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का शिकार होता है, नि:संदेह हिंसा का सहारा लेता है, क्योंकि हिंसा उनके विरुद्ध पहले प्रयुक्त की गई होती है। आक्रमणकारी राष्ट्र भी प्रायः हिंसा का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि उनके आक्रमण का प्रतिरोध हिंसा के द्वारा किया जाता है। यह मान भी लें कि हिंसा का प्रयोग एक पक्ष के द्वारा होता है और वह पक्ष हिंसा के द्वारा अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल होता है, क्या फिर भी यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हिंसा कार्यकारी रही? उसने जिन विशेष उद्देश्यों की प्राप्ति की है उन पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है और यदि ये उद्देश्य पूरे हुए भी हों तो क्या वे प्रासंगिक रहे हैं?
यहां हमें साध्य-साधन के सिद्धान्त पर भी विचार करना आवश्यक है। एक कार्य या साधन तभी प्रभावपूर्ण है जब उसके द्वारा साध्य प्राप्ति में सफलता मिली हो। मानलें कि हिंसा के द्वारा कुछ मामलों में ऐसी सफलता मिली है किन्तु यह विचार करना आवश्यक है कि वह सफलता किस कीमत पर मिली। हम ऐसे मामलों में निर्णय करते समय यह तो ध्यान रखते हैं कि एक साध्य की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त साधन ने सम्बन्धों की नैतिक गुणवत्ता को प्रभावित किया है, किन्तु हम साध्य और साधन के बीच अन्तर्सम्बन्ध को देखने में असफल रहते हैं। उदाहरणतः सेल्फ में पुस्तक रखने के लिए स्ट्रल एक साधन है। इस साधन के द्वारा साध्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। स्टूल की जगह कुर्सी या अन्य साधनों का भी हम साधन के रूप में उपयोग कर सकते थे और उससे भी साध्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कुछ मामलों में साधन साध्य के स्वरूप को प्रभावित करता है। जैसे रोटी बनाने के लिए आटा एक साधन है। यदि आटे की जगह गेहूं का उपयोग हो तो वह साध्य के स्वरूप को बदल देगा। रंगों के साथ भी ऐसा ही होता है । नैतिक मामलों में साध्य और साधन के बीच सम्बन्ध पुस्तक के उदाहरण की अपेक्षा रोटी के उदाहरण के अधिक समान प्रकृति का है। साध्य का स्वरूप बहुत कुछ उसकी प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये गये साधन द्वारा निश्चित होगा। हिंसा के द्वारा जो प्राप्त करना चाहते थे वह हमने प्राप्त कर लिया हो तो उसके साथ मनुष्य एवं संपत्ति की क्षति, दुःख, चोट, मृत्यु या विध्वंस की कुछ निश्चित मात्रा भी हमें गौण उत्पाद के रूप में मिलेगी। क्योंकि हिंसा का स्वरूप ही ऐसा है । हम इस विशेष परिस्थिति के अतिरिक्त भय, विश्वास, घृणा आदि का वातावरण भी बना देते हैं। हिंसा करने वाले व्यक्ति स्वयं में भी संवेदनहीनता और क्रूरता पैदा कर लेते हैं। इन प्रभावों को हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। ये उसी साध्य के साथ पैदा हुए गौण उत्पाद हैं, जिसे हम प्राप्त करना चाहते थे।
यहां हमारा तर्क यह है कि जिन कुछ मामलों में हिंसा सफल होती है उनमें भी यह कई प्रकार से असफल भी रहती है। यहां यह गम्भीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हिंसा वास्तव में ही कार्यकारी है ? और क्या यह सदैव वैसे ही कार्य करती है जैसा हम सोचते हैं ? अगर हम विध्वंस
और क्षति के बिना साध्य प्राप्त करना चाहेंगे तो हम पायेंगे कि हिंसा कार्यकारी नहीं है और यह कार्यकारी हो भी नहीं सकती।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि हम अहिंसा की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना चाहते हैं तो हमें चीजों को भिन्न तरीके से देखना आवश्यक है। प्रश्न केवल इतना नहीं है
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 115
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