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है। कषाय होती है तो हिंसा होती है। कषाय नहीं होती है तब हिंसा भी नहीं होती है। कषाय जितनी कम होगी, हिंसा भी उतनी ही कम होगी।
इस प्रकार हिंसा का स्तर निर्धारित करने के दो साधन हैं-जीवों के विकास के स्तर का आपसी अन्तर और कषाय की मात्रा । यदि सभी जीवों की हिंसा का कुफल समान होता या हिंसा का पाप हिंसित जीवों की संख्या पर निर्भर होता, तो एक व्यक्ति जो दो-चार गाजर-मूली उखाड़ लेता है और दूसरा व्यक्ति जो एक मनुष्य की हत्या कर देता है, दोनों को समान पापी माना जाता। बल्कि मनुष्य का हत्यारा कुछ कम पापी माना जाता, क्योंकि उसने सिर्फ एक प्राणी की हिंसा की है। परन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि जिनका विघात हुआ है उन जीवों के स्तर में अन्तर है।
स्थावर जीवों की हिंसा के समय उनकी ओर से कोई प्रतिकार नहीं होता। किसी तरह के दुःख की भावना भी उनमें व्यक्त होती दिखाई नहीं देती, इसलिए पृथ्वी-जल-वायु-अग्नि और वनस्पति की हिंसा के समय हमारे मन में विशेष क्रूरता या कषाय अनिवार्य नहीं है । इसीलिए उस हिंसा का फल भी अल्प है । जैसे-जैसे हम एक इन्द्रिय से पंच-इंद्रिय प्राणी की हिंसा की
ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे हमारे मन में कषाय की मात्रा बढ़ती जाती है, परिणामों में क्रूरता अनिवार्य होती जाती है, अत: उसमें उत्तरोत्तर अधिक हिंसा होती है। उसका फल अधिक दुःखदायक होता है। द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसा
हिंसा मन-वाणी और शरीर तीनों के माध्यम से होती है। परन्तु जब हिंसा की बात आती है तब प्रायः वाणी और शरीर के माध्यम से होने वाली हिंसा को रोकने पर ही जोर दिया जाता है। मन के माध्यम से होने वाली हिंसा को रोकना अनावश्यक, उपेक्षनीय या असम्भव मानकर उसकी चर्चा छोड़ दी जाती है। जैनाचार्यों ने मन के माध्यम से होने वाले पापों को रोकने पर अधिक जोर दिया है। उनकी मान्यता है कि मन के पाप रोके बिना वचन और काय के पाप नहीं रोके जा सकते । उन्होंने यह भी माना है कि जीव की करनी से जो कर्म संचित होता है उस कर्म में फल देने वाली शक्तियां जीव की तात्कालिक मानसिक दशा के आधार पर ही उत्पन्न होती है।
इस चिन्तन के आधार पर जैन संतों ने हिंसा को भाव-हिंसा और द्रव्य-हिंसा दो प्रकार के भेद से कहा है । प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने का या उनके घात करने का विचार करना भावहिंसा है और पीड़ा पहुंचाने वाली क्रिया द्रव्य-हिंसा है। हिंसा के हर काम की जड़ में भाव-हिंसा अनिवार्य रूप से मौजूद रहती है परन्तु यह नियम नहीं है कि जहां भाव-हिंसा हो वहां उसके फल-स्वरूप हिंसा हो ही जाये। इसका कारण यह है कि किसी का विघात केवल हमारे सोचने से या हमारे कुछ करने मात्र से नहीं हो जाता । जीव का विघात होने में उसका अपना प्रारब्ध तथा अन्य अनेक बाहरी कारण भी महत्त्व रखते हैं।
यह निश्चित है कि किसी का विघात हो या न हो, हिंसा के परिणाम करने वाले जीव को उस विधात का पाप लगता है। उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है। इस प्रकार हमारे कर्म-बंध तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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