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________________ जैन संस्कृति एवं पर्यावरण-संरक्षण - प्राचार्य निहालचंद जैन पर्यावरण-वैज्ञानिकों की मान्यतानुसार इस विराट् सौरमण्डल में पृथ्वी ग्रह पर ऐसी अद्भुत जीवन संरचना है कि यहां अगाध सागर, उत्तुंग पर्वत, जीवन-रस बहाती नदियां और वायुमंडल की छत्रछाया है। नदियों के जल का सिंचन पाकर इस ऊर्वरा भूमि पर हरे-भरे पेड़-पौधे उत्पन्न हुए हैं। पेड़-पौधों ने अपनी प्राण-वायु से अन्य प्राणियों को सांसें दी तथा भोजन एवं अन्य आवश्यकताओं की सम्पूर्ति की। प्रकृति की सम्पूर्ण व्यवस्था प्राणियों की जीवन-धारा को सुरक्षित बनाये रखने के लिए है। परन्तु मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अतुल प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट करने पर उतारू है। एक संवेदनशील लेखक ने एक जगह लिखा है-'आसमां भर गया परिन्दों से, पेड़ कोई हरा गिरा होगा।' इतना ही नहीं, वह अपने सुख के लिए वन्य जीवों की हत्या करने से भी बाज़ नहीं आ रहा है। जीव-सृष्टि के साथ उसका यह अनुचित व्यवहार न केवल सामाजिक प्रदूषण के लिए अपितु भावना के स्तर पर आन्तरिक प्रदूषण के लिए भी उत्तरदायी है। महावीर सत्य की खोज करते-करते केवल मनुष्य तक ही नहीं रुके थे, पशुपक्षी एवं क्षुद्र जीव-जंतुओं से भी आगे बढ़कर पर्यावरण की सुरक्षा तक पहुंच गये और अन्ततोगत्वा वे प्रकृति से जुड़ गये थे। उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और हरियाली में जीवन-चेतना एवं प्राणों का स्पन्दन होते देखा तथा इनके सापेक्ष अस्तित्व को निहारा। महावीर दर्शन ने पर्यावरण एवं संरक्षण के लिए अद्भुत सूत्र दिये। महावीर ने श्रमणाचार एवं श्रावकाचार की वैज्ञानिकता को पर्यावरणीय सन्दर्भ में प्रतिष्ठापित किया। यह तो हमारी सोच को लाचारी एवं बीमारी है, जिसने जैन गुणवाचक संज्ञा के स्थान पर जातिवाचक संज्ञा बना लिया है। प्रकृति के साथ मानवीय संबंधों की सौगात वस्तुत: पर्यावरण-चेतना का एक अविभाज्य अंग है। आज सम्पूर्ण विश्व में एक चेतावनी, चिन्तन और चेतना का दौरसा चल रहा है। 36 -- - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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