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________________ इस प्रसंग में सदन कसाई की कथा याद आती है। सदन किसी धनिक की भोजनशाला के लिये मांस की व्यवस्था करता था। एक दिन खाने वाले अधिक नहीं थे, अतः सदन ने विचार किया-'बकरे को पूरा काटने से क्या लाभ? जितना चाहिए उतना ही मांस निकालूं ताकि कल भी ताजा मांस मिल सके। सदन छुरी लेकर बकरे के सामने आया। उसे देखकर बकरा हंस पड़ा। पूछने पर बकरे ने कहा-'अब शायद हमारी दुश्मनी घट जाएगी। एक जन्म में तू मुझे कसाई बनकर काटते हो, फिर दूसरे जन्म में तुम बकरा बनकर जन्मते हो और मैं कसाई बनकर तुम्हें काटता हूं। यह सिलसिला अनेक जन्मों से चला आ रहा है। आज तुम सिर्फ अंग-भंग करने के इरादे से आये हो न? यदि ऐसा होता है तो हमारी दुश्मनी कुछ तो घटेगी। हर जन्म में थोड़ी-थोड़ी भी घटती रही तो किसी दिन यह समाप्त भी हो जाएगी। आज जितना मांस तुम लोगे, अगले जन्म में मैं तुम्हारे शरीर से उससे कुछ कम ही लूंगा।' कहते हैं सदन हमेशा के लिए छुरी फेंक कर भाग गया। फिर उसके जीवन की दिशा ही बदल गई। चिन्तनीय बिन्दु है कि कैसे घटे हिंसा-प्रतिहिंसा का व्यवहार? आग को कैरोसिन या पेट्रोल से नहीं बुझाया जा सकता। उसे बुझाने के लिए पानी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। हिंसा को भी प्रतिक्रिया या क्रोध से कभी समाप्त नहीं किया जा सकता।क्षमा और समता से ही उस वासना को निर्मूल किया जा सकता है। उसका अन्य कोई उपाय नहीं है। हिंसा के बारे में कुछ भ्रांतियां जैसे-जैसे हिंसा का प्रसार होता गया और मांसाहार बढ़ता गया, वैसे इन्द्रिय-लोलुप व्यक्तियों ने अपनी करनी को तर्क और धर्म-ग्रन्थों के आधार पर उचित ठहराने के प्रयत्न भी किये। अनेक शास्त्रों में प्रक्षेपण करके हिंसा-समर्थक प्रसंग जोड़ दिये । अर्थ का अनर्थ किया गया। अनेक असंगत मान्यताओं का आधार लेकर हिंसा को पुण्य और धर्म से भी जोड़ा गया। यहां हम कुछ धारणाओं का उल्लेख करेंगे १. पूज्य पुरुषों के स्वागत-सत्कार में हिंसा करना। २. शाकाहार में अनेक जीवों की हिंसा होती है परन्तु मांसाहार में एक पशु को मारने से ही काम चल जाता है, इसलिए मांसाहार ही भला है, ऐसा कुतर्क देकर मांसाहार को उचित ठहराना। ३. हिंसक जीवों को मार देने से अनेक जीवों की रक्षा होती है, ऐसा मानकर हिंसक प्राणियों की हिंसा को उचित मानना। ४. दुःखी जीवों को दुःख से छुड़ाने के लिये मार डालना। ५. सुख की हालत में जीव को मार देने से दूसरे भव में उसे वैसा ही सुख मिलता है, अत: किसी जीव के लिए सुख की स्थिति उत्पन्न करके परभव में सुख की कामना करके उसे उस हालत में मार डालना। 12 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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