Book Title: Stotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Author(s): Hemchandracharya, Kirtichandravijay, Prabodhchandravijay
Publisher: Bhailalbhai Ambalal Petladwala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अर्हम् ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित * स्तोत्रत्रयी * (सकलार्हत्स्तोत्र - वीरजिनस्तोत्र - महादेवस्तोत्र ।) T .स I सद तान का गुरुभ्या माद Q- 0 0 -द कीर्ति कला पन्यासश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचित कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरमूर्तिपूजक-जैनसंघ (उपधानतपसमिति तथा गुजराती जैनवाडी, मद्रास) की तरफसे सादर सप्रेम स्वाध्यायार्थे भेट Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:शा. भाईलाल अम्बालाल पेटलादवाला। प्राप्तिस्थान:JAIN MISSION SOCIETY, 409-10, MINT STREET, MADRAS-1.. प्राप्तिस्थान :शान्तिलाल, पी. महेता SHANTILAL, P. MEHTA नं० ९ ठे. ब्राडवे, मद्रास-१. No, 9, BROADWAY MADRAS-1. सर्वेऽधिकाराः स्वाधीनाः । मुद्रक : रत्नम प्रेस, बदरियन स्ट्रीट, मद्रास -१. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHRESTHETASTURan HasizTORIES आचार्य श्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरजी महाराज साहेब Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. आचार्य श्रीविजयकस्तूरसूरिशिष्यरत्न पन्यास प्रवर श्री कीर्तिचन्द्रविजयजी गणिवर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीविजय - नेमि - विज्ञान - कस्तूरसूरिसद्गुरुभ्योनमः कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचिता * स्तोत्रत्रयी (सकलाऽर्हत्स्तोत्र - वीरजिनस्तोत्र - महादेवनीत्र । तपोगच्छाधिपतिशासनसम्राट्कदम्बगिरिप्रभृत्यनेकती . चार्याचार्यवर्यश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वर-पट्टालङ्कारसम चायवर्यश्रीविजयविज्ञानमुरिश्वर-पट्टधर-सिद्धान प्राकृतविद्विशारदाचार्यवर्यश्रीविजयकस्तूरसूरीश्व पन्यासश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचि कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुसहित सम्पादक:मुनि श्रीप्रबोधचन्द्रविजयः। विक्रम संवत् - २०१६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीयः प, पूज्य पन्यासप्रवर श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिवर महाराजसे रचित कीर्तिकलानामक संस्कृत तथा हिन्दीव्याख्यासहित-कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यनिर्मित-स्तोत्रों में, द्वात्रिंशिकाद्वयी (अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका) तथा वीतरागस्तवके चार. पुस्तकों में प्रकाशन हो चुके हैं। जिसका जैन समाज तथा अन्यत्रभी अच्छा स्वागत तथा आदर किया गया है। एवं विद्वानोंने उनकी मुक्तकंठसे प्रशंसाकी है। प्रस्तुत स्तोत्रत्रयी नामके दो ग्रन्थों के प्रकाशनमें उक्त पन्यास महाराजके द्वारा निर्मित कीर्तिकलानामकी - संस्कृतव्याख्या तथा हिन्दीभाषानुवादसहित उक्त आचार्यमहाराजके तीन - सकलार्हत्स्तोत्र, वीरजिनस्तोत्र, महादेवस्तोत्र-स्तोत्रोंका समावेश किया गया है। जैसे- उक्त तीनों स्तोत्रोंका संस्कृत तथा हिन्दीव्याख्यासहित एक पुस्तक तथा केवल हिन्दीव्याख्यासहित दूसरी पुस्तक । ___ सकलार्हत्स्तोत्र उक्त आचार्यमहाराजविरचित प्रसिद्ध महान् प्रबन्ध त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितका मंगलाचारण है। इसका जैन समाजमें क्या स्थान है, इस विषयमें कुछ कहना, इस स्तोत्रकी प्रसिद्धि एवं आदर तथा प्रतिक्रमणक्रियामें अनिवार्यरूपसे पाठात्मक समावेशको देखते हुए एक धृष्टता जैसे ही होगी। इस स्तोत्रके Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. संस्कृत, हिन्दी तथा गुजराती व्याख्यासहित अनेक प्रकाशन अन्यत्र हो चुके हैं। फिरभी कीर्तिकलाव्याख्याकी अपनी विलक्षणशैली, शब्द - प्रकरण आदिको ध्यानमें रखते हुए पदार्थ तथा भावार्थका स्पष्टीकरण, चमत्कारिक लगे, ऐसे मनोग्राह्य अर्थोंका विश्लेषण तथा कर्त्ता के भावोंका प्रामाणिकरूपसे अधिकाधिक अनुसरण आदि सभी विशिष्टतायें द्वात्रिंशिकाद्वयी तथा वीतरागस्तवके जैसे हीं इस पुस्तक में भी अपने उत्कृष्टरूपसे विद्यमान हैं । - वीरजिनस्तोत्र उक्त आचार्यमहाराजविरचितप्रसिद्ध परिशिष्टपर्वका मंगलाचरण है । तथा इस स्तोत्रका सकलाई स्तोत्र के साथ हीं बड़े आदर एवं भक्ति से पाठ किया जाता है- -यह विदित है । महादेवस्तोत्र, प्रायः अतिसरल समझे जानेके कारण आज तक किसीभी व्याख्याताओंको आकृष्ट नहीं कर सकाथा- ऐसी सम्भावनाकी जा सकती है । किन्तु यहां यह विशेषतः ध्यान देने योग्य है कि इस स्तोत्रके कितने श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध एवं जैन समाजकी भावनाओंको अक्षरदेहमें अत्यन्त सरल एवं प्रभावोत्पादकरीतिसे व्यक्तकरते हैं । जैसे- इस स्तोत्र के अन्तिम श्लोक। यह श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध है । यह इस बातका प्रमाण है कि जैन विचारधारा व्यक्ति नहीं, किन्तु गुणको प्राधान्य देती है । इस स्तोत्रमें परमात्मा, अन्तरात्मा तथा बाह्यात्माका स्वरूप स्पष्टरूपसे बताया गया है । यहां बताये अर्थको देखते हुए ऐसा लगता है कि अन्यग्रन्थ के टीकाकारों के बाह्यात्माका पदार्थ अनुमान पर आधारित है । यह, सरल जानकर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- इस स्तोत्रकी पठन पाठनमें उपेक्षाका परिणाम है ऐसा स्पष्ट परिलक्षित होता है । तथा इस स्तोत्रकी कीर्तिकलाव्याख्या के अवलोकन के बाद यह प्रगट हीं ज्ञात होता है कि - शब्दकी दृष्टि से सरल लगतेहुए भी यह स्तोत्र अर्थसे अत्यन्त सारगर्भित है । इसलिये कीर्तिकलाव्याख्यासे इसस्तोत्रका महत्त्व प्रकाशमें आया है ऐसा कहना कोई अत्युक्ति नहीं । मैं अपनी योग्यताकी मर्यादाओं से परवश हूं । फिरभी इतनातो अवश्य हीं समझता हूं तथा कह सकता हूं कि कीर्तिकलाव्याख्या सरल, सारगर्भित, उपयोगी एवं प्रशंसनीय है - इतना हीं नहीं, किन्तु इससे चिरकालसे अपेक्षित तथा एक अत्यन्त आवश्यक व्याख्याकी पूर्ति हुई है । - कीर्तिकलासहित अन्य प्रकाशनों के जैसे हीं इस प्रस्तुत प्रकाशन में भी श्लोकों के हिन्दीमें भावार्थप्रदिये गये हैं । तथा स्पष्ट रूपसे प्रत्येक पदार्थका पृथक् ज्ञान हो, और इस प्रकार वाचकों के संस्कृत शब्दों के अर्थज्ञानमेंभी उपयोगी हो इस दृष्टिसे प्रत्येक पदोंका अर्थ तथा समासवाले पदों का पृथक्से सङ्कलित अर्थभी दिये गये हैं, जिससे विद्यार्थियों एवं शब्दार्थ के जिज्ञासुओं के लिये इस प्रकाशनकी उपयोगिता में वृद्धि हुई है। जिससे बिना किसीके सहायता के हीं श्लोकोंका अर्थ समझा तथा समझाया जा सकता है । यह बात पुस्तक. देखने के बाद स्वयं ही प्रगट हो जाती है । इस पुस्तककी इन सब विशेषताओं को देखते हुए इसके प्रकाशनका दुर्लभ सुअवसर प्राप्त होनेसे मेरे लिये कृतकृत्यताका तथा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक शुभकार्यमें भागलेनेके आनन्दका अनुभव होना सकारण ही है। पूर्वमेंभी कीर्तिकला सहित 'द्वात्रिंशिकाद्वयी' तथा कीर्तिकला संस्कृत व्याख्यासहित 'वीतरागस्तव' के प्रकाशनका अमूल्य सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ था। वाचकोंके द्वारा उसका आदर देखकर इस प्रकाशनके कार्यभारको द्विगुण उत्साहसे वहन करनेमें मैं समर्थ हुआ हूँ, जो स्वाभाविक ही है। ___ यहां वाचकोंसे सानुनय निवेदन है कि यद्यपि प्रूफ संशोधन आदिमें पूरी सावधानी रखी गयी है, फिरभी दृष्टि तथा मुद्रण दोषसे जो अशुद्धि रह गयी है-उसकेलिये सहानुभूति पूर्वक क्षमा करेंगे । तथा साथमें दिये गये शुद्धिपत्रका यथावसर उपयोग करेंगे । अन्तमें इस आशा तथा विश्वासके साथ कि - वाचक तथा अध्यापक इस स्तोत्रत्रयीके अध्ययन तथा अध्यापनके द्वारा यथा सम्भव . अवश्य ही अधिकाधिक लाभान्वित होंगे, तथा इस प्रकार श्रीवीतराग जिनेश्वरकी भक्तिसे अपनी आत्माको पवित्र करेंगे इति । भवदीय :भाईलाल, अम्बालाल, पेटलादवाला Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शुद्धिपत्रम् सकलाऽर्हत्स्तोत्रं कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुवादसहितम् । .