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3. कोई डॉक्टर ऑपरेशन कर रहा है। रोगी के तन-मन को तो पीड़ा हो रही है पर वह पीड़ा उसे कष्ट देने के लिये नही, आराम पहुंचाने के लिए दी जा रही है। यहां भाव-हिंसा नहीं है परन्तु द्रव्य-हिंसा है।
4. कोई साधक व्यक्ति ऐसा संकल्प करता है कि अमुक समय तक ऐसी सावधानी से चलना है कि मेरे द्वारा किसी जीव की हिंसा न हो जाये।वह ऐसे यत्नाचार पूर्वक अपने आवश्यक कार्य कर भी लेता है कि किसी जीव की हिंसा उसके माध्यम से नहीं होती। यहां दोनों प्रकार की हिंसा नहीं है। यहां भी चारों स्थितियां में कर्ता के मनोभावों के अनुरूप उसे जुदे-जुदे कर्म बंधेगे या फल मिलेंगे। किसे कितनी सजा
किसी नगर में एक दिन तीन घटनाएं घटती हैं। तीनों में एक-एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। किसी व्यक्ति को लूटने के लिए एक डाकू उसके सीने में छुरी भौंक देता है। दूसरी जगह किसी वाहन दुर्घटना में एक व्यक्ति कुचल कर मर जाता है। तीसरी घटना में एक रोगी ऑपरेशन की मेज पर शान्त हो जाता है।
तीनों घटनाओं में एक-एक व्यक्ति के निमित्त से एक-एक व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है । इस प्रकार स्थूल दृष्टि से तीनों घटनाओं का प्रतिफल एक होते हुए भी तीनों व्यक्तियों की मानसिकता में बहुत अन्तर है। उनके अभिप्राय एकदम अलग-अलग हैं। इसीलिए पुलिस की डायरी में और न्यायालय के फैसले में डाकू, ड्राईवर और डॉक्टर-इन तीनों के लिए जुदीजुदी दण्ड-व्यवस्था होगी। उनका अपराध घटना के प्रतिफल से नहीं, तीनों के अभिप्रायों से और उनके मानसिक संकल्पों से तोला जायेगा।
डाकू को हत्या का दोषी ठहराया जाएगा और उसे मृत्यु दण्ड जैसा कठोर दण्ड दिया जा सकता है। उसके द्वारा आहत व्यक्ति यदि बच भी जाए, तो भी डाकू को हत्या के प्रयास के लिए दण्डित किया जाएगा। ड्राइवर को हत्या का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उसे घटना के तथ्यों के अनुरूप या तो दोषपूर्ण वाहन चलाने के लिए अथवा असावधानी से वाहन चलाने के लिए दोषी मानकर हल्का दण्ड दिया जाएगा। परन्तु डॉक्टर किसी दण्ड का भागी नहीं होगा। अन्तिम सांस तक रोगी को बचाने का उपाय करने के लिए उसकी प्रशंसा की जाएगी। पुलिस और कानून तो उससे कुछ बोलेंगे ही नहीं, रोगी के सम्बन्धी भी उसका उपकार ही मानेंगे।
लोक-परलोक की व्यवस्था भी ऐसी ही है। कर्म-बन्ध और कर्म-फल का गणित भी लौकिक कानून के अनुरूप पूरी तरह ऐसे ही प्राकृतिक न्याय पर आधारित है। द्रव्य-हिंसा या भौतिक-हिंसा का स्वरूप चाहे जैसा हो, उसमें संलग्न सभी लोगों को अपनी-अपनी भाव-हिंसा के अनुसार कर्म-बन्ध होता है। इसीलिए तो कभी-कभी दूर बैठा हुआ व्यक्ति उस पाप का भागीदार होता है जबकि उस हिंसा में साक्षात् संलग्न व्यक्ति उतना भागीदार नहीं होता। कोई करता हुआ दिखाई देता है पर यथार्थ कर्ता नहीं है। कोई करता नहीं है फिर भी उसे कर्म का तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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