राणों के विघात को अनदेखा कर दिया जाता है, यह सम्पूर्ण सत्य नहीं है। यह तो अधूरा सत्य है। व्यक्ति जब क्रोधित होकर दूसरे को पीड़ित करता है तब उसके अपने तन और मन दोनों विकृत हो जाते हैं, उसका चित्त अशांत हो जाता है। वह अपने भीतर एक तनाव महसूस करता है । इसके बाद ही वह दूसरे के साथ मार-पीट आदि दुर्व्यवहार करता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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