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हम कोई नई स्थापना नहीं कर रहे हैं। जो यथार्थ है, उसे मात्र अनावृत्त कर रहे हैं। मनुष्य प्रकृति से हिंसा के लोक में जीता है। दूसरे जीवों के बलिदान पर उसका जीवन चलता है । दूसरों के तिरस्कार पर उसके सम्मान का पौधा फलता है। कुछ भी मन के प्रतिकूल होता है तो वह क्रोध से भर जाता है। उसका वैभव प्रवंचना और शोषण पर फलित होता है। हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी बड़ा और कोई छोटा हो सकता है। हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी समृद्ध और कोई गरीब हो सकता है। हिंसा की प्रकृति से मुक्त होकर कोई आदमी शोषक और शोषित हो सकता है। ये सभी वर्ग हिंसा के द्वारा लोक में बनते हैं। फिर भी हिंसा उसको भी प्रिय है, जो छोटा है, जो गरीब है और जो शोषित है, क्योंकि हिंसा मनुष्य की प्रकृति है। अहिंसा मनुष्य की प्रकृति नहीं है। वह सैद्धान्तिक स्वीकृति और ऊर्ध्वारोहण का प्रयत्न है। उस प्रयत्न की दिशा में मनुष्य प्रेम से क्रोध, विनम्रता से अभिमान, ऋजुता से प्रवंचना और साम्य की अनुभूति से लोभ पर विजय प्राप्त करता है। प्रेम, विनम्रता, ऋजुता और साम्य की अनुभूति की एक शब्द में जो पहचान है, वह अहिंसा है।'
अहिंसा की पकड इतनी स्थूल है कि कुछ जीवों को मारने या बचाने का प्रयत्न कर आदमी अपने को अहिंसक मान लेता है। वह अहिंसा की एक रेखा हो सकती है किन्तु उसकी समग्रता नहीं है। अहिंसा की पूर्णता वृत्तियों के शोधन से प्रकट होती है।
असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह हिंसा के पोषक तत्व हैं । इन सभी से किसी रूप में हिंसा होती है। ठीक इसके विपरीत सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह अहिंसा के पोषक तत्व हैं यानी अहिंसा का सब तरह से पालन करने के लिए इन चारों व्रतों का पालन करना आवश्यक है। अहिंसा के मिल जाने पर ये पांच महाव्रत हो जाते हैं। इन पंच महाव्रतों को गांधीवाद तथा जैन-धर्म दोनों ही प्रधानता देते हैं। गांधीजी ने साफ कहा है कि अहिंसा एक महाव्रत है। जैन धर्म में अहिंसा का स्थान सर्वोच्च है। अहिंसा और खेती
हिंसा अथवा अहिंसा भावप्रधान है। इस पर गांधीवाद तथा जैन- धर्म दोनों ही बल देते हैं। खेती करने में किसान के द्वारा अनेक जीव जन्तुओं का हनन होता है जब वह हल जोतता है, किन्तु किसान का उद्देश्य जीवों की हिंसा करना नहीं होता, वह तो मात्र हल जोतने की इच्छा रखता है । इसलिए उसके द्वारा की गई हिंसा क्षम्य समझी जाती है अर्थात् हिंसा करते हुए भी वह अहिंसक ही समझा जाता है, क्योंकि उसकी भावना हिंसाप्रधान न होकर अहिंसा प्रधान होती है।"
निर्धन धन की खोज में रहता सदा अशान्त। धनपति धन उन्माद में हो जाता उद्भ्रान्त ॥ कारण उभय अशान्ति के, हैं अभाव-अतिभाव। है उपाय सुख शान्ति का, एक मात्र समभाव ॥
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 115
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