४ ५ . १९ दश । दर्श ६ स्वामिकी स्वामीकी १० २. रिष्ट अरिष्ट महादेवस्तोत्रं कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुवादसहितम् । २२ पं. अशुद्धम् का शुद्धम् । , ६ १५ वाले भावार्थ १ बाले ३ भवार्थ अथ ७. प्राणियें ११. एव अर्थ ३५. . ४. प्राणियों एवं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीविजय-नेमि-विज्ञान-कस्तूर-सरिसद्गुरुभ्यो नमः । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं ॥ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् ॥ -: * :-- सकलाऽहत्प्रतिष्ठानमधिष्ठान शिव श्रियः । भुर्भुवःस्वस्त्रयीशानमार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥ १ ॥ नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैःपुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः समुपास्महे ॥ २ ॥ आदिम पृथिवीनाथमादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥ ३ ॥ अर्हन्तमजितं विश्वकमलाकरभास्करम् । अम्लानकेवलाऽऽदर्शसङ्क्रान्तजगतं स्तुवे ॥ ४ ॥ विश्वभव्यजनाऽऽरामकुल्यातुल्या जयन्ति ताः । देशनासमये वाचःश्रीसम्भवजगत्पतेः ॥ ५ ॥ अनेकान्तमताऽम्भोधिसमुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं भगवानभिनन्दनः ॥ ६ ॥ द्युसकिरीटशाणामोतेजिताघिनखावलिः । भगवान् सुमतिस्वामी तनोत्वभिमतानि वः ॥ ७ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् पद्मप्रभप्रभोदेहभासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । अन्तरङ्गारिमथने कोपाऽऽटोपादिवाऽरुणाः ॥ ८॥ श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय महेन्द्रमहितामये। नमश्चतुर्वर्णसङ्घगगनाऽऽभोगभास्वते ॥ ९॥ चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला । मूर्तिमूर्तसितध्याननिर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ।। १० ।। करामलकवद्विश्वं कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहास्यनिधिः सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥ ११ ॥ सत्त्वानां परमानन्दकन्दोद्भेदनवाऽम्बुदः । स्याद्वादाऽमृतनिःस्यन्दी शीतलः पातु वो जिनः ॥ १२ ॥ भवरोगार्तजन्तूनामगदङ्कारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ विश्वोपकारकीभूततीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः । सुरासुरनरैःपूज्यो वासुपूज्यः पुनातु वः ।। १४ ॥ विमलस्वामिनो वाचः कतकक्षोदसोदराः । जयन्ति त्रिजगचेतोजलनैर्मल्यहेतवः ॥ १५ ॥ स्वयम्भूरमणस्पर्धिकरुणारसवारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ १६ ॥ कल्पद्रुमसधर्माणमिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्भधर्मदेष्टारं धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् सुधासोदरवाग्ज्योत्सानिर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलक्ष्मा तमःशान्त्यै शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥ १८ ॥ श्रीकुन्थुनाथो भगवान् सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुरनृनाथानामेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥ १९ ॥ अरनाथः स भगवांश्चतुर्थाऽरनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलास वितनोतु वः ॥ २० ॥ सुरासुरनराधीशमयूरनववारिदम् । कमद्न्मूलने हस्तिमल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥ २१ ॥ जगन्महामोहनिद्राप्रत्यूषसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य देशनावचनं स्तुमः ॥ २२ ॥ लुठन्तो नमतां मूनि निर्मलीकारकारणम् । वारिप्लवा इव नमेः पान्तु पादनखांशवः ॥ २३ ॥ यदुवंशसमुद्रेन्दुः कर्मकक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिभगवान् भूयाद्वोऽरिष्टनाशनः ॥ २४ ॥ कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचित कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथ:श्रियेऽस्तु वः ॥ २५ ॥ कृताऽपराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः । ईषद्वाष्पायोभद्रं श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥ २६ ॥ . इति सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरजिनस्तोत्रम् ॥ श्रीमते वीरनाथाय सनाथायाऽद्भुत श्रिया । महानन्दसरोराजमरालायाऽहंते नमः ॥१॥ सर्वेषां वेधसामाद्यमादिमं परमेष्ठिनाम् । ... देवाधिदेवं सर्वज्ञ श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥ २ ॥ . कल्याणपादपाऽऽराम श्रुतगङ्गाहिमाचलम् । विश्वाऽम्भोजरविं देवं वन्दे श्रीज्ञातनन्दनम् ॥ ३ ॥ पान्तु वः श्रीमहावीरस्वामिनो देशनागिरः । भव्यानामान्तरमलपक्षालनजलोपमाः ॥ ४ ॥ .. इति कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं श्रीवीरजिनस्तोत्रम् । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीविजय-नेमि-विज्ञान-कस्तूर-सरिसद्गुरुभ्यो नमः कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं ॥ श्रीमहादेवस्तोत्रम् ॥ प्रशान्त दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । . मङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ १॥ महत्त्वादीश्वरत्वाच्च यो महेश्वरतां गतः। रागद्वेषविनिर्मुक्तं वन्देऽहं तं महेश्वरम् ॥ २ ॥ महाज्ञानं भवेद्यस्य लोकालोकप्रकाशकम् । महादया-दम-ध्यानं महादेवः स उच्यते ॥ ३ ॥ महान्तस्तस्करा ये तु तिष्ठन्तः स्वशरीरके । निर्जिता येन देवेन महादेवः स उच्यते ॥ ४ ॥ रागद्वेषौ महामल्लौ दुर्जयौ येन निर्जितौ । महादेवं तु तं मन्ये शेषा वै नामधारकाः ॥ ५ ॥ शब्दमात्रो महादेवो लौकिकानां मते मतः । शब्दतो गुणतश्चैवाऽर्थतोऽपि जिनशासने ॥ ६ ॥ शक्तितो व्यक्तितश्चैव विज्ञानाल्लक्षणात्तथा । मोहजालं हतं येन महादेवः स उच्यते ॥ ७ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् . नमोऽस्तु ते महादेव ! महामदविवर्जित ! 1. महालोमविनिर्मुक्त! महागुणसमन्वित ! ॥ ८ ॥ महारागो महाद्वेषो महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन महादेवः स उच्यते ॥ ९॥ महाकामो जितो येन महाभयविवर्जितः । महाव्रतोपदेशी च महादेवः स उच्यते ॥ १० ॥ महाक्रोधो महामानो महामाया महामदः । महालोभो हतो येन महादेवः स उच्यते ॥ ११ ॥ महानन्ददये यस्य महाज्ञानी महातपाः । महायोगी महामौनी महादेवः स उच्यते ॥ १२ ।। महावीर्य महाधैर्य महाशीलं महागुणः ।। महामञ्जक्षमा यस्य महादेवः स उच्यते ॥ १३ ॥ स्वयम्भूतं यतो ज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् । अनन्तवीर्यचारित्रं स्वयम्भूः सोऽभिधीयते ॥ १४ ॥ शिवो यस्माजिनः प्रोक्तः शङ्करच प्रकीर्तितः । कायोत्सर्गी च पर्यकी स्त्रीशस्त्रादिविवर्जितः ॥ १५ ॥ साकारोऽपि ह्यनाकारो मूर्तोऽमूर्तस्तथैव च । परमात्मा च बाह्यात्मा सोऽन्तरात्मा तथैव च ॥ १६ ॥ दर्शनज्ञानयोगेन परमात्माऽयमव्ययः। - परा क्षान्तिरहिंसा च परमात्मा स उच्यते ॥ १७ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् परमात्मा सिद्धिप्राप्तौ बाह्यात्मा तु भवान्तरे । अन्तरात्मा भवेद्देहे इत्येष त्रिविधः शिवः ॥ १८ ॥ सकलो दोषसम्पूर्णो निष्कलो दोषवर्जितः । पञ्चदेहविनिर्मुक्तः सम्प्राप्तः परमं पदम् ॥ १९ ॥ 1: एकमूर्त्तिस्त्रयो भागा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । त एव च पुनरुक्ता ज्ञानचारित्रदर्शनात् ॥ २० ॥ एकमूर्त्तिस्त्रयो भागा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । परस्परं विभिन्नानामेकमूर्त्तिः कथ भवेत् ? ॥ २१ ॥ कार्य विष्णुः किया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वर ; । कार्यकारणसम्पन्ना एकमूर्तिः कथं भवेत् ॥ २२ ॥ प्रजापतिसुतो ब्रह्मा माता पद्मावती स्मृता । अभिजिज्जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ॥ २३ ॥ वसुदेवसुतो विष्णुर्माता च देवकी स्मृता । रोहिणी जन्मनक्षत्रमेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २४ ॥ पेढालस्यं सुतो रुद्रो माता च सत्यकी स्मृता । मूलं च जन्मनक्षत्रमेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २५ ॥ रक्तवर्णो भवेद्वमा श्वेतवर्णो महेश्वरः । कृष्णवर्णो भवेद्विष्णुरेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २६ ॥ अक्षसूत्री भवेद्ब्रह्मा द्वितीयः शूलधारकः । तृतीयः शङ्खचकाङ्क एकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २७॥ N Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् चतुर्मुखो भवेद्ब्रह्मा त्रिनेत्रोऽथ महेश्वरः । चतुर्भुजो भवेद्विष्णुरेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २८ ॥ मथुरायां जातो ब्रह्मा, राजगृहे महेश्वरः । द्वारावत्यामभूद्विष्णुरेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २९ ॥ हंसयानो भवेद्ब्रह्मा वृषयानो महेश्वरः । तार्क्ष्ययानो भवेद्विष्णुरेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३० ॥ पद्महस्तो भवेद्ब्रह्मा शूलपाणि महेश्वरः । चक्रपाणिर्भवेद्विष्णुरेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ॥ ३१ ॥ कृते जातो भवेद्ब्रह्म त्रेतायां च महेश्वरः । विष्णुश्च द्वापरे जात एकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३२ ॥ ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं ब्रह्मा चारित्रमुच्यते । सम्यक्त्वं तु शिवः प्रोक्तमर्हन्मूर्त्तिस्त्रयात्मिका ॥ ३३ ॥ क्षितिज लपवन हुताशनयजमानाऽऽकाशसोमसूर्याख्याः । इत्येतेऽष्टौ भगवत गीता वीतरागे सुगुणाः ॥ ३४ ॥ क्षितिरित्युच्यते क्षान्तिर्जलं या च प्रसन्नता । निः सङ्गता भवेद्वायुर्हुताशो योग उच्यते ॥ ३५ ॥ यजमानो भवेदात्मा तपोदानदयादिभिः । अलेपकत्वादाकाशसङ्काशः सोऽभिधीयते ॥ ३६ ॥ सौम्यमूर्ति रुचिश्चन्द्रो वीतरागः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन स आदित्योऽभिधीयते ॥ ३७ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् पुण्यपापविनिर्मुक्तो रागद्वेषविवर्जितः । अर्हस्तस्य नमस्कारः कर्त्तव्यः शिवमिच्छता ॥ ३८ ॥ अकारेण भवेद्विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तस्याऽन्ते परमं पदम् ॥ ३९ ॥ अकार आदिधर्मस्य मोक्षस्य च प्रदेशकः स्वरूपं परमज्ञानमकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४० ॥ रूपद्रव्यस्वरूपं वा दृष्टा ज्ञानेन चक्षुषा । दृष्टं लौकमलोकं वा रकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४१ ॥ हता रागाश्च द्वेषाश्च हंता मोहपरीषहाः । हतानि येन कर्माणि हकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४२ ॥ सन्तोषेणाऽभिसम्पूर्णः प्रातिहार्याऽष्टकेन च । ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च नकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४३ ॥ भवबीजाक्कुरजनना रागादयः क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ४४ ॥ इति महादेवस्तोत्रं समाप्तम् । * Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मसारः कीर्तिकलाव्याख्यासहितः ( यन्त्रस्थः) । ( सम्पूर्ण - भागों में ) । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ॥ अहम् ॥ श्रीविजय-नेमि-विज्ञान-कस्तूर-सरिसद्गुरुभ्यो नमः । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं ॥ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् ॥ पन्यासश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितकीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् ।. __ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र नामके महाप्रबन्धका प्रारम्भ करते हुए - उक्त महाप्रबन्धकी निर्विघ्न समाप्ति हो - इस कामनासे मंगलाचरण रूपमें सकलार्हत्स्तोत्रकी रचना की थी। जिसमें चौवीस तीर्थंकरोंकी स्तुति करते हुए आदिमें आर्हन्त्य - तीर्थकरत्व - तीर्थकरके असाधारणभाव - तीर्थंकरपनकी स्तुति करते हैं- . सकलाऽहत्प्रतिष्ठानमधिष्ठानं शिवश्रियः। भूर्भुवः स्वस्त्रयीशानमार्हन्त्यं प्रणिदध्महे ॥१॥ पदार्थ-सकलाहत्प्रतिष्ठानम् सकल - सर्व, अर्हत् - तीर्थकर, प्रतिष्ठा = पूजाके निमित्तभूत । सकलतीर्थंकरोंकी पूजाका हेतुभूत - जिसके होनेसे तीर्थकर पूजित होते हैं, वह असाधारण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् तथा अलौकिक भाव । अथवा - सकल तीर्थकर प्रतिष्ठान - आश्रय हैंजिसके ऐसा, सकल तीर्थकरोंमें रहनेवाले, तथा, शिवश्रियः शिव - कल्याण - मोक्ष, श्री - लक्ष्मी - समृद्धि, कल्याण या मोक्षसंपदाओंका, अधिष्ठानम्-प्राप्तिका साधनहोनेसे आश्रयभूत, तथा, भूर्भुव:स्वस्त्रयीशानम्-भूर् - नागलोक, भुवर् - मर्त्यलोक, स्वर् - स्वर्गलोक - इनतीनों लोकों के खामीके जैसे सर्वश्रेष्ठ, आर्हन्त्यम्-आर्हन्त्य - तीर्थकरत्व - तीर्थंकरपन - तीर्थंकरोंके असाधारण एवं अलौकिक अतिशय तथा केवलज्ञान आदि गुणरूप भाव का, प्रणिदध्महे प्रणिधान मन, वचन, तथा शरीरसे तादाम्यकी साधना करता हूँ - ध्यान करता हूँ ।। १ ।। भावार्थ-तीर्थंकरों के सहज आदि अतिशय तथा केवलज्ञान आदि असाधारण एवं अलौकिक गुणरूपी भाव, जो उन तीर्थंकरोंकी लोगोंसे की गयी पूजाके हेतु हैं, तथा शुभसम्पदाओं एवं मुक्तिलक्ष्मीकी प्राप्तिके साधन हैं, तथा स्वर्ग-मर्त्य-पाताललोकोंके खामीके जैसे सर्वोत्कृष्ट हैं, अथवा तीनों लोकोंके खामित्वका साधनरूप हैं, मैं उन गुणों - आर्हन्त्यका ध्यान करता हूँ ॥१॥ नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैः पुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिनहतः समुपास्महे ॥२॥ पदार्थ—सर्वस्मिन् सभी, क्षेत्रे क्षेत्रों - स्थानोंमें, च-तथा, काले-कालोंमें, तीनों लोकों तथा तीनों कालों में, त्रिजगज्जनम् = Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् त्रि - तीन, जगत् - लोक, जन - प्राणी, सामान्यरूपसे तीनों लोकों के प्राणियोंको, नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैः नाम - ऋषभ, महावीर आदि नाम, आकृति - तीर्थकरोंकी प्रतिमा, द्रव्य - तीर्थकर होनेवाले जीव, भाव - अतिशय, केवलज्ञान आदि भावोंसे युक्त तीर्थङ्कर, ऋषभ महावीर आदि नामोंसे, प्रतिमा आदि रूपसे, तीर्थक्करभावरहित संसारी अवस्थासे तथा तीर्थंकर रूपसे, पुनत:=(स्मरण, दर्शन, सेवा तथा उपदेश आदिके द्वारा) पवित्र करनेवाले, अहंता अरिहन्तों - तीर्थकरोंकी, समुपास्महे-उपासना करता हूं ॥ २ ॥ भावार्थ-जो सभी क्षेत्रों तथा सभी कालों में तीनो लोकों के प्राणियोंको उनके द्वारा किये गये तीर्थङ्करोंके - नामस्मरण, प्रतिमा आदिके दर्शन, वन्दन, संसारी अवस्थामें सेवा, उपदेशोंका श्रवण तथा पालन आदिसे चित्तशुद्धि होनेके कारण - पवित्र करते हैं। मैं उन तीर्थङ्करोंकी भक्तिभावपूर्वक तन, मन तथा वचनसे उपासना करता हूं। (जिससे दूसरोंके जैसे ही मेरे चित्तकी शुद्धि तथा इष्टसिद्धि हो। क्योंकि चित्तशुद्धिके विना कोईभी शुभकाम सांगोपांग पूरा नहीं हो सकता - ऐसा अभिप्राय है) ॥ २॥ आदिमं पृथिवीनाथमादिमं निष्परिग्रहम् । . आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥३॥ पदार्थ-आदिमम् सर्वप्रथम, पृथिवीनाथम् पृथिवीके नाथ - ईश - राजा - पालक, राजाओंमें सर्वप्रथम, आदिमम् सर्वप्रथम, निष्परिग्रहम् निष्परिग्रही- स्त्री, पुत्र, राज्य आदि परिग्रहोंसे Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् रहित - सर्वस्वके त्याग करनेवाले, त्यागियोंमें सर्वप्रथम, चतथा, आदिमम् सर्वप्रथम, तीर्थनाथम् तीर्थङ्कर, तीर्थक्करों में सर्वप्रथम, ऐसे, ऋषभस्वामिनम् श्रीऋषभनाथकी, स्तुम:=मैं स्तुति करता भावार्थ-जो राजाओं, त्यागियों तथा तीर्थङ्करोंमें सर्वप्रथम हैं, मैं ऐसे श्रीऋषभनाथकी स्तुति करता हूं। (युगादिमें इन्द्रादि देवोंने लोककी व्यवस्थाके लिये श्रीऋषभनाथका राज्याभिषेक किया था। इसलिये पृथिवीमें वे ही सर्वप्रथम राजा हुए थे। तथा लोकव्यवहारका प्रवर्तन किया था। एवं जन्मसे ही तीनों ज्ञानोंसे युक्त होनेके कारण तथा लोकान्तिक देवोंकी प्रार्थनासे तीर्थप्रवर्तनके लिये सर्वखका त्यागकर मोक्षप्राप्तिकी भावनासे श्रीऋषभनाथने ही सर्वप्रथम दीक्षा लीथी, तथा चतुर्विध धर्मका उपदेश देकर चतुर्विधसंघ - तीर्थ का स्थापन किया था। इसलिये सर्वप्रथम तीर्थङ्कर श्रीऋषभनाथ ही हैं-यह ध्यान देने योग्य है) ॥ ३ ॥ अर्हन्तमजितं विश्वकमलाकरभास्करम् । अम्लानकेवलाऽऽदर्शसङ्क्रान्तजगतं स्तुवे ॥ ४ ॥ पदार्थ-विश्वकमलाकरभास्करम् विश्व - जगतरूपी, कमलाकर - कमलोंके आकर-खान-समूह, भास्कर - सूर्य , विश्वरूपी कमलसमूहों के लिये सूर्यसमान, अम्लानकेवलाऽऽदर्शसक्रान्तजगतम्-अम्लान-म्लान-मलिन नहीं - ऐसा, अति स्वच्छ, विशुद्ध, केवल - केवलज्ञान, आदर्श - दर्पण, सङ्कान्त • प्रतिबिम्बित, गोचर, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् जगत् - विश्वके सर्वद्रव्यपर्याय, जिनके अत्यन्त स्वच्छ ऐसे केवलज्ञानरूपी दर्पणमें सर्वद्रव्यपर्याय प्रतिबिम्बित - गोचरीभूत हैं ऐसे, अर्थात् जैसे स्वच्छ दर्पणमें सभी पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, वैसे जिनके विशुद्ध केवलज्ञानके सभी पदार्थ विषय हैं-जो केवलज्ञानके द्वारा सभी पदार्थोंके जाननेवाले-सर्वज्ञ हैं। अर्हन्तम्-अरिहन्त, तीर्थकर, अजितम् श्रीअजितस्वामिकी, स्तुवे (मैं) स्तुति करता हूं ॥ ४ ॥ भावार्थ-विश्वरूपी कमलाकरके प्रबोधित करने में सूर्यसमान, अर्थात् जैसे सूर्य कमलसमूहोंको प्रबोधित - विकसित करते हैं, वैसे ही विश्वके प्रबोधित करनेवाले - विश्वको सन्मार्गका प्रबोध देनेवाले, तथा जिनके अत्यन्त स्वच्छ ऐसे केवलज्ञानरूपी दर्पणमें सम्पूर्ण विश्व प्रतिबिम्बित - गोचरीभूत है, अर्थात् जैसे स्वच्छ दर्पणमें सभी पदार्थ स्पष्टरूपसे प्रतिबिम्बित होते हैं, अथवा जैसे स्वच्छ दर्पण अत्यन्त स्पष्टरूपसे सभी पदार्थों के प्रतिबिम्बका ग्रहण करता है, वैसे हीं जिनके विशुद्ध केवलज्ञानमें सभी द्रव्य तथा उनके पर्याय प्रतिबिम्बित - गोचर हैं, अथवा जो विशुद्ध केवलज्ञानके द्वारा स्पष्टरूपसे सभी पदार्थों का ग्रहण करते हैं - सभी पदों को जानते हैं, अर्थात् जो सर्वज्ञ हैं, ऐसे तीर्थङ्कर श्री अजितस्वामीकी मैं स्तुति करता हूं। (यहां - जो सर्वज्ञ हैं, तथा सम्पूर्ण विश्वके उपकारक हैं, उनकी स्तुतिसे ही इष्टलाभ हो सकता है-ऐसा ध्वनि है) ॥ ४ ॥ विश्वभव्यजनाऽऽरामकुल्यातुल्या जयन्ति ताः । देशनासमये वाचः श्रीसम्भवजगत्पतेः ॥ ५॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽईस्तोत्रम् - पदार्थ -देशनासमये-(समवसरणमें) देशना देनेके समय में, ता: आगमों में वर्णित, प्रसिद्ध, वह, विश्वभव्यजनाऽऽरामकुल्यातुल्या: विश्व-जगत्, सभी, भव्यजन - भव्यप्राणी - मुक्तिकी योग्यतावाले, आराम - उपवन - बगीचा, कुल्या - नाली - नहर, तुल्य-समान । विश्वके सभी भव्यप्राणीरूपी उपवनकी नालीके समान, श्रीसम्भवजगत्पते: जगत्पति - जगदीश्वर - तीनों लोकों के स्वामी ऐसे जिनेश्वर श्रीसम्भवनाथकी, वाचा वाणी - प्रवचन, उपदेश, जयन्ति-सर्वोत्कृष्ट हैं ॥ ५ ॥ भावार्थ-(जैसे नालियों के द्वारा सतत सिंचनसे उपवनके वृक्ष लता आदिका पोषण एवं उसकी वृद्धि होती है, वैसे ही देशनासमयमें जिनकी वाणीसे विश्वके सभी भव्यात्मा चित्तविशुद्धिरूप पोषण एवं सम्यग्ज्ञान आदिकी वृद्धि प्राप्तकरते हैं, अत एव) देशनासमयमें विश्वके सभी भव्यप्राणीरूपी उपवन के लिये नाली समान जगत्के स्वामी श्रीसम्भवजिनकी वाणी विजय प्राप्तकरती है - सर्वोत्कृष्ट है । (यहां - जिससे सम्यग्ज्ञान प्राप्तहो तथा जो आत्मबलका पोषण करे, वही वाणी सर्वोत्कृष्ट है - ऐसा ध्वनि है) ॥ ५ ॥ अनेकान्तमताम्भोधिसमुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं भगवानभिनन्दनः ॥ ६ ॥ पदार्थ-अनेकान्तमताऽम्भोधिसमुल्लासनचन्द्रमा: अनेकान्त मत - प्रत्येकपदार्थमें अनन्तधर्मों के प्रतिपादन करनेवाला मत - सिद्धान्त - दर्शन = स्याद्वाददर्शन , अम्भोधि - समुद्र, समुल्लासन Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् उल्लसितकरना - वढ़ाना - विकसितकरना, चन्द्रमा चन्द्र। अनेकान्तमतरूपी समुद्रके वढ़ानेमें चन्द्रसमान, भगवान्-भग - ऐश्वर्य, धर्म, तप, ज्ञान, वैराग्य, अतिशय । सभी प्रकारके सहज आदि अतिशयसे युक्त, अभिनन्दनः = तीर्थंकर श्रीअभिनन्दनस्वामी, अमन्दम् = अत्यधिक, अनन्त - शाश्वत एवं अखण्ड, आनन्दम् = आनन्द, दद्यात्-देवें ॥६॥ ____ भावार्थ--(जैसे चन्द्र समुद्रके समुल्लास - वृद्धि - भरतीका कारण है, वैसे तीर्थकर स्याद्वादसिद्धान्तके समुल्लास - वृद्धि-प्रचारके कारण हैं, क्योंकि वे ही स्याद्वादसिद्धान्तके उपदेशक हैं । इसलिये) स्याद्वादरूपी समुद्रके समुल्लास केलिये चन्द्र समान जिनेश्वर श्रीअभिनन्दन स्वामी अनन्त, अखंड एवं शाश्वत आनन्द देवें । (यहां - स्याद्वादके अनुसारी ज्ञानसे ही, शाश्वत आनन्दमय मुक्तिका लाभ हो सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि स्याद्वाद ही वस्तुके यथार्थ स्वरूपका प्रतिपादन करता है-ऐसा अभिप्राय है) ॥ ६ ॥ धुसकिरीटशाणाऽयोत्तेजिताधिनखावलिः। भगवान् सुमतिस्वामी तनोत्वभिमतानि वः ॥७॥ पदार्थ-धुसकिरीटशाणाज्योत्तेजिताघिनखावलिः = धुसत् - देव, किरीट - मुकुट, शाण - सान, कसौटी, अग्र - मुख, सानके ऊपर, उत्तेजित - तेजकिया गया - घसा हुआ, सान चढाया हुआ, नखावलि - नखके समूह, देवोंके मुकुट रूपी सानपर घसाकर तीक्ष्ण तथा चमकते हुए नखोंसे विराजित, भगवान् =सर्व Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाईस्तोत्रम् ऐश्वर्यसे युक्त, सुमतिस्वामी = जिनेश्वर श्रीसुमतिस्वामी, वः = आप भव्योंके, अभिमतानि-अभीष्ट, तनोतु= सिद्ध करें - मनोरथ पूर्णकरें ॥ ७॥ भावार्थ-(जैसे सानपर घसाकर शस्त्र आदि तीक्ष्ण होजाते हैं, तथा चमकने लगते हैं, उसीप्रकार सातिशय भक्तिके कारण पाँवोंमें मुकुटका स्पर्शहो • इसप्रकार देवोंसे प्रणाम किये जानेके कारण मुकुटोंसे घसाकर जिनके पाँवोंके नख तीक्ष्ण हो गये हैं तथा अधिक चमकने लगे हैं। इसलिये) देवोंके मुकुटरूपी सानपर घसाकर तीक्ष्ण एवं चमकते नखवाले भगवान् श्रीसुमतिस्वामी आपभव्यों के मनोरथोंको पूर्णकरें। (यहां - जो देवोंसे सेवित होनेके कारण देवाधिदेव हैं, वही मनोरथ पूरा कर सकते हैं - यह ध्वनि है)॥ ७ ॥ पद्मप्रभप्रभो देहभासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । · अन्तरङ्गाऽरिमथने कोपाऽऽटोपादिवाऽरुणाः ॥ ८॥ पदार्थ—पद्मप्रभप्रभोः = जिनेश्वरश्रीपद्मप्रभ प्रभु - स्वामीकी, अन्तरङ्गारिमथने = अन्तरङ्ग - अन्तरात्माके अहितकरनेके कारण अन्तरंग - आत्मसम्बन्धी, अरि - शत्रु - कर्म, कषाय आदिके, मथन - नाशकरनेके समय, कोपाऽऽटोपादिव कोप - क्रोधके आटोप - आवेशसे, इव - जैसे, अरुणा: कमलपत्रके समान लाल, देहभास:= देहकी भास - अतिशयकान्ति, व आप भव्योंकी, श्रियम् =समृद्धिको, पुष्णन्तु-पोषं, वढ़ायें ॥ ८ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । यहााकी काक श्री कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् भावार्थ-जैसे युद्ध आदिमें अपने शत्रुओं के नाशकरनेके समय लोगोंके मुख, आँख आदि अंग क्रोधसे लाल होजाते हैं, वैसे ही कर्म, कषाय आदि अन्तरंग शत्रुओंके नाशकरनेमें जैसे क्रोधसेलाल हो गयीहो, इस प्रकारकी श्रीपद्मप्रभस्वामीके देहकी लाल कान्ति आप भव्योंकी सुखसमृद्धि बढ़ाये। यहां - श्रीपद्मप्रभुस्वामी अन्तरंग शत्रुओंके नाशकरनेवाले हैं, तथा उनके शरीरकी कान्ति लाल है। इसलिये स्वयं श्रीसम्पन्न तथा निर्दोष होनेके कारण लोगोंके श्रीके पोषक हैं - यह स्पष्टार्थ है ॥ ८ ॥ श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय महेन्द्रमहिता ये। नमश्चतुर्वर्णसङ्घगगनाऽऽभोगभास्वते ॥ ९॥ पदार्थ-चतुर्वर्णसङ्घगगनाऽऽभोगभास्त्रते-चतुर्वर्ण - चतुविध (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका - इन चारोंका) सङ्घ - सङ्घरूपीगगन - आकाश, आभोग · विस्तार - विस्तृतगगनमंडल, भास्वत् - सूर्य , चतुर्विध संघरूपी विस्तृतगगनके सूर्यसमान, तथा, महेन्द्रमहिताऽज्रये=महेन्द्र - देव, असुर तथा नरोंके इन्द्र, महित - पूजित, अति - पाँव, सुरेन्द्र आदिसे पूजित चरणवाले, श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्रायजिनेश्वरश्रीसुपार्श्वनाथको, नमः मेरा नमस्कार हो ॥ ९॥ • भावार्थ—(जैसे विशाल गगन मंडलमें सूर्य-अप्रतिम तेजस्वी, विश्वप्रकाशक तथा लोकहितकारक हैं। उस प्रकार ही विशालचतुर्विधसंघमें जिनेश्वर अप्रतिमतेजस्वी, सदुपदेशके द्वारा विश्वके प्रकाशक तथा अहिंसा आदिके द्वारा विश्वके हितकारकभी हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽईत्स्तोत्रम् इसलिये इन्द्रभी उनके चरणोंकी पूजा करते हैं। इसलिये) चतुर्विध सङ्घरूपी विस्तृतगगनके सूर्यसमान तथा महेन्द्रों - सुरेन्द्र - असुरेन्द्र तथा नरेन्द्रोंसे पूजित चरणवाले जिनेश्वरश्रीसुपार्श्वप्रभुको मेरा नमस्कार - प्रणाम हो। (जो लोगों केलिये सूर्यसमान तथा विश्ववन्ध हों, उनका प्रणाम करना ही चाहिये - यह भाव है) ॥ ९ ॥ चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला। . मूर्ति मूर्त्तसितध्याननिर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥ पदार्थ - चन्द्रप्रभप्रभोः =श्रीचन्द्रप्रभप्रभु - स्वामीकी, मूर्तसितध्याननिर्मिता इव मूर्त-पृथिवी आदिके जैसे रूप, रस आदि गुणोंसे युक्त, सितध्यान - शुक्लध्यान, निर्मित - बनायी गयी, इव - जैसे, जैसे मूर्त ऐसे शुक्लध्यानसे बनायी गयी हो - इस प्रकारकी, तथा, चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला चन्द्र, मरीचि-किरण, निचय राशि, पुन, उज्ज्वल - चन्द्रकी किरणके पुंजोके समान चमकती, मूर्तिः = शरीर, बिम्ब, व आपभव्योंकी, श्रिये-सुखसमृद्धि केलिये, अस्तु हों, सुखसमृद्धि देवें ॥ १० ॥ ____भावार्थ-जैसे मूर्त ऐसे शुक्लध्यानसे बनायी गयी हो इस प्रकारसे सर्वथा निर्दोष एवं पवित्र तथा चन्द्रके किरणपुंजोके समान चमकती जिनेश्वरश्रीचन्द्रप्रभस्वामीकी मूर्ति आप भव्योंकी सुखसम्पदा बढ़ाये। (मनोहर, निदोष तथा पवित्र पदार्थ ही स्वयं श्रीसम्पन्न होनेके कारण दूसरेकी श्रीसम्पदा वढ़ाते हैं - यह तात्पर्य है)॥१०॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् करामलकवद्विश्वं कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥११॥ पदार्थ-केवलश्रिया केवल - केवलज्ञान, श्री - माहात्म्य, ऐश्वर्य, प्रभाव, शक्ति, केवलज्ञानकी महिमासे, विश्वम्-लोकालोक को, करामलकवत-कर • हाथ, आमलक - आँवला, वत् - समान, हाथके आँवलेके जैसे, कलयन् जानते हुए - जाननेवाले, अत एव, अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः अचिन्त्य- कल्पनातीत, माहात्म्य - महिमा, निधि - खान, कल्पनातीतमहिमाकी खानसमान, सुविधि: जिनेश्वर श्रीसुविधिनाथ, व आप भव्यों के, बोधये सम्यग्ज्ञानके लिये, अस्तु-हों । ज्ञानप्रद हों ॥ ११ ॥ भावार्थ—जैसे किसीको अपने हाथमें रहेहुए आँवलेका स्पष्ट ज्ञान होता है, उस प्रकारहीं जो केवलज्ञानकी महिमासे विश्व के समस्तद्रव्य तथा उनके पर्यायोंको जानते हैं, अर्थात् विश्वको करामलकवत् साक्षात् देखते हैं, ऐसे कल्पनातीत महिमाकी खानसमान जिनेश्वर श्रीसुविधिस्वामी आप भव्योंके ज्ञानप्रद हों। (यहांजो विश्वका ज्ञाता है, वही यथार्थज्ञान दे सकता है - यह आशय है) ॥ ११ ॥ सत्त्वानां परमानन्दकन्दोद्भेदनवाऽम्बुदः। स्थाद्वादाऽमृतनिःस्यन्दी शीतल पातु वो जिनः॥१२॥ पदार्थ-स्याद्वादाऽमृतनिःस्यन्दी स्याद्वाद - अनेकान्तवाद, अमृत अमृत, पानी, निःस्यन्दी-सींचनेवाले, वरसनेवाले; उपदेशक Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलास्तोत्रम् स्याद्वादरूपी अमृतसमान जल के सींचनेवाले - वरसनेवाले, उपदेशक, अत एव, सत्त्वानाम् = प्राणियों के, परमानन्दकन्दोद्भेदनवाऽम्बुदः =परम - सर्वोत्तम, आनन्द - सुख, मोक्षसुख, कन्द - कन्दमूल, उद्भेद - अंकुरलाना, प्रकटकरना, नव नवीन, अपूर्व, सर्वोत्तम, अम्बुदवादल । सर्वोत्तम आनन्दरूपी कन्द के अंकुरित - प्रकटकरने में नवीन ( आषाढमास के) वादल के समान, जिनः = जिनेश्वर, शीतलः = श्रीशीतलस्वामी, वः = आप भव्योंका, पातु =अज्ञान, दुःख आदिसे रक्षण करें ॥ १२ ॥ १२ - भावार्थ -- (जैसे नवीन वादल पानी वरसाकर पृथिवीमें रहेहुए कन्दों में अंकुर उत्पन्न करता है, वैसे हीं जिनेश्वर अमृतके समान अमरत्व के देनेवाले स्याद्वाददर्शनका उपदेश कर मोक्षसुखका मार्ग प्रगट कर देते हैं । इसलिये) अमृतकेतुल्य स्याद्वादरूपी पानी के सिंचनउपदेशकरनेवाले मोक्षसुखरूपी कन्दके अंकुर मार्गके प्रगटकरने में 'नवीन ( आषाढ़ मासके) वादलके समान जिनेश्वर श्रीशीतलस्वामी आप भव्यों का भवसे रक्षण करें । ( यहां तत्त्वज्ञान से हीं मुक्ति मिलती है, वह स्याद्वाद के सिवाय दूसरा नहीं है । उपदेशक जिनेश्वर हीं हैं - यह भाव है ) ॥ १२ ॥ • तथा उसके भवरोगार्त्तजन्तूनामगदङ्कारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ पदार्थ - भवरोगार्त्तजन्तूनाम् = भव- संसार, रोग - दुःख, व्याधि, आर्त - पीडित, जन्तु - प्राणी । भवके दुःखों अथवा भवरूपी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् . १३ दुःखोंसे पीड़ित प्राणियों के लिये । अगदङ्कारदर्शनः अगदकार वैद्य, दर्शन - देखाव, देखना, अथवा स्याद्वादरूपी सिद्धान्त, वैद्यसमान, दर्शनवाले । अर्थात् जिनके दर्शनसे भवपीडा नष्टहो, तथा जिनके सिद्धान्तमें भवरोगनाशक उपाय बताये गये हैं - ऐसे। तथा, निःश्रेयसश्रीरमण:=निःश्रेयस - मोक्ष, श्री-लक्ष्मी, समृद्धि, रमणउपभोगकरनेवाले. मोक्षकी लक्ष्मीका उपभोगकरनेवाले - सच्चिदानन्दमय - सिद्धस्वरूप, श्रेयांस: जिनेश्वर श्रीश्रेयांसस्वामी, व आप भव्योंके, श्रेयसे-कल्याणके लिये, अस्तु-हों, कल्याणप्रद हों ॥ १३ ॥ भावार्थ- (जैसे वैद्य रोग एवं उसकी पीडाको दवा आदिके प्रयोगसे दूरकरता है, वैसे ही जिनेश्वर मुक्तहोनेके कारण अपने दर्शनसे तथा स्याद्वादके उपदेशसे भवरोग दूरकरते हैं। इसलिये) भव - जन्मके कारण होनेवाले कायिक, वाचिक, मानसिक-इन त्रिविधतापों - अथवा जन्म, जरा, मरणरूपी रोगों - से पीडित जनता के लिये जिनका दर्शन वैद्य समान है, अर्थात् जिनके दर्शनमात्रसे सांसारिक. त्रिविधताप दूरहो जाते हैं, अथवा भवके उच्छेदका उपाय बतानेके कारण जिनका दर्शन - स्याद्वादनामक सिद्धान्त भवसम्बन्धी या भवरूपी - रोगसे पीड़ित, जनताके लिये वैद्य समान है। अर्थात् जिनके देखनेसे तथा उपदेशसे भवदुःखकी निवृत्ति होती है। तथा जो मुक्तिके अनंत, अखंड तथा शाश्वतसुखके उपभोगकरनेवाले - मुक्त - सिद्धात्मा हैं। ऐसे जिनेश्वर श्रीश्रेयांसनाथ आप भव्योंके कल्याणकारक हों। अर्थात् लोग भक्तिपूर्वक श्रीश्रेयांसनाथके दर्शन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽईस्तोत्रम् तथा उपदेशसे भवदुःखोंसे छुटकारा पायें। (यहां-जो स्वयं मुक्त हैं, तथा तत्त्वज्ञानके उपदेशक हैं, वहीं मुक्ति दे सकते हैं - यह ध्वनि है) ॥ १३ ॥ विश्वोपकारकीभूततीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः । सुरासुरनरैःपूज्यो वासुपूज्यःपुनातु वः ॥ १४ ॥ पदार्थ-विश्वोपकारकीभूततीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः = विश्वतीनों लोकोंके प्राणी, उपकारकीभूत - उपकारक, तीर्थकृत् - तीर्थक्कर, कर्म - नामकर्म, निर्मिति - निर्माण - उपार्जन, तीनों लोकों के उपकारक. ऐसे तीर्थकर नामकर्मके उपार्जन करनेवाले, अत एव, सुरासुरनरैः =देव, असुर तथा मनुष्योंसे, पूज्य: पूजित, वासुपूज्य: जिनेश्वर श्रीवासुपूज्यनाथ, का=आप भव्योंको, पुनातु-पवित्र करें ॥ १४ ॥ . भावार्थ-जिन्होंने तीर्थकरनामकर्मका-उसके प्रभाव से सन्मार्गका उपदेश देकर तीनों लोकों के उपकारके लिये - उपार्जन किया है - ऐसे, सुर, असुर तथा मनुष्योंके पूज्य जिनेश्वर श्रीवासुपूज्यनाथ आप भव्योंको (दर्शन, उपदेश आदिकेद्वारा) पवित्र करें । ( यहां-तीर्थकर नामकर्मके उपार्जन करनेवाले ही विश्वके उपकारक तथा विश्व पूज्य हो सकते हैं। तथा उनके दर्शन एवं उपदेशसे ही आत्मा पवित्र होती है - यह ध्वनि है) ॥ १४ ॥ विमलस्वामिनो वाचः कतकक्षोदसोदराः। जयन्ति त्रिजगचेतोजलनैमल्यहेतवः ॥ १५ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् १५ पदार्थ – विमलस्वामिन: - जिनेश्वर श्रीविमलनाथकी, कतकक्षोदसोदराः = कतक कतकनाम के वृक्षके फल, क्षोद- चूर्ण, सोदरसमान कतक के चूर्ण के समान, त्रिजगच्चेतोजलनैर्मल्य हेतवः = त्रिजगत् - तीनों लोक, चेतस् - मन, जल, नैर्मल्य - निर्मलता. शुद्धि, हेतु कारण, करनेवाले। तीनों लोकों के प्राणियों के चित्तरूपी जल को शुद्ध करनेवाली, वाचः = उपदेशवाणी, प्रवचन, जयन्ति = सभी अन्य वाणियों से अधिक महत्त्वकी हैं ॥ १५ ॥ - भावार्थ - (जैसे कतक के चूर्ण डालने से पानी स्वच्छ हो जाता है, उसप्रकार हीं जिनेश्वरकी वाणीसे चित्तशुद्धि होती है चित्तके सारे दोष दूर हो जाते हैं । इसलिये ) जिनेश्वर श्री विमलस्वामीकी, कतकके चूर्ण के समान तीनों लोकोंके प्राणियों के चित्तरूपी जलको शुद्ध करनेवाली वाणी - उपदेश अन्य सभी वाणियों से अधिक महत्त्व - वाली है । (यहां - जो वाणी चित्तशुद्धि में सहायक हो, वही सर्वश्रेष्ठ है - ऐसा भाव है ) ॥ १५ ॥ स्वयम्भूरमणस्पर्धिकरुणारसवारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ १६॥ पदार्थ - अनन्तजित् - जिनेश्वर श्री अनन्त जित्स्वामी, स्वयम्भूरमणस्पर्धि करुणारसवारिणा = स्वयम्भूरमण - स्वयम्भूरमण नामके अन्तिमसमुद्र, स्पर्धि - स्पर्धा करनेवाले - होड़ करनेवाले, करुणारसकरुणारूपी रस, वारि - पानी, अत्यधिक होने के करण स्वयम्भूरमण नाम के अन्तिम एवं अन्य सभी सागरों से विशाल समुद्र के साथ भी - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कलास्तोत्रम् होड़ करनेवाले करुणारसरूपी जलसे, वः = आप भव्यों को, अनन्ताम् =शाश्वत, अखंड तथा अनन्त, सुखश्रियम् = सुखसम्पदा, प्रयच्छतु =देवें | अथवा - करुणारसवारिणा - करुणारसरूपी जलसे, स्वयम्भूरमणस्पर्धी = स्वयम्भूरमणनामक सागरके साथभी होड़ करनेवाले, अनन्तजित् स्वामी-इसप्रकार से भी पदार्थ सम्भव है । किन्तु इसप्रकार के अर्थके लिये 'स्वयम्भूरमणस्पर्धी ' इसप्रकार दीर्घ इकारान्त पाठ. समझना चाहिये ॥ १६ ॥ भावार्थ — जिनेश्वर श्रीअनन्तजित् नाथ, स्वयम्भूरमणनाम के समुद्र के रस - जलसे भी अधिक करुणारूपी रससे- असीम कृपासे आप भव्योंको अनन्त सुखसम्पदा देवें । (यहां जिनेश्वर असीम कृपासागर हैं, तथा कृपासे अधिक मात्रामें दान दिया जाता है, एवं अनन्तजितके लिये अनन्तसुखश्रीका दान योग्य हीं है - यह भाव है ।) अथवा - अपनी कृपारूपी रसके द्वारा स्वयम्भूरमण समुद्रको भी जीतनेवाले जिनेश्वर श्रीअनन्त जितस्वामी आप भव्योंको अनन्तसुखसम्पदा देवें । यहाँ - असीमदयालु तथा अनन्तजित् के लिये अनन्तसुख सम्पदाका दान हीं योग्य है - यह तथा उपर्युक्त भाव है ) ॥ १६ ॥ कल्पद्रुमसधर्माणमिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्धाधर्मदेष्टारं धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥ पदार्थ — शरीरिणाम् = प्राणियोंकी, इष्टप्राप्तौ = अभिलषितकी प्राप्तिमें - मनोरथ पूर्णकरनेमें, कल्पद्रुमसधर्माणम् = कल्पदुम- कल्पवृक्ष, सधर्मा - समान, कल्पवृक्षसमान, तथा, चतुर्धाधर्मदेष्टारम्= Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् चतुर्धा - चारप्रकारके, धर्म, देष्टा - उपदेश करनेवाले, दान, शील, तप तथा भाव - इन चार प्रकार के धर्मोके उपदेश करनेवाले, धर्मनाथम् = जिनेश्वर श्रीधर्मनाथस्वामीकी, उपास्महे = मैं उपासना - भक्ति करता हूं ॥ १७ ॥ भावार्थ - (जैसे कल्पवृक्ष सभी मनोरथ पूरा करता है. वैसे हीं जिनेश्वर प्राणियों के सभी इष्ट- मुक्ति आदि देते हैं । इसलिये ) प्राणियों के मनोरथ पूराकरनेमें कल्पवृक्षसमान तथा दान, शील, तप तथा भाव - इन चार प्रकारके धर्मों के उपदेश करनेवाले जिनेश्वर श्रीधर्मनाथकी मैं उपासना करता हूं । (यहां - धर्मसे हीं इष्ट मुक्ति आदिकी प्राप्ति होती है । इसलिये धर्मके उपदेश करनेवालेकी हीं इष्ट - सिद्धिके लिये उपासना करनी चाहिये - यह भाव है ) || १७ ॥ सुधासोदरवाग्ज्योत्स्नानिर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलक्ष्मा तमःशान्त्यै शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥ १८ ॥ पदार्थ - सुधासोदरवाज्ज्योत्स्नानिर्मलीकृत दिङ्मुखः--सुधा - अमृत, सोदर तुल्य, वाग् - वाणी, ज्योत्स्ना - चन्द्रिका, किरण, प्रकाश, निर्मलीकृत - प्रकाशित, पवित्रीकृत, दिक्- दिशा, मुख अन्त, अमृततुल्य वाणी रूपी किरणोंसे प्रकाशित किया है पवित्र किया है दिगन्त जिसने - अमृततुल्य वाणीरूपी किरणोंसे दिगन्तको प्रकाशितपवित्रकरनेवाले, मृगलक्ष्मा = मृग - हरिण, लक्ष्म - लांछन, मृगलांछनबाले चन्द्र, शान्तिनाथजिन, शान्तिनाथजिनः = जिनेश्वर श्रीशान्तिनाथ, वः = आप भव्यों के, तमः शान्त्यै =तम - अज्ञान, अन्धकार, - १७ - · Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हृत्स्तोत्रम् शान्ति = नाश, अज्ञानरूपी अन्धकारके नाशके लिये, अस्तु = हों • • ॥ १८ ॥ १८ भावार्थ - (जैसे मृगलांछन वाले 'चन्द्र अपनी अमृततुल्य किरणों से दिगन्त पर्यन्त प्रकाश फैलाकर अन्धकारका नाशकर देता है, वैसे मृगलांछन वाले जिनेश्वर श्रीशान्तिनाथ अपनी अमृततुल्य वाणी से सभी प्राणियों के हृदयको पवित्रकर अज्ञानका नाशकर देते हैं। इसलिये ) अमृततुल्य वाणीरूपी किरणोंसे दिगन्त के प्रकाशित करनेवाले तथा मृगलांछनवाले जिनेश्वर श्रीशान्तिनाथ आप भव्यों के अज्ञान - रूपी अन्धकारका नाशकरें । (यहां जिनेश्वरकी वाणी अज्ञाननाशक है - यह ध्वनि है ) ॥ १८ ॥ श्री कुन्थुनाथ भगवान् सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुरनुनाथानामेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥ १९ ॥ पदार्थ - अतिशयर्द्धिभिः = अतिशय प्रसिद्ध अतिशय, सहज - कर्मक्षयज - देवकृत - प्रातिहार्य ) ऋद्धि - समृद्धि - प्रचुरता - अधिकता, सहज आदि अतिशयोंकी समृद्धिसे, सनाथः = युक्त - विराजित, इसलिये, सुरासुरनुनाथानाम् = सुर, असुर, नृ - मनुष्य तथा उनके नाथ स्वामी - इद्रों के, एकनाथः = एक एकमात्र, नाथ - स्वामी, सर्वश्रेष्ठस्वामी, भगवान् = प्रशंसनीय तथा प्रचुर धर्म, ज्ञान आदिसे युक्त, श्री कुन्थुनाथः = जिनेश्वर श्रीकुन्थुनाथ वः - आप भव्योंकी, श्रिये सुखसम्पदा के लिये, अस्तु = हों । सुखसम्पदा देवें ॥ १९ ॥ - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् भावार्थ—सहज, कर्मक्षयजन्य, देवकृत तथा प्रातिहार्य - इन प्रसिद्ध तथा प्रचुर अतिशयोंसे विराजित, देव, असुर, मनुष्य तथा देवेन्द्र आदिकेभी एकमात्र स्वामी ( देवाधिदेव ) भगवान् जिनेश्वर श्रीकुन्थुनाथ आप भव्योंकी सुखसम्पदा बढ़ायें। (यहां - जो ऐश्वर्यशाली है, वही सभीका स्वामी होता है, तथा किसीको ऐश्वर्य देता है-यह भाव है ) ॥ १९ ॥ अरनाथः स भगवांश्चतुर्थाऽरनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥ पदार्थ-चतुर्थारनभोरविः चतुर्थ - चौथा, अर - द्वादशारकालचक्रका दुःषमसुषमानामकाभाग, नभ-आकाशमंडल, रवि-सूर्य, चोथा अर रूपी गगनमंडलके सूर्य, भगवान् प्रचुर तथा प्रशंसनीय ऐश्वर्य, ज्ञान आदिसे युक्त, सः प्रसिद्ध, अरनाथः जिनेश्वर श्रीअरनाथ, व आप भाव्योंका, चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलासम् चतुर्थ, पुरुषार्थमोक्ष, श्री-साधनसम्पदा, विलास - शोभा, चौथे पुरुषार्थ-मोक्षके (ज्ञान, चारित्र आदि) साधनोंकी शोभा, वितनोतु करें - बढ़ायें ॥ २० ॥ ___ भावार्थ--(जैसे सूर्य गगनमंडलमें सब ग्रहों नक्षत्रोंसे अधिक प्रकाशवान - ऐश्वर्यशाली है, · तथा अपनी किरणोंसे सभी पदार्थोंकी श्रीवृद्धि करता है। उस प्रकार ही चौथे दुःषमसुषमा अरमें जिनेश्वर तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ तथा मोक्षमार्गके प्रदर्शक होनेसे उसकी श्रीवृद्धि करते हैं । इसलिये --) चौथे अर रूपी गगनमंडल के सूर्यरूपीभगवान् श्रीअरनाथ आप भव्योंकी (धर्म - अर्थ-काम-मोक्ष - इन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् चार पुरुषार्थों में) चौथे मोक्षरूपी पुरुषार्थकी ज्ञानचारित्र आदि साधनसम्पदा बढ़ायें। (यहां - उत्तमोत्तम व्यक्ति ही उत्तमोत्तम अभिलषित देसकता है - यह तात्पर्य है ) ॥ २० ॥ सुरासुरनराधीशमयुरनववारिदम् । कर्मद्रन्मूलने हस्तिमल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥ २१ ॥ पदार्थ—सुरासुरनराऽधीशमयूरनववारिदम् = सुर, असुर, नर, अधीश - इन्द्र, मयूर , नव - नवीन - प्रथम, जलसे भरा हुआ अषाढ महीनेका, वारिद - वादल, देवेन्द्र, असुरेन्द, नरेन्द्र आदि सभी प्राणीरूपी मयूरकेलिये हर्षदेनेवाले नवीन वादल रूपी, तथा, कर्मद्रुन्मूलने-फर्म - शुभ, अशुभ - पुण्य, पाप, द्रु - वृक्ष, उन्मूलन-उखाड़ना, नाशकरना, दूरकरना, कर्मरूपी वृक्षके उखाड़ने में, हस्तिमल्लम् =ऐरावत. हाथी समान, मल्लिम्-जिनेश्वर श्रीमलिनाथकी, अभिष्टुमः =हम स्तुति करते हैं ॥ २१ ॥ भावार्थ - (नवीन काले वादलोंको देखकर मयूर हर्षसे नांच उठता है, देवेन्द्र आदिभी अतिशय भक्ति होनेके कारण जिनेश्वरको देखते ही अत्यन्त हर्षित हो जाते हैं, क्योंकि जैसे ऐरावत हाथी वृक्षोंको उखाड़ फेंकता है, वैसे ही जिनेश्वरनेभी कर्मरूपी वृक्षको जड़ मूलसे नष्ट कर दिया है तथा उपदेशके द्वारा दूसरों के कर्मकाभी नाशकरते हैं। इसलिये-)देवेन्द्र आदिरूपी मयूरों केलिये नवीन वादलरूपी तथा कर्मरूपी वृक्षको उखाड़ फेंकनेवाले ऐरावतरूपी जिनेश्वर श्रीमलिनाथकी मैं स्तुति करता हूँ। (यहां - जो सभीका Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषा ऽनुवादसहितम् प्रिय है तथा मुक्त है, वही स्तुतिपात्र है - ऐसा अभिप्राय है ) ॥ २१ ॥ २१ जगन्महामोहनिद्राप्रत्यूषसमयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य देशनावचनं स्तुमः || २२ | पदार्थ - जगन्महामोहनिद्राप्रत्यूषसमयोपमम् = जगत् संसार, सभी प्राणी, महामोह - महान् अज्ञान, निद्रा - नींद, प्रत्यूष - उषाकालप्रभात, समय, उपमा - तुल्य, संसार के सभी प्रणियोंकी महान् अज्ञानरूपी नींद के तोड़ने में उषाकालके समान, मुनिसुव्रतनाथस्य = जिनेश्वर श्रीमुनिसुव्रतनाथकी, देशनावचनम् = उपदेशवाणीकी, स्तुमः = स्तुति करते हैं ॥ २२ ॥ भावार्थ - (जैसे प्रातः कालमें सभीकी नींद टूट जाती है, या प्रातः काल सभी की नींद तोड़नेवाला है, वैसेहीं जिनेश्वर अपनी उपदेश वाणियोंके द्वारा सभी प्राणियोंके महान् अज्ञानका नाशकर देते हैं । इसलिये - ) संसार के सभी प्राणियों के महान् अज्ञानरूपी नींदके तोड़ने में प्रातः काल समान, श्रीमुनिसुव्रतनाथकी देशनावाणीकी स्तुति करते हैं । ( यहां ज्ञानप्रद वागी हीं प्रशंसनीय है, अतः उसके बक्ता महान आत्मा हैं - यह ध्वनि है ) ॥ २२ ॥ लुठन्तो नमतां मूर्ध्नि निर्मलीकारकारणम् । वारिप्लवा इव नमेः पान्तु पादनांऽशवः ॥ २३ ॥ पदार्थ – नमताम् = प्रणाम करनेवालों के, मूर्ध्नि - मस्तक पर, उठन्तः = फैलती हुई, वारिप्लवाः = वारि जल, प्लव प्रवाह धारा,. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत्स्तोत्रम् पानीकी धारा, इव - जैसे, निर्मलीकारकारणम् = निर्मलीकार - शुद्ध करना, कारण-साधन, शुद्धकरनेका साधनरूप - शुद्धकरनेवाले, नमः =जिनेश्वर श्रीनमिनाथकी, पादनखांशवः पाद - पाँव, नख, अंशुकिरण, पाँवके नखोंकी किरणें, पान्तु (आप भव्योंकी) रक्षाकरें ॥ २३ ॥ भावार्थ - (जैसे पानीकी धारा मलको धोकर मांथा आदिअंगोको पवित्र करती है, वैसे ही जिनेश्वरके पाँवोंके नखोंकी किरणें मस्तकपर पड़नेसे प्रणाम करनेवालोंको पवित्र करदेती हैं । इसलिये-) अतिशय भक्तिसे अत्यन्त झुककर प्रणाम करनेवालों के मस्तक पर फैलती हुई, एवं पानीकी धाराके समान पवित्र करनेवाली जिनेश्वर श्रीनमिनाथके पाँवोंके नखोंकी किरणें आप भव्योंकी रक्षा करें । (यहां - जो पवित्र करे, वास्तवमें वही रक्षक है - तथा जिनेश्वर के प्रणामसे लोक पवित्र होते हैं - ऐसा आशय है) ॥ २३॥ यदुवंशसमुद्रेन्दुः कर्मकक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिभगवान् भूयाद्वोऽरिष्टनाशनः ॥ २४ ॥ पदार्थ-यदुवंशसमुद्रेन्दुः यदु - यदुनामके राजा, वंशसन्तान, कुल, समुद्र, इन्दु - चन्द्र, यदुकुलरूपी समुद्र केलिये चन्द्ररूपी, कर्मकक्षहुताशनः कर्म - पुण्यपापे, कक्ष - वन, हुताशन - अमि, कर्मरूपी वनके लिये अमिरूपी, भगवान् ज्ञान आदि गुणोंसे विराजित, अरिष्टनेमिः जिनेश्वर श्रीनेमिनाथ, वा=आप भव्योंके, करिष्टनाशना अरिष्ट - उपसर्ग, उपद्रव, नाशन-नाशकरनेवाले, सभी Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् उपद्रवोंके नाशकरनेवाले, भूयात् होवें ऐसी मेरी प्रार्थना है ॥ २४ ॥ भावार्थ--(चन्द्र समुद्रको बढ़ाता है तथा अमि वनको जला देता है यह प्रसिद्ध है। जिनेश्वरने भी यदुकुलमें जन्म लेकर उसको वढ़ाया - प्रख्यात किया है, तथा ज्ञान एव चारित्रके बलसे सभी कर्मोंको जला दिया है - नाशकर दिया है। इसलिये) यदुकुल रूपी समुद्रके लिये चन्द्ररूपी तथा कर्मवनके लिये अनिरूपी जिनेश्वर श्री अरिष्टनेमिनाथ भगवान् आप भव्यों के उपद्रवोंका नाशकरें। (यहां-जो अरिष्टों-उपद्रवोंके लिये नेमि - चक्रधारारूपी हैं, तथा कर्म - सांसारिक उपाधियोंसे रहित हैं, वे ही उपद्रवोंका नाशकर सकते हैं - यह अभिप्राय है) ॥ २४ ॥ कमठे धरणेन्द्रे च स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥२५॥ पदार्थ-स्वोचितम् अपने अपने स्वभावके अनुरूप, कर्मक्रिया, क्रमशः उपसर्ग तथा उसका निवारणरूप क्रिया, कुर्वति करनेवाले - करतेहुए, कमठे=कमठनामके असुरके विषयमें, च= और, धरणेन्द्रे धरणेन्द्रनामके नागराजके विषयमें, तुल्यमनोवृत्तिः =तुल्य - समान, मनोवृत्ति - भावना. समानभावनावाले - पक्षपातरहितसमदर्शी - उदासीन - मध्यस्थ, पार्श्वनाथ: जिनेश्वर श्रीपार्श्वनाथ, प्रभुः स्वामी, व: आप भव्योंकी, श्रिये -सुखसम्पदा केलिये, अस्तु =हों, सुखसम्पदा वढ़ायें ॥ २५॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाई स्तोत्रम् भावार्थ - ( जब श्रीपार्श्वनाथ प्रतिमास्थित थे, तो उनके ध्यान भंग के लिये पूर्वजन्म के वैरके कारण कमठनामके असुरने अनेक उपसर्ग कियेथे, तथा जिनेश्वरभक्त होनेके कारण नागराज धरणेन्द्र ने अपनी शक्तिसे उन उपसर्गोंका निवारण कियाथा । फिरभी भगवान् दोनों के विषय में समदर्शी थे, किसीके ऊपर उनको राग तथा द्वेष नहीं था । इस कथा के अनुसन्धान से स्तुतिकरते हैं - कि) अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार उपद्रव तथा उसका निवारण करनेवाले कमठ नामके असुर तथा धरणेन्द्रनामके नागराजके विषय में समदर्शी वीतराग जिनेश्वर श्रीपार्श्वनाथस्वामी आप भव्योंकी सुखसम्पदा बढ़ा यें। (यहां प्रभु वीतराग हैं, तथा वीतराग ह्रीं सुखके मूल हैं - यह भाव है ) || २५ ॥ २४ - - कृतापराधेऽपि जने कृपामन्थरतारयोः । पापादयोर्भद्रं श्रीवीर जिननेत्रयोः ॥ २६ ॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं सकलाई स्तोत्रं समाप्तम् ॥ पदार्थ -- कृताऽपराधे = कृत किया है अपराध जिसने ऐसे अपराध करनेवाले के ऊपर, अपि = भी, कृपामन्थरतारयोः - कृपा - दया, मन्थर - स्थिर, तारा - आंखके काले भाग- आंखके तारे, दयासे स्थिर हैं आंखों के तारे जिनके - दयापूर्णदृष्टिवाले, अतएव, ईषद्भाषाईयो:- इषद् -कुछ, बाष्प - आंसू, आर्द्र भींगे, दयासे उमड़ आये आंसुओं से कुछभींगे, श्रीवीरजिननेत्रयो : = जिनेश्वर चरम Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् तीर्थङ्कर श्रीमहावीरस्वामीके दोनों नेत्रोंका, भद्रम् = मंगल हो । श्रीवीरजिनके नेत्र सकल मंगलकी खान हैं ॥ १६॥ २५ भावार्थ - (जिनेश्वर श्रीमहावीरके ध्यानकी इन्द्रसे की गयी प्रशंसाकी परीक्षा करने के लिये पृथिवीपर आकर संगमनाम के सुरने उनका ध्यान तोड़नेकेलिये अनेकों भयंकर उपसर्ग किये, किन्तु असफल होकर लौटने के समय उस असुरके विषय में ' आततायी इस देवकी क्या गति होगी ? ' इस आशंका से श्रीवीर जिनकी आंखों में दयासे आंसू उमड़ आये तथा उसको स्थिरदृष्टि - एकटकसे देखने लगे - इस कथा के अनुसन्धानसे स्तुति करते हैं कि - ) अपराधकरनेवाले के ऊपरभी दयासे स्थिर तथा आंसूसे भरे जिनेश्वर श्रीमहावीर स्वामीके नेत्रका मंगल हो - वह सर्वमंगलकारक हैं । (यहां - जो नेत्र अपराधी के ऊपर भी दयापूर्णहों, वैसे नेत्रवाले हीं सकल मंगलकारक हैं, तथा जिनेश्वर अपराधी के प्रतिभी दयालुहीं होते हैं - यह आशय है ) ॥ २६ ॥ इति सकलाऽर्हत्स्तोत्रे तपोगच्छाधिपतिशासन सम्राट्कदम्ब गिरिप्रभृत्यनेकतीर्थोद्धारकबालब्रह्मचार्याचार्यवर्यश्रीमद्विजयने मिसूरीश्वरपट्टा - लङ्कारसमयज्ञशान्मूर्त्याचार्यवर्य श्री विजयविज्ञानसूरीपट्टधर सिद्धान्तमहोदधि - प्राकृत विद्विशारदचार्यवर्य विजयश्री कस्तूरसूरीश्वर शिष्यपन्यास श्री कीर्तिचन्द्र विजयगणिविरचितः कीर्तिकलाख्यहिन्दी भाषानुवादः समाप्तः ॥ - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीरजिनस्तोत्रम् ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यने परिशिष्टपर्वनामके चरित्रप्रबन्ध का प्रारम्भ. करतेहुए मंगलकेलिये श्रीमहावीरस्वामीको प्रणाम करते हैं श्रीमते वीरनाथाय सनाथायाऽद्भुतश्रिया । . महानन्दसरोराजमरालायाऽर्हते नमः ॥ १ ॥ पदार्थ - अद्भुतश्रिया अद्भुत - आश्चर्यकारक, श्री-अतिशयसम्पदा, आश्चर्यकारक अतिशयसम्पदाओंसे, सनाथाय=युक्त - विराजित, महानन्दसरोराजमरालाय-महानन्द महानन्दरूपी, सरस्. तालाब - सरोवर, राजमराल - मराल -हंसके राजा - राजहंस, महान् आनन्दरूपी सरोवरके राजहंसस्वरूप, अर्हते-अरिहन्त - तीर्थङ्करजिनेश्वर, श्रीमते श्रीमान् , वीरनाथाय महावीरस्वामीको, नमः मेरा नमस्कार हो ॥ १॥ भावार्थ- (जैसे सरोवरमें राजहंस सर्वाधिक शोभासम्पन्न तथा यथेच्छ विहारकरनेवाला - सरोवरके कमल आदि सम्पदाओंका यथेष्ट उपभोग करनेवाला होता है, वैसेही जिनेश्वर अनेक अतिशयोंसे विराजित एवं मुक्त होनेसे अनन्त, शाश्वत तथा अखंड ऐसे महान् आनन्दका यथेष्ट उपभोग करनेवाले हैं। इसलिये) असाधारण तथा अलौकिक होनेसे आश्चर्यकारक सहज आदि अतिशयोंसे विराजित एवं महान् - अनन्त, शाश्वत तथा अखंड आनन्द - मोक्षसुखरूपी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् सरोवर के राजहंसस्वरूप चरम तीर्थकर श्रीमान् महावीरस्वामीको मेरा प्रणाम हो- मैं प्रणाम करता हूं । (यहां जो अद्भुत अतिशयों से विराजित तथा मुक्त हैं, वही नमस्कारयोग्य तथा मंगलकारक हैंयह भाव है ) ॥ १ ॥ सर्वेषां वेधसामाद्यमादिमं परमेष्ठिनाम् । देवाधिदेवं सर्वज्ञ श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥ २ ॥ , पदार्थ - सर्वेषाम् = सभी, वेधसाम् = ज्ञानियों के अथवा वासुदेवअर्धचक्रियों के, आद्यम् = मुख्य अथवा प्रथम, तथा, परमेष्ठिनाम् = प्रसिद्ध पंच परमेष्ठियों के आदिमम् = सर्वप्रथम गणनीय अग्रगण्य, देवाधिदेवम् = देवाधिदेव देवों के भी सेव्य, सर्वज्ञम् = सर्वज्ञ - केवल - ज्ञानी, श्रीवीरम् = चरम तीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीका, प्रणिदध्महे= `ध्यान करता हूँ ॥ १ ॥ - - २७. - भावार्थ —जो सर्वज्ञ होने के कारण सभी ज्ञानियों के मुख्य हैं, अथवा सभी अर्धची वासुदेवों के प्रथम हैं, (यहाँ - प्रथम चक्रवर्ती भरत के पुत्र मरीचिका जीव त्रिपृष्ठनामके प्रथम वासुदेव हुए थे, तथा वह त्रिपृष्ठवासुदेवका जीवहीं चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामी हुए- ऐसा आगममें वर्णित है, यह ध्यान देने योग्य है ।) तथा जो अतिशयों, निर्हेतुककृपा एवं सभी प्राणियोंका उपकार आदिगुणों के कारण, अर्हत् सिद्ध आचार्य उपाध्याय साधु इन पंच परमेष्ठियों में अर्हत् - शब्द सर्वप्रथम कहे जाते हैं तथा अग्रगण्य हैं, ऐसे देवाधिदेवदेवों केभी पूज्य सर्वज्ञ चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीका मैं ध्यान Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरजिनस्तोत्रम् करता हूँ। (यहां - ज्ञानकी कामनावालेकेलिये उपयुक्तगुणविशिष्ट तीर्थकर ही ध्येय हैं - यह अभिप्राय है) ॥२॥ कल्याणपादपाऽऽराम श्रुतगङ्गाहिमाचलम् । विश्वाऽम्भोजरविं देवं वन्दे श्रीज्ञातनन्दनम् ॥ ३ ॥ पदार्थ - कल्याणपादपाऽऽरामम् कल्याण शुभ, पादप-वृक्ष, आराम - उपवन, बगीचा, कल्याणरूपी वृक्षके लिये उपवनरूपी, श्रुतगङ्गाहिमाचलम्-श्रुत - आगम, गङ्गा - गंगानदी, हिमाचल-हिमालय पर्वत, आगमरूपी गंगानदीकेलिये हिमालयपर्वतरूपी, विश्वाम्भोजरविम् विश्व - संसार, संसारके सभी प्राणी, अम्भोज-कमल, रवि-सूर्य, संसारी प्राणीरूपी कमलोंकेलिये सूर्यरूपी, देवम् = देवाधिदेव, श्रीज्ञातनन्दनम् श्रीज्ञात - इक्ष्वाकुवंशकी शाखा ज्ञातकुल, नन्दनपुत्र, हर्षवर्धक, (चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामी )की, वन्दे मैं वन्दना करता हूँ ॥३॥ _ भावार्थ- (जैसे उपवनमें अच्छे वृक्षोंका पोषण, संवर्धन एवं रक्षण होता है, उसप्रकार ही जो कल्याणके पोषण, संवर्धन, तथा रक्षण करनेवाले - कल्याणप्रद हैं। तथा, जैसे हिमालय पर्वत गंगा नदीका उद्गमस्थान है, वैसे ही जो आगमों के उद्गमस्थान-प्रवक्ता हैं। तथा सूर्य जैसे कमलोंको प्रबोधित - विकसित करता है, वैसे ही जो संसारी प्राणीको सदुपेदेशों के द्वारा प्रबोधित करते हैं-सम्यग् ज्ञान देते हैं। इसलिये ) कल्याणरूपी वृक्षोंके उपवनरूपी, आगमरूपी गंगानदीके हिमालयपर्वतरूपी तथा भव्यप्राणीरूपी कमलोंके .सूर्यरूपी Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् २९ ज्ञातकुलोद्भव चरमतीर्थकर देवाधिदेव श्रीमहावीर स्वामीकी मैं वन्दना करता हूँ। (यहां-शुभकारक, शास्त्रप्रवर्तक, ज्ञानप्रद तथा उच्चकुलोत्पन्न । एवं देवोंकेभी वन्दनीय ही वन्दनीय हो सकते हैं—यह भाव है) ॥३॥ पान्तु वः श्रीमहावीरस्वामिनो देशनागिरः । भव्यानामान्तरमलप्रक्षालनजलोपमाः ॥ ४ ॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं श्रीवीरजिनस्तोत्र समाप्तम् ।। ___ पदार्थ-भव्यानाम् भविष्यमें सिद्धि प्राप्तकरनेवाले - भव्यप्राणियों के, आन्तरमलप्रक्षालनजलोपमा आन्तर - अन्तरंग, मल. दोष - राग, द्वेष, कषाय आदि, प्रक्षालन - धोना, शुद्ध करना, दूर करना, जल, उपमा - समान, अन्तरंग-रागद्वेष कषाय आदि - दोषों के दूरकरने में निर्मलजलसमान, श्रीमहावीरस्वामिनः = चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीकी, देशनागिर: उपदेशवाणी - प्रवचन, व: आपभव्योंकी, पान्तु रक्षाकरें, आत्मशुद्धिके द्वारा कल्याणप्रद हों ॥ ४ ॥ भावार्थ -- (जैसे निर्मल जल - शरीर वस्त्र आदिके मैलको साफ करदेता है, वैसेही तीर्थंकरकी वाणी सम्यग् ज्ञानका प्रतिपादन करनेके कारण आत्माके दोषों-रागद्वेष कषाय आदि-को दूर करनेवाली है। इसलिये ) भव्यप्राणियों के अन्तरंग दोषोंके दूरकरनेमें निर्मलजलसमान, चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीकी देशनावाणी आपकी रक्षाकरें - अन्तरंग दोषोंको दूरकर आत्माकी शुद्धि करें। (यहां Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरजिनस्तोत्रम् अन्तरंग दोषोंके दूर करनेवाले ही वास्तविक रक्षक हैं—यह आशय है)॥ ४ ॥ इति श्रीवीरजिनस्तोत्रे तपोगच्छाधिपति-शासनसम्राट्-कदम्बगिरिप्रभृत्यनेकतीर्थोद्धारकबालब्रह्मचार्याचार्यवर्यश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरपट्टालकार-समयज्ञ-शान्तमूर्त्याचार्यवर्यश्रीविजयविज्ञानसूरीश्वरपट्टधर-सिद्धान्तमहोदधि-प्राकृतविद्विशारदाचार्यवर्यश्रीविजयकस्तूरसूरीश्वरशिष्य-पन्या सश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितः कीर्तिकलाख्यहिन्दीभाषाऽनुवादः समाप्तः॥ .. ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ MITTINOD HTRA Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास श्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितकीर्तिकलाव्याख्यसंहितानि पुस्तकानि - १. द्वात्रिंशिकाद्वयी ( अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिकाऽन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका च) कीर्तिकलाव्याख्याविभूषिता । २. द्वात्रिंशिकाद्वयी — कीर्तिकला हिन्दी भाषानुवादसहित । ३. वीतरागस्तव : कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः । वीतरागस्तव : - कीर्तिकला हिन्दीभाषानुवादसहित । 8. ५. स्तोत्तत्रयी (सकलाऽर्हस्तोत्र - वीर जिनस्तोत्र - महादेवस्तोत्राणि ) कीर्तिका हिन्दीव्याख्यासहिता । ६. स्तोत्रत्रयी कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहित । · - 19. अध्यात्मसार : - कीर्तिकलाव्याख्यासहितः (यन्त्रस्थः) | (सम्पूर्ण भागों में ) । प्राप्तिस्थान श्रीजनकलालकान्तिलाल । लिम्बडीशेरी, पेटलाद, वाया- आणन्द, (गुजरात) | Page #53 --------------------------------------------------------------------------  Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अहम् ॥ श्रीविजय-नेमि-विज्ञान-कस्तूर-सुरिसद्गुरुभ्यो नमः । कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं ॥ श्रीमहादेवस्तोत्रम् ॥ पन्यासश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितकीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् । श्रेयःप्राप्ति के लिये महादेवकी आराधना करनेकी शास्त्रोंमें आज्ञा है। महादेव ही शिव, महेश्वर आदि शब्दोंसे सम्बोधित किये जाते हैं। किन्तु उनके स्वरूपके विषयमें सम्प्रदायोंका भिन्न भिन्न मत है। इसलिये कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजीने महादेवके पारमार्थिक स्वरूपके परिचयकेलिये श्रीमहादेवस्तोत्रकी रचना की है। जिसमें शिव, महेश्वर, महादेव आदि शब्दोंकी व्याख्याके द्वारा श्रीमहादेवस्तोत्रका प्रारम्भ करते हैं प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मङ्गल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥१॥ पदार्थ-यस्य-जिस देवका, दर्शनम् देखाव, देखना, प्रशा न्तम् शान्त, शमभावनाका उद्बोधक, आत्मामें रहे हुए उपशमभावका Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् व्यञ्जक, जो उग्र तथा उद्वेगजनक नहीं हो ऐसा, तथा, सर्वभूताऽभयप्रदम् सभी प्राणियों के अभय देनेवाला, जो किसीके लिये भी भयकारक नहीं हो ऐसा, तथा, मङ्गल्यम् मङ्गलकारक एवं मंगलस्वरूप, एवं, प्रशस्तम्=शुभ, प्रशंसनीय तथा इष्ट है, तेन-दर्शनका प्रशान्त आदि होने के कारण, शिव: शुभ, शिव ऐसे, विभाव्यतेसमझे जाते हैं, कहे जाते हैं ।। १ ॥ ' भावार्थ-जिस देवका देखाव शान्त है तथा भयकारक नहीं है, तथा मंगलकारक एवं प्रशंसनीय है । अथवा जिस देवके देखनेसे शान्ति मिलती है तथा भय नहीं होता, तथा मंगल होता है, इसलिये जिस देवका देखना शुभ तथा इष्ट है। अतः वह देव शिव कहे तथा समझे जाते हैं। (जिस देवका देखाव अस्वाभाविक-अनेक नेत्र, मुख आदिसे तथा क्रोध आदिसे एवं शस्त्र आदिसे युक्त होनेके कारण उग्र एवं भयप्रद तथा नग्न एवं मुण्डमाला आदिसे युक्त होनेके कारण अमंगल एवं निन्दनीय है। अथवा उग्र एवं विकृत अंग तथा शस्त्रादिसे युक्त होनेके कारण जिस देवके देखनेसे क्षोभ, भय एवं अमंगल होते हैं, इसलिये जिसका देखना अनिष्ट है। वह देव शिव नहीं कहे जा सकते । क्योंकि शिवशब्दका अर्थ शुभ तथा शुभकारक-ऐसा ही होता है । इसