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और मर्म-स्थल पर चोट लगने के कारण बालक की मृत्यु हो गई। ऐसी घटना में मां के अभिप्राय को देखते हुए उसे हत्यारिन नहीं कहा जाता। उसे हत्या का पाप भी नहीं लगेगा। करें समान : भोगें हीनाधिक
कभी कई लोग मिलकर हिंसा का कोई कार्य करते हैं। ऐसा समझना ठीक नहीं होगा कि उसका फल भी उन्हें एक बराबर ही लगेगा। कार्य करते समय उसे लेकर सबकी भावनाएं जुदीजुदी हैं। किसी के मन में तीव्रता है, किसी के मन में मन्दता है। हो सकता है उस समय किसी के मन में उस कार्य के प्रति अरुचि भी हो । कार्य सम्मिलित प्रयत्नों से हुआ है फिर भी अपनीअपनी भावनाओं के अनुरूप किसी को हिंसा का अधिक फल भोगना पड़ेगा और किसी को कम पाप लगेगा। करें बाद में : फल पायें पहले
___ हिंसा के संकल्प में और हिंसा की क्रिया में समय-भेद होता है। पाप-बंध तो संकल्प के साथ ही हो जाता है। हिंसा बाद में होती रहती है। ऐसे में कई बार हिंसा होने के साथ ही साथ हिंसक को उसका फल भी मिल जाता है। कई बार फल पहले ही मिल जाता है, हिंसा बाद में होती है। करे कोई : भरे कोई
कई बार अनजान व्यक्ति को या भोले बालकों को फुसलाकर किसी को गोली का निशाना बनवा दिया जाता है। कई बार किराये के हत्यारों के माध्यम से अपनी राह का रोड़ा हटाया जाता है। ऐसी हालत में जिसके हाथ से प्राणी-घात होता है उसे पाप तो लगता है पर उस व्यक्ति को प्रेरित करने वाले, प्रोत्साहित करने वाले या नियोजित करने वाले को उससे कहीं अधिक पाप लगता है। पाप के लिए प्रेरणा देने वाला ही वास्तविक पापी माना जाता है।
इस प्रकार हिंसा की योजना और हिंसा की क्रिया के अनुसार उसके समीकरण बदलते रहते हैं। परन्तु यह अटल नियम है कि हिंसा के अपराधी को भाव-हिंसा के अनुरूप फल भोगना ही पड़ता है। कर्म की अदालत में प्राकृतिक न्याय होता है। वहां कोई छल-कपट नहीं चलता। हिंसा-प्रतिहिंसा का अंतहीन सिलसिला
कुछ लोग हिंसा के जवाब में हिंसा के द्वारा ही उसका उत्तर देना आवश्यक और उचित मानते हैं। उनका भी विश्वास है कि इस प्रकार प्रतिहिंसा के प्रयोग से हिंसा को समाप्त किया जा सकता है। परन्तु ऋषि-मुनियों के वचनों से और अपने अनुभवों से भी यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है कि प्रतिहिंसा किसी हिंसा को रोकने या समाप्त करने का उपाय नहीं है। उससे तो हिंसा और पनपती है। बैर-विरोध को और प्रोत्साहन ही मिलता है। बैर की यह वासना जन्मान्तर तक जीव के साथ रहती है। अवसर पाते ही वह अपना बदला लेता है। इस प्रकार हिंसा-प्रतिहिंसा की यह श्रृंखला कहीं टूटती नहीं, अंतहीन होती चली जाती है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 -
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