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________________ कोई पृथक् धर्म नहीं है, वाणी और शरीर के ये दोनों परम-धर्म मिलकर अहिंसा को श्रेय देते हैं। उसकी प्रतिष्ठा करते हैं, इसलिए उन्हें परम धर्म' कहा गया है। __ महाभारत में अहिंसा का उपदेश पग-पग पर मिलता है। शांतिपर्व में एक जगह कहा गया है कि अध्ययन-मनन, यज्ञ, तप, इन्द्रिय-संयम एवं अहिंसा-धर्म का पालन जिस क्षेत्र में होता हो वहीं व्यक्ति को निवास करना चाहिये। (महाभारत, शांतिपर्व, ३०४-८८-८९) महाभारत में अन्य अनेक प्रसंगों में अहिंसा को नैतिक तथा धार्मिक दोनों दृष्टियों से सर्वोच्च प्रतिष्ठा देते हुए कहा गया है कि अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा ही परम तप है, अहिंसा ही परम सत्य है और अहिंसा ही धर्म का प्रवर्तन करने वाली है। यही संयम है, यही दान है, परम ज्ञान है और यही दान का फल है। जीवन के लिए अहिंसा से बढ़कर हितकारी, मित्र और सुख देने वाला दूसरा कोई नहीं है। (महाभारत, अनुशासन पर्व, ११५-२३, ११६-२८-२९) अनुशासन पर्व में भी कहा गया, 'देवताओं और अतिथियों की सेवा, धर्म की सतत आराधना, वेदों का अध्ययन, यज्ञ, तप, दान, गुरु और आचार्य की सेवा तथा तीर्थों की यात्रा, ये सब मिलाकर अहिंसा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं । अहिंसा इन सबसे श्रेष्ठ है।' (महाभारत, अनुशासन पर्व, १४५) पुराणों में अहिंसा को सर्व धर्मों में श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया, 'चार वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से जितना पुण्य प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य-प्राप्ति अहिंसा के पालन से होती है। (मत्स्य -पुराण, १०५-४८) भारतीय मनीषा में पग-पग पर बिखरे हुए ये शाश्वत सम्बोधन हमें आश्वासन देते हैं कि अहिंसा अनन्त काल तक मानव मन को प्रकाशित करती रहेगी। वह उधार के तेल से जलाया गया दीपक नहीं है जो घड़ी भर में बुझ जाये। अहिंसा तो एक आंतरिक प्रकाश है । वह मानवता की सहज-स्वाभाविक और शाश्वत ज्योति है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकेगा। अहिंसा मनुष्य का स्वभाव है और हिंसा, क्रूरता आदि उसके विकार हैं। विकार स्थायी नहीं होते, स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता। भावनाएं भड़का कर इन्सान को कुछ समय के लिए शैतान बनाया जा सकता है, पर उसे हमेशा के लिए शैतान बनाकर नहीं रखा जा सकता। हिंसा पर अहिंसा की विजय का विश्वास दिलाने वाला यही सबसे बड़ा प्रमाण है। शांति सदन, कम्पनी बाग, सतना (मध्यप्रदेश) 485009 14 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524610
Book TitleTulsi Prajna 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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