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________________ सापेक्षता __ अनेकान्त कहता है कि सभी एकांगी दर्शन अधूरे सच हैं । अधूरे सत्यों को मिलाने पर भी पूरा सत्य हाथ नहीं आएगा, क्योंकि अधूरे-अधूरे मिलकर भी पूरे नहीं हो सकते । सापेक्षता संकीर्णता एवं आग्रहमुक्ति का सूत्र है। प्रत्येक पदार्थ की अनेक पर्यायें हैं, अत: पदार्थ जैसा दीख रहा है वैसा ही नहीं है। वह और भी कुछ है। दृश्य जगत् में भौंरा काला है पर यथार्थ में उसमें पांचों वर्ण हैं । ये दोनों बातें सापेक्ष हैं। सापेक्षता अनुशास्ता को यह विवेक प्रदान करती है कि कहां स्थिर रहना है, कहां आगे बढ़ना है और कहां पीछे हटना है । गति का क्रम है कि एक पैर आगे बढ़ता है, दूसरा पीछे रह जाता है। जब पीछे वाला आगे बढ़ता है तब आगे वाला पीछे जाता है । नेतृत्व की सफलता के लिए आवश्यक है कि नेता परिस्थिति के अनुसार कभी गौण को मुख्य बनाए और कभी मुख्य को गौण बनाए, क्योंकि व्यक्ति में गुण और दोष दोनों ही होते हैं। कभी समय देखकर गुण उजागर किया जाए तथा कभी अवगुण पर ताड़ना दी जाए, तभी संगठन में सक्रियता रहती है। नवनीत प्राप्ति का भी यही क्रम है एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण। अन्तेन जायते जैनी, मन्थानमिव गोपी॥ अनुशासन का नवनीत तभी जनभोग्य हो सकता है जब एक को खींचा जाए और दूसरे को ढीला छोड़ा जाए। इस क्रम से न किसी के अतिरिक्त अहं को पोषण मिलता है और न किसी में हीनभावना पनपती है। इससे अनेक प्रतिभाएं तो उभरकर सामने आती हैं, साथ ही अकरणीय के प्रति सदैव भय भी बना रहता है। सापेक्ष अनुशासन ही प्रभावी एवं कामयाबी हो सकता है। न अनुशासन इतना मृदु हो कि अनुशास्ता का अस्तित्व ही न रहे और न इतना कठोर हो कि उसमें व्यक्ति दूर चला जाए। वीणा की तार को उतना ही कसा जाए कि उससे संगीत फूट सके । राजा के नेतृत्व को भवभूति इसी भाषा में प्रस्तुत करते हैं वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसुमादपि। सापेक्ष चिंतन के बिना नेता सदैव अनुयायी को रंगीन चश्मे से देखेगा। वह अनुयायी के कथनभेद की अपेक्षा को नहीं समझ सकने के कारण विरोधी विचारों को नहीं खपा सकेगा। अनेकान्त दृष्टि नेता को यह मार्गदर्शन देती है कि एक विचार दूसरे से सापेक्ष होकर ही सत्य हो सकता है। निरपेक्ष होते ही असत्य हो जाता है। व्यवहारभाष्य में सापेक्ष अनुशासन का एक मार्मिक उदाहरण मिलता है। एक ही गलती पर तीन व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न दण्ड की विविधता के पीछे राग-द्वेष नहीं अपितु सापेक्ष दृष्टि की प्रधानता थी। सापेक्षता यह विवेक जागृत करती है कि एक ही उपाय सब पर समान रूप से लागू नहीं हो सकता। महावीर भी कहते हैं-'जेण सिया तेण नो सिया।' 66 । __ तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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