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धर्म एवं दर्शन का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जो कि वैज्ञानिक हो । वैज्ञानिकों की प्रतिपत्तियों को खोजने का मार्ग एवं धार्मिक मनीषियों एवं दार्शनिक तत्त्वचिन्तकों की खोज का मार्ग अलग-अलग हो सकता है किन्तु उनके सिद्धान्तों एवं मूलभूत प्रत्ययों में विरोध नहीं होना चाहिए ।
आज ऐसे धर्म एवं दर्शन की आवश्यकता है जो समाज के सदस्यों में परस्पर सामाजिक सौहार्द एवं बंधुत्व का वातावरण निर्मित कर सके। यदि यह न हो सका तो किसी भी प्रकार की व्यवस्था एवं शासन पद्धति से समाज में शांति स्थापित नहीं हो पायेगी ।
इस दृष्टि से यह विचार करना है कि भगवान् महावीर ने 26 सौ वर्ष पूर्व अनेकान्तवादी चिन्तन पर आधारित अपरिग्रहवाद एवं अहिंसावाद से युक्त जिस ज्योति को जगाया था, उसका आलोक आज के अंधकार को दूर कर सकता है या नहीं ? आधुनिक वैज्ञानिक एवं बौद्धिक युग में वही धर्म एवं दर्शन व्यापक हो सकता है जो मानव मात्र को स्वतंत्रता एवं समता की आधारभूमि प्रदान कर सकेगा। इस दृष्टि से मैं यह कहना चाहूंगा कि भारत में विचार एवं दर्शन
धरातल पर जितनी व्यापकता, सर्वांगीणता एवं मानवीयता की भावना रही है, समाज के धरातल पर वही नहीं है। दार्शनिक दृष्टि से यहां यह माना गया है कि जगत् में जो कुछ स्थावरजंगम संसार है वह सब एक ही ईश्वर में व्याप्त है - उ ईशावास्यमिदं सर्व यत्किंच जगत्यां जगत्'
पंडित एवं विद्वान् की कसौटी यह मानी गयी है कि उसे संसार के सभी प्राणियों को अपने समान मानना चाहिए-" आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः " |
भक्ति का मूल भी यही है-आराध्य की सेवा, शरणागति एवं आराधना | भक्ति में भक्त भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करना चाहता है, बिना उसके अनुग्रह के कल्याण नहीं हो सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी कारण लिखा कि वही जान सकता है जिसे वे अपनी कृपा द्वाराज्ञान देते हैं-" सो जानई जेहि देहु जनाई "" । भक्ति सिद्धान्त में भी साधक अपनी साधना के बल पर मुक्ति का अधिकार प्राप्त नहीं कर पाता, इसलिए उसे भगवत्कृपा होनी जरूरी है।
जैन दर्शन समाज के प्रत्येक मानव के लिए समान अधिकार जुटाता है। सामाजिक समता एकता की दृष्टि से श्रमण परम्परा का अप्रतिम महत्त्व है। इस परम्परा में मानव को मानव के रूप में देखा गया है, वर्णों, वादों, सम्प्रदायों आदि का लेबल लगाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में नहीं। मानव महिमा का जितना जोरदार समर्थन जैनदर्शन में हुआ है वह अनुपम है । भगवान् महावीर ने जातिगत श्रेष्ठता को कभी आधार नहीं बनाया ।
वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो ।
न मुणी रण्णवासेणां, कसुचीरेण न तावसो ।'
अर्थात् केवल सर मुंड लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जाप करने मात्र से कोई ब्रह्म नहीं होता, केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता। दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा, अपने असद् गुणों और दूसरों के
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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