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नेतृत्व में अनेकान्त का प्रयोग
- समणी डॉ. कुसुम प्रज्ञा
भगवान महावीर अनन्तचक्षु थे। अनन्तचक्षु होने के कारण वे अनेकान्त के प्रबल उद्गाता और प्रयोक्ता हुए। उन्होंने हर प्रश्न का उत्तर विभज्यवादी शैली में दिया। 'विभज्जवायं च विपागरेजा' महावीर का यह उद्घोष वाणी के सापेक्ष प्रयोग का स्पष्ट निदर्शन है। भगवतीसूत्र में ३६ हजार प्रश्नोत्तरों का संकलन किया गया। आज उसमें जितने प्रश्नोत्तर या वर्णन प्राप्त हैं वह लगभग विभज्यवादी शैली में उपलब्ध हैं ।।
विक्रम की तीसरी शताब्दी से नौवीं शताब्दी तक अनेकान्त की दार्शनिक व्याख्या बहुत हुई लेकिन उसे जीवन व्यवहार में जोड़ने का प्रयत्न नहीं हुआ। यह एक अनुसंधान का विषय है कि अनेकान्त के सूत्र जीवनगत और व्यवस्थागत किए जा सकते हैं, यह जानते हुए भी प्राज्ञ आचार्यों ने इस दिशा में विशेष प्रयत्न क्यों नहीं किया?
गणाधिपति तुलसी कहते थे कि जो दर्शन जन-जीवन की समस्याओं को नहीं सुलझा सकता, वह दीर्घकाल तक अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं रख सकता तथा जो नया बोध नहीं दे सकता, वह अतीत में चाहे कितना ही बड़ा क्यों न रहा हो, उसकी मूल्य स्थापना नहीं हो सकती। अत: आज अपेक्षा है कि अनेकान्त को आज के संदर्भ में प्रस्तुत करके उसे जीवन में साथ जोड़ा जाए।
जहां समाज होता है, वहां नेतृत्व होता है। नेतृत्व के अभाव में समाज एवं संगठन विशृंखलित हो जाता है। उसके विकास की सारी संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। आज पाश्चात्य देशों में एक विचार पनप रहा है कि एक नेतृत्व की बात व्यर्थ है, सबका स्वतंत्र अस्तित्व है, सब संकल्प करने में स्वतंत्र हैं, अत: किसी के अधीन क्यों रहें? इस प्रश्न का समाधान महावीर अनेकान्त की भाषा में देते हैं। उन्होंने कहा-निश्चयनय से आत्मानुशासन ही अनुशासन का सर्वोत्कृष्ट रूप है-'पुरिसा अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वं त्ति मनसि (५-१०१) वरं मे अप्पा दंतो संजमेण
तवेण य'-ये सूक्त आत्मानुशासन का आदर्श प्रस्तुत करने वाले हैं। पर यह वैयक्तिक तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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