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दृष्टि या निश्चयनय से सत्य है। जहां सामाजिक जीवन जीना है वहां महावीर अनुशासन के सूत्रों का स्थान-स्थान पर उल्लेख करते हैं। आणानिद्देसकरे, आणाए मामगं धम्मं जं मे बुद्धाणुसासंति, आदि सुभाषित अनुशासन की महत्ता प्रस्थापित करते हैं।
__ ये दोनों बातें सापेक्ष सत्य हैं कि आत्मानुशासन जगाने के लिए पहला सूत्र सही है किन्तु जब तक वह नहीं जगे तब तक व्यवहार चलाने के लिए दूसरों पर अनुशासन करना और दूसरों के अनुशासन में रहना दोनों सत्य हैं। इसी सत्य को महावीर आचारांग में सापेक्ष भाषा में प्रस्तुत करते हैं-'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के' अर्थात् कुशल व्यक्ति आंतरिक अनुशासन से मुक्त नहीं होता और बाह्य अनुशासन से बद्ध नहीं होता । गुरुदेव तुलसी इसी तथ्य को अनेकान्त की भाषा में कहते हैं-अनुशासन की सतह पर तैरने वाला बंधता है और उसकी तहों तक पहुंचने वाला मुक्त हो जाता है।
वस्तु सत्य यह है कि हर व्यक्ति अनुशास्ता और अनुशासित दोनों भूमिका का निर्वाह करता हुआ चलता है । भाष्य साहित्य में यही सत्य उद्गीत हुआ है-'सीसस्स हुंति सीसा, नत्थि सीसा असीसस्स' अर्थात् जो स्वयं अनुशासन में रहना नहीं जानता, वह अच्छा अनुशास्ता नहीं हो सकता। यह सापेक्ष सत्य है कि जो अच्छा शिष्य नहीं, वह अच्छा गुरु नहीं हो सकता। गणाधिपति तुलसी ने इसी का संवादी एक घोष दिया-'निज पर शासन, फिर अनुशासन'। वस्तुतः अनुशासन तभी सफल होता है जब वह स्वयं से प्रारम्भ किया जाए।
अनेकान्त वस्तु की अनंत पर्यायों को स्वीकार करता है। अनुशास्ता की दृष्टि यदि अनेकान्तस्पर्शी नहीं होगी तो वह अनुयायी में सोयी अनंत संभावनाओं को नहीं देख सकता। मंदबुद्धि और सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी भविष्य में महान् दार्शनिक बन जाता है। इसके स्वयंभू प्रमाण हैं आचार्य महाप्रज्ञ । वे स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते हैं कि बचपन में मैं इतना मंदबुद्धि था कि एक पद्य कंठस्थ करने में अनेक दिन लग जाते । यदि आचार्य तुलसी उस समय उन संभावनाओं को अस्वीकार कर उपेक्षित कर देते तो आज मेरा यह रूप संभव नहीं होता, अतः अनेकान्त यह दृष्टि प्रदान करता है कि केवल वर्तमान पर्याय के आधार पर किसी के बारे में कोई निर्णय मत लो। भविष्य में अन्य पर्यायों का आविर्भाव भी हो सकता है। यदि नेता अनंत पर्यायों के आधार पर संभावनाओं को स्वीकार करता है तो उसके लिए किसी का व्यक्तित्व-निर्माण असंभव नहीं होगा और न ही उसका धैर्य विचलित होगा।
___ अनेकान्त उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-तीनों तत्त्वों को एक साथ स्वीकार करता है। यदि नेता की दृष्टि अनेकान्तस्पर्शी नहीं होगी तो वह समय के अनुसार अपने को बदल नहीं सकेगा। वह केवल परम्परा का ही निर्वाह करता रहेगा। अनेकान्त कहता है कि वही परिवर्तन मान्य होना चाहिए जिसमें मौलिकता सुरक्षित रहे। अनेकान्त परम्परा का विरोध नहीं करता पर अवांछित परम्परा का भार न ढोया जाए, यह विवेक अवश्य देता है।
सफल नेतृत्व के लिए जो गुण आवश्यक हैं वे सभी अनेकान्त से उद्भूत हैं। अनेकान्त के घटक तत्त्व हैं-समता, सह-अस्तित्व, आत्मौपम्य, सापेक्षता, सहिष्णुता, सामंजस्य, समन्वय,
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 115
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