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________________ रखने का प्रतीक है। उनका शरीर अस्त्रान जहां जल अपव्यय रोकता है वहीं अयाचित आहार बहुगुणित अभिलाषाओं को विराम देने और सात्त्विक भोजन को आसक्ति रहित होकर करने का विधान है। पेट की भूख से संग्रह प्रवृत्ति को बल मिलता है। इसी प्रकार पंच समितियों का पालन भी पर्यावरण संरक्षण में विशिष्ट योग देता है एवं निर्जन्तु, एकान्त स्थान में मलमूत्र-क्षेपण प्रदूषण के बचाव के लिए है। श्रावक बारह प्रकार के आचार का पालन करता है (१) पंच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व परिग्रह परिमाण व्रत) जो मनुष्य के आन्तरिक पर्यावरण की शुद्धि करके मन, भावना को पवित्र बनाते हैं । भावना के परिष्कार से अन्तर्जगत् के प्रदूषण का विनाश होता है। (२) तीन गुणव्रत (दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्ड विरति) अनर्थदण्ड और अशुभश्रुति का त्याग करता है। इनके अनुशीलन से बाह्य पर्यावरण शुद्ध रहने के साथ वह अनर्थदण्ड विरति के अंतर्गत ऐसे व्यापारादि नहीं कर सकता जो प्राणियों को कष्ट पहुंचाये, अनावश्यक जंगल कटवाये, जमीन खुदवाये, जल प्रदूषित करे, विषैली गैस का प्रसार या हिंसा के उपकरण आदि देना यह सब हिंसा दान के अन्तर्गत आता है। श्रावक इन सबका त्यागी होता है। साम्प्रदायिक तनाव, जातीय दंगे जैसी अशुभ बातों का करना-कराना, सुनना-सुनाना अशुभश्रुति है जिसका वह त्यागी होता है। (३) चार शिक्षाव्रत-सामायिक, पौषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण और अतिथि संविभाग-ये चारों जीवन को संयमित व मर्यादित बनाकर पर्यावरण संतुलन में अहम भूमिका का निर्वाहन करते हैं। इसके अलावा श्रावक रात्रिभोजन त्यागी व जल छान कर पीता है जो पर्यावरण प्रदूषण से बचे रहने की अचूक दृष्टि प्रदान करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जैनधर्म, दर्शन, संस्कृति की उक्त कतिपय बातें पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान करती हैं। जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है जिसमें क्रियाकाण्डों एवं परम्परागत अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। पर्यावरण का संबंध वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा हुआ है। जैन संस्कृति में परोक्ष या प्रत्यक्ष पर्यावरण से सीधा संबंधित समस्त संभावनाएं समाहित हैं । जैनधर्म का अनुशीलक पर्यावरण संतुलन का सम्पोषक व समर्थक होता है। विश्व को प्राकृतिक आपदाओं, प्रकोपों से निजात दिलाने की दृष्टि से जैनधर्म के सर्वमान्य सिद्धांत-अहिंसा एवं शाकाहार बड़े सशक्त वैज्ञानिक सिद्धांत माने जा सकते हैं। आज जरूरत है हम पर्यावरण के प्रति जागरूक बनकर जीएं। शा.उ.मा.वि. क्र.-3 के सामने बीना (म.प्र.) 470113 40 | _ तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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