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________________ धर्म कहा गया है । संसार में जल-थल और आकाश में सर्वत्र सूक्ष्म-जीव भरे हुए हैं, इसलिए बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होना संभव नहीं है। यदि अन्तरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियां यत्नाचार पूर्वक नियंत्रित कर ली जायें, तो बाह्य में सूक्ष्म जीवों का घात होते हुये भी साधक अपनी आन्तरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है। अहिंसा का क्षेत्र संकुचित नहीं है । उसका प्रभाव भीतर और बाहर दोनों ओर होता है। दार्शनिक परिभाषा में चित्त का स्थिर बने रहना अहिंसा है । जीव का अपने साम्य-भाव में संलग्न रहना अहिंसा है । क्रोध-मान-माया-लोभ से रहित पवित्र विचार और सद्-संकल्प ही अहिंसा है। अंतरंग में ऐसी आंशिक समता लाये बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती। ____ अहिंसा पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि वह एक नकारात्मक विचार है और सांसारिक जीवन में व्यवहार्य नहीं है परन्तु अहिंसा पर जो अध्ययन हुआ है और समाज में अहिंसक जीवन के जो उदाहरण सामने आए हैं, उनके आधार पर ये दोनों आरोप निराधार सिद्ध होते हैं । यदि ऋषि-मुनियों की बात छोड़ भी दें, तो भी अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं । महात्मा गांधी ने अहिंसा के सकारात्मक प्रयोग करके रक्त-विहीन क्रान्ति के सहारे अपने देश को स्वाधीनता दिलाई थी। इसी प्रकार अनेक महापुरुषों ने हिंसा-रहित जीवन जीकर यह प्रमाणित कर दिया है कि अहिंसा अव्यावहारिक नहीं है । वह पूर्णतः व्यावहारिक है और जीकर दिखाने की कला है। जीवन से पलायन नहीं है अहिंसा अहिंसा की साधना में लगा हुआ गृहस्थ हिंसा के लिए हिंसा नहीं करेगा। संकल्पीहिंसा उसके आचरण से निकल जायेगी। वह व्यापार अथवा नौकरी आदि के द्वारा अपने परिवार की आजीविका का उपाय करेगा। परिवार की पालना और सुरक्षा करेगा तथा अपने समाज पर, अपने देश, धर्म और साधु-संतों पर तथा तीर्थों-मंदिरों पर आने वाली बाधाओं का समुचित रूप से निराकरण करेगा। वह अपने राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र भी हाथ में उठाएगा। मरेगा भी और मारेगा भी, फिर भी इससे अधिक अहिंसा कहीं खण्डित नहीं होती। मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग कर देने से वह अहिंसक माना जायेगा। मन में गौरवान्वित होकर चिन्तन करना होगा कि मैंने अमुक जीव का घात किया है और लज्जित होकर पश्चात्ताप करना कि नहीं चाहते हुए , बहुत बचाते हुए भी आज मेरे द्वारा अमुक जीव का घात हो गया; इन दोनों मनःस्थितियों में बड़ा अन्तर है। हिंसा करना है, करके रहूंगा और हिंसा से बचना है, मुझे हिंसा करनी पड़ रही है, इन दोनों संकल्पों में जो अंतर है, वही गृहस्थ को अपरिहार्य हिंसा के बावजूद अहिंसक बनाए रखता है। वह हिंसक नहीं है, हिंसा उसे करनी पड़ रही है। वह कर्त्तव्य भावना से कठोर होता है। अहिंसा से व्यक्ति का जीवन निष्पाप बनता है और प्राणी-मात्र को अभय का आश्वासन मिलता है। इस व्यवस्था से प्रकृति का संतुलन बनाये रखने में सहायता मिलती है और पर्यावरण - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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