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________________ जैनदर्शन में अहिंसा अणुव्रत के पांच अतिचारों का उल्लेख भी है जो अहिंसा के सूक्ष्म चिन्तन को दर्शाते हैं। बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण, अन्नपान का निरोध-ये अहिंसा अणुव्रत के पांच अतिचार हैं। इन अतिचारों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि जीवों के प्रति कष्ट या हिंसा ही नहीं, अतिभारारोपण आदि के द्वारा शोषण भी हिंसा में सम्मिलित हो जाते हैं। सर्वप्राणियों को आत्मतुल्य समझना अर्थात् सघन आत्मौपम्यता की अनुभूति को जैनदर्शन में अहिंसा का आधार मानते हुए कहा गया है-जो व्यक्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों (वनस्पति) का हनन करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का हनन करता है। जैसे मुझे कोई मारे-पीटे, प्रताड़ित करे, दु:ख दे, व्याकुल करे, भयभीत करे, प्राणहनन करे तो जैसा दुःख मुझे होता है वैसी ही अनुभूति अन्य जीवों को होती है, अतएव किसी भी प्राणी, भूत, जीव या सत्त्व को न तो मारना चाहिए और न उन पर हुकूमत करनी चाहिए। आत्मवत् सर्वभूतेषु अर्थात् अपने ही समान सृष्टि के सब प्राणियों को समझना अहिंसा का व्यापक और विराट रूप है। क्या अहिंसा कार्यकारी है ? अहिंसा का चिन्तन इस आधार पर भी किया जा सकता है कि जिन कार्यों को हिंसा सम्पादित करती है उन कार्यों को अहिंसा कैसे बेहतर तरीके से सम्पादित कर सकती है, इस चिन्तन से पूर्व हमें यह भी देखना होगा कि क्या हिंसा कार्यकारी है ? हिंसा की सफलता या असफलता सामान्यत: हिंसा को एक युक्ति समझकर आंकी जाती है । हिंसा को एक सिद्धान्त, दर्शन या जीवनशैली के रूप में स्वीकार करने वाले वे लोग भी नहीं होंगे, जो इसका प्रयोग एक युक्ति के रूप में करते हैं। एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति का जब अन्य कोई विकल्प नहीं हो तो वे उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु हिंसा को एक अंतिम हथियार के रूप में प्रयुक्त करते हैं। जैसे एक व्यक्ति पर किए गए आक्रमण के समय स्वयं की सुरक्षा के लिए हिंसा के प्रयोग को वे न्यायोचित मानते हैं अथवा एक राष्ट्र की सरक्षा के लिए आक्रमण उचित समझा जाता है। इस संदर्भ में आत्मरक्षा एवं सुरक्षा जैसे विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक युक्ति के रूप में हिंसा कभी कार्यकारी है और कभी नहीं। कभी हम प्रतिरक्षा के लिए आक्रमण करते हैं और कभी नहीं। कभी आक्रामक राष्ट्र पर आक्रमण किया जाता है और कभी नहीं। यहां यह ध्यान रखने योग्य है कि ये सभी सन्दर्भ द्विपक्षीय हैं। दोनों पक्ष हिंसा का प्रयोग करते हैं तथा एक साधन के रूप में हिंसा का प्रयोग एक पक्ष को सफल करता है, दूसरे को विफल अर्थात् जो पक्ष विजयी होगा उसके लिए हिंसा कार्यकारी है जबकि पराजित के लिए यह कार्यकारी नहीं होगी। हिंसा की सफलता के आकलन के लिए हम कुछ ऐसे संदर्भ भी देखें जिनमें एकपक्षीय हिंसा का प्रयोग हुआ हो तथा उस पक्ष ने अपने उन उद्देश्यों को प्राप्त किया हो जिन्हें अन्य साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सका हो। जैसे लूट-पाट करने वाले की एवं बलात्कारी की सफलता अन्तर्वैयक्तिक स्तर पर हिंसा की सफलता है । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यद्यपि ऐसे मामले कुछ कम स्पष्ट हैं, क्योंकि वहां हिंसा का एकपक्षीय प्रयोग बहुत कम अवसरों पर होता है। युद्ध इसलिए घटित होते हैं, क्योंकि वहां दोनों पक्ष लड़ाई के विकल्प को चुनते हैं । वह राष्ट्र जो आक्रमणकारी तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002 - - 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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