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तीर्थंकरों के प्रतीक चिह्न और पर्यावरण
चौबीस तीर्थंकरों के चिह्न पर्यावरण संरक्षण के रहस्य को समेटे हुए हैं। जैन श्रमणों, तीर्थकरों की दिगम्बर- मुद्रा प्रकृति तथा परिस्थिति की मूल अवधारणा से जुड़ी है। प्रकृति में कोई आवरण नहीं, इसी प्रकार प्रकृतिस्थ जीवन आवरण रहित होता है। वस्तुत: जैन धर्म प्रकृति के साथ तादात्म्य की अनोखी प्रस्तुतिं है। अतएव तीर्थंकरों ने प्रकृति, वन्य- पशु, वनस्पति जगत् के प्रतीक चिह्नों से अपनी पहचान जोड़ दी ।
बारह थलचर जीव-वृषभ, हाथी, घोड़ा, बंदर, गैंडा, महिष, शूकर, सेही, हिरन, बकरा, सर्प और सिंह है। जहां वृषभ कृषि अन्न उत्पादन का मुख्य घटक है, वहीं शूकर अस्पर्श समझा जाने वाला पशु जीवों से उत्सर्जित मल का भक्षण कर पर्यावरण को शुद्ध रखने वाला एक उपकारक पशु है। सर्प विषैले कीटों का भक्षण कर वातावरण को हानिकारक जीवाणुओं से रहित
बनाता है ।
सिंह को छोड़ शेष ग्यारह पशु शाकाहारी है, जो शाकाहार की शक्ति के संदेश वाहक हैं। चक्रवाह एक नभचर प्राणी है तथा मगर, मछली और कछुआ जलचर पंचेन्द्रिय है जो जलप्रदूषण को समाप्त करने में सहायक जलजंतु है। लाल, नील कमल तथा कल्पवृक्ष वनस्पति जगत्
प्रतिनिधि है । कमल - वीतराग भाव का प्रतीक है जिसकी सुरभि पर्यावरण को सुवासित करती है और सौन्दर्य का अवदान देती है। जड़ वस्तुओं में वज्रदण्ड, मंगलकलश, अर्धचन्द्र और शंख तथा स्वस्तिक सभी मानव-कल्याण की कामना के प्रतीक हैं। ये सभी चौबीस चिह्न प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े मुख्य घटक हैं।
जैन दर्शन में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का अमर सूत्र एवं पर्यावरण
उमास्वामी पूज्य ने तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ में एक महान् सूत्र दिया है-'परस्परोपग्रह जीवानाम्' (५,२१) परस्पर एक जीव का दूसरे जीवों के लिए उपकार है। जगत् में निरपेक्ष जीवन नहीं रह सकता। एक बालक की योग्यता के निर्माण में उसके माता-पिता, गुरु, समाज, शासन, संगति एवं पर्यावरण आदि सभी का उपकार जुड़ा होता है। हर व्यक्ति पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से जुड़ा है और अन्यान्य ग्रहों की अदृश्य शक्तियों से प्रभावित रहता है। उसके अस्तित्व की डोर धर्म और अधर्म, द्रव्य, आकाश, काल और पुद्गल द्रव्य के उपकार से सम्बद्ध है। प्राणी एवं मनुष्य वनस्पति जगत् के उपकार से निरपेक्ष नहीं। मनुष्य की त्याज्य अशुद्ध हवा जहां वृक्ष-पादपों के लिये ग्राह्य होती है वहीं वनस्पतियों द्वारा उत्सर्जित वायु मानव व अन्य प्राणियों के लिए प्राणवायु है । इस अन्योन्याश्रय सिद्धांत पर प्रकृति और सम्पूर्ण पर्यावरण टिका होता है । जैन संस्कृति का बहुमान - तीर्थक्षेत्र, मंदिर तथा पर्यावरण
समस्त जैन तीर्थ, सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, हरे-भरे वृक्षों से युक्त पर्वत, शिखरों, नदियों के फूलों, झीलों, उद्यानों आदि पर अवस्थित हैं। चाहे वह निर्माण भूमि सम्मेद शिखर (मधुवन) हो या गिरनार पर्वत, चाहे श्रवणबेलगोला की विन्ध्यगिरी की मनोरम उपत्यकाएं हों या राजस्थान के आबू पर्वत पर देलवाड़ा के विश्व प्रसिद्ध मंदिर या बुन्देलखण्ड के अतिशय क्षेत्र देवगढ़, कुण्डलपुर, सोनागिर गुजरात का शत्रुञ्जय क्षेत्र, पालीताणा सभी शुद्ध पर्यावरण के पवित्र स्थान हैं ।
तुलसी प्रज्ञा अंक 115
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