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उदारता । एक सफल अनुशास्ता इन सूत्रों को अपना कर ही अनुशासन को जीवन्त और हृदयग्राही बना सकता है। समता
आचार्य महाप्रज्ञजी के शब्दों में अनेकान्त तीसरा नेत्र है, वह तीसरा नेत्र समता है। समता अनुशासन का प्राण है, सफलता का सूत्र है। यदि अनुशास्ता में राग-द्वेष प्रबल होंगे तो अनुशासन निष्पक्ष नहीं हो सकता। द्वेष की प्रबलता से सबकुछ विपरीत ही प्रतीत होगा। छोटी गलती भी बड़ी नजर आएगी और राग की अधिकता होगी तो बड़ी गलती भी छोटी नजर आएगी। ऐसी स्थिति में दोषों का परिष्कार एवं प्रतिकार संभव नहीं हो सकता। आज के समाजशास्त्रियों ने तटस्थता को नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण माना है। समता रूपी यथार्थ आंख से नेता प्रशंसा में फूलता नहीं और निन्दा में कुम्हलाता नहीं। किसी भी विषम परिस्थिति में उसका संतुलन और धैर्य अक्षुण्ण बना रहता है। सह-अस्तित्व
समाज अनेक व्यक्तियों की इकाई का समाहार है। सबकी रुचियां, स्वभाव एवं संस्कार भिन्न-भिन्न होते हैं। ऐसी स्थिति में सबका सह-अस्तित्व समस्या बन सकता है। भेद में अभेद, अनेकता में एकता तथा विरोधी विचारों में सामंजस्य की क्षमता अनेकान्त द्वारा संभव है। नेतृत्व करने वाला यदि इस बात में विश्वास करता है कि विरोधी युगलों का पदार्थ में एक साथ रहना स्वभाव है, विभाव नहीं। अस्ति, नास्ति दोनों विरोधी धर्म होते हुए भी एक ही पदार्थ में पाए जाते हैं, ऐसी स्थिति में भिन्न-भिन्न विचार वाले व्यक्ति यदि एक साथ अविरोध के साथ रहे तो इसमें
आश्चर्य की बात नहीं है। अनेकान्त दृष्टि यह प्रशिक्षण देती है कि विरोध विचारों में है, अस्तित्व में नहीं। आवश्यकता इतनी ही है कि अपनी सीमा में रहें, सीमा का अतिक्रमण न करें। यदि नेता उपाय कौशल के गुण से युक्त हैं तो भिन्न-भिन्न रुचि वाले शिष्यों को अलग-अलग दिशा में विकास के लिए प्रेरित कर सकता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार किस व्यक्ति को कहां नियोजित करना है? यह अनेकान्त का व्यावहारिक प्रयोग है। इसके बिना नेता अपने समूह या संघ को गतिशील एवं तेजस्वी नहीं बना सकता। आत्मौपम्य
अनेकान्त स्वत्व का विस्तार करता है। वहां अपने-पराये का भेद नहीं होता। अतः अनेकान्त की व्यावहारिक फलश्रुति है-आत्मौपम्य भावना का विकास । आत्मौपम्य भाव का यह तात्पर्य नहीं कि सबको एक बना दिया जाए। इसका तात्पर्य है कि सबमें आत्मा के अस्तित्व की गहरी अनुभूति करना, सहानुभूति रखना तथा दूसरे की पीड़ा का संवेदन स्वयं करना, दूसरे के दुःख को स्वयं का दुःख मानना। नेता यदि स्वत्व का विस्तार करके स्वयं को समष्टि रूप नहीं बनाता तो वह समूह के साथ एकरूप या श्रद्धापात्र नहीं बन पाता। अनुशास्ता में आत्मौपम्यभावना विकसित होने पर संगठन एक कुटुम्ब बन जाता है। वहां अनेक बुराइयां स्वतः पलायन कर जाती हैं।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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