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________________ संस्कृति में ब्राह्मण या पुरोहित अग्रणी समझे जाते हैं। इनके द्वारा निर्देशित कर्मकाण्ड मार्ग का अन्य सनातनधर्मी अनुगमन करते हैं, इसे ब्राह्मण संस्कृति के नाम से भी पुकारते हैं। वेद, उपनिषद् आदि इसके आधार ग्रन्थ हैं । श्रमण संस्कृति की दो उपधाराएं हैं- बौद्ध एवं जैन । बौद्ध संस्कृति के आधार ग्रन्थ हैं पिटक आदि तथा जैन संस्कृति आगमों पर आधारित है। वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिपरक जीवन से प्रारम्भ होकर निवृत्तिपरक जीवन की ओर बढ़ती है किन्तु श्रमण संस्कृति शुरू से ही निवृत्तिपरक रही है।' वैदिक परम्परा वैदिक परम्परा का श्रीगणेश वेदों से होता है। हिन्दु धार्मिक मान्यता के आधार पर वेद उन ईश्वरीय पवित्र प्रवजनों के संकलन हैं जो अकाट्य और अमिट हैं । ऐतिहासिकता के आधार पर ये समूचे संसार की मानवकृत रचनाओं में सबसे प्राचीन है। प्राचीनता एवं ज्ञान बाहुल्य के कारण वेदों की गणना संसार की उच्चतम कोटि की रचनाओं में होती है। वैदिक संस्कृति, साहित्य, धर्म एवं दर्शन के ये प्राण हैं । वेद चार हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद । इनमें से प्रत्येक के चार विभाग है- संहिता, ब्राह्मण, अरण्यक तथा उपनिषद् । इनके अलावा स्मृति, सूत्र, रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि वैदिक परम्परा के प्रमुख ग्रन्थ हैं। ___मैं इस शोध पत्र में भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृति के आधारभूत तत्त्व अहिंसा और शांति के सिद्धान्तों की उपयोगिता पर प्रकाश डालना चाहती हूं। जैन-धर्म एवंदर्शन में अहिंसा व शांति का प्रमुख स्थान है। जैन-धर्म दर्शन का अनीश्वरवादी अध्यात्मवाद इसी तत्व से निर्मित है जो प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भावना रखने के सिद्धान्त का प्रतिपादक है। महावीर ने कहा है - तत्थिमं पढ़मं ढ़ाणं, महावीरेण देसियं। अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसुसंजमो॥ सभी जीवों के प्रति संयम और अनुशासन की तथा पारस्परिक संबंध में समता की भावना रखना ही निपुण तेजस्वी अहिंसा है। यह परम सुख और चिदानंद देने में समर्थ है । यद्यपि इस नैतिक सिद्धान्त - "मा हिंस्यात् सर्वभूतानि" किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए, को ब्राह्मण और बौद्ध परम्पराओं ने भी स्वीकार किया है परन्तु जैनधर्म में इसका सार्वत्रिक प्रयोग विहित है। श्रमण और श्रावक दोनों का संपूर्ण जीवन उनकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार पूर्णत: या आंशिक रूप से इसी आधार-सिद्धान्त से नियंत्रित होता है। वस्तुत: जैन धर्म से संबंधित प्रत्येक नियम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसी सिद्धान्त पर आधारित है। अहिंसा विश्व का शाश्वत सिद्धान्त है। यह हमेशा जीव की हिंसा का विरोध करता रहा है, चाहे वह एक मानव की हो, किसी वर्ग की या राष्ट्र की हो अथवा अन्य किसी की। तमाम असफलताओं और उपहासों के बावजूद भी यह क्रोध, मान, कपट, लोलुपता, स्वार्थपरता और ऐसे ही अन्य दूषित भावों के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष करता रहा है। सदियों से जैन अपनी श्रद्धा 28 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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