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आधुनिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में
भगवान महावीर का चिन्तन
- रजनीश शुक्ल
तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्त समग्र मानवीय जीवन दर्शन या जीवन-संस्कृति से अनुप्राणित हैं, जो मुख्यतया अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की त्रयी पर आधारित है । महावीर के अनुसार दृष्टिनिपुणता तथा सभी प्राणियों के प्रति संयम ही अहिंसा है। दृष्टिनिपुणता का अर्थ सतत जागरूकता तथा संयम का अर्थ है-मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं का नियमन । जीवन के स्तर पर जागरूकता का अर्थ तभी सार्थक होता है जब उसकी परिणति संयम हो । संयम का लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है जब उसका जागरूकता द्वारा सतत दिशानिर्देश होता रहे । लक्ष्यहीन और दिग्भ्रष्ट संयम अर्थहीन काय-क्लेश मात्र बनकर रह जाता है।
महावीर के सिद्धान्तों में प्रतिबिम्बित श्रमण संस्कृति के सन्दर्भ में ज्ञानदृष्टि के आधार पर जीवनचर्या का संयमन ही तात्विक संयम है। जीवनचर्या के संयमन के बिना मानव जाति में एकता की प्रतिष्ठा तथा विलास वैभव का नियंत्रण सम्भव नहीं। एकता
और समता, संयम और नियंत्रण के अभाव की स्थिति में हिंसा की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है जिससे जनता का दुःख बढ़ता है। इसलिए महावीर ने दूसरे के दुःख को दूर करने की धर्मवृत्ति को अहिंसा कहा है। महावीर के सिद्धान्तों से मानव जाति को एकता का संदेश मिला है तथा अनुध्वनित अपरिग्रह एवं अहिंसा के संदेश मनुष्य की वर्तमान आर्थिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं को ऊपर उठाने से अधिकाधिक उपयोगी हो सकते हैं। उन्होंने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए बल दिया था कि वह जानते थे कि आर्थिक असमानता और आवश्यक वस्तुओं का अनुचित संग्रह सामाजिक जीवन को विघटित करने वाला है। महावीर ने ऐसे समाजघाती परिग्रहवाद के विरोध में आवाज उठाई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना की।'परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् जीवों के प्रति परस्पर उपकार की भावना ही उनकी जीवन साधना का लक्ष्य था और इसका प्रतिफलन उनके मूल्यवान सिद्धान्तों में हुआ है।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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