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है, अत: घड़ा नहीं है, यह कथन भी किसी अपेक्षा से सत्य है। अत: उसके सत् धर्म को लेकर आग्रही नहीं बनना चाहिए। 3. सामान्य और विशेष
प्रत्येक द्रव्य में सामान्य और विशेष दोनों गुण पाए जाते हैं। सामान्य गुण ध्रौव्यत्व का प्रतीक है और विशेष गुण पर्याय का । एक ही व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक यह वही है, इस कथन से अभिव्यक्त होता है लेकिन यह बच्चा है, युवक है, बूढ़ा है, इसी के विशेष गुण हैं । अतः सापेक्षता का यह सिद्धान्त हर स्थिति में व्यवहार्य है। 4. वाच्य और अवाच्य
प्रत्येक द्रव्य में अनन्त विरोधी धर्म होते हैं। जिस समय जिस धर्म का कथन किया जाता है उस समय शेष सभी धर्म अवाच्य हो जाते हैं लेकिन उसका यह अर्थ नहीं होता कि उसमें वे धर्म नहीं हैं। उदाहरण के लिए एक लड़की संगीतज्ञा भी है, लेखिका भी है, गृहकार्य में दक्ष भी है, और भी अनेक गुणों से युक्त है लेकिन प्रसंगवश उसके सभी गुणों का व्याख्यान न करके, एक गुण का ही व्याख्यान किया जाता है । उस समय बाकी के गुण अवाच्य ही रहते हैं, अतः ऐसा मानना कि वह मात्र लेखिका ही है, यह मिथ्या होगा।
हम वर्तमान पर्याय के आधार पर पदार्थ की व्याख्या करते हैं, यह हमारा सापेक्ष दृष्टिकोण हैं। अपेक्षा के मुख्य दृष्टि बिन्दु चार हैं-1. द्रव्य 2. क्षेत्र 3. काल 4. भाव
एक के लिए जो गुरु है वही दूसरे के लिए लघु, एक के लिए जो दूर है वही दूसरे के लिए निकट, एक के लिए जो ऊर्ध्व है वही दूसरे के लिए निम्न, एक के लिए जो सरल है वही दूसरे के लिए वक्र होता है। अपेक्षा के बिना किसी की सही व्याख्या नहीं हो सकती कि गुरु और लघु क्या है ? दूर और निकट क्या है ? ऊर्ध्व और निम्न क्या है ? सरल और वक्र क्या है ? द्रव्य
और क्षेत्र आदि की निरपेक्ष स्थिति में उसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। द्रव्य अनन्त गुणों और पर्यायों का सहज सामञ्जस्य है। इसके सभी गुण और पर्याय निरपेक्ष दृष्टि से नहीं समझे जा सकते। एक गुण द्रव्य के जिस स्वरूप का निर्माण करता है वह उसी गुण की अपेक्षा से होता है। दूसरे गुण की अपेक्षा से नहीं होता। चेतन द्रव्य चैतन्य गुण की अपेक्षा से ही चेतन है। उसके सहभावी अस्तित्व, वस्तुत्व आदि गुणों की अपेक्षा वह चेतन नहीं है।
भगवान महावीर के युग में प्रत्येक द्रव्य तथा उसके गुण और पर्यायों का नय दृष्टि से विचार किया जाता था। उस समय नय वाक्य के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता था। सिए अत्थि, सिए नत्थि, सिए सासए, सिय असासए- ये शब्द नय वाक्य के आगमयुगीन उदाहरण
आज के इस विषम युग में जहां विश्व भौतिकता की अन्धी दौड़ में बेतहाशा दौड़ा जा रहा है। कोई किसी को सहन करने में सक्षम नहीं हैं, संयुक्त परिवारों की नींवें तीव्र गति से उखड़ती जा रही है। पति और पत्नी में भी नित्य नौंक-झौंक बनी रहती है। गुरु-शिष्य, पिता
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2002
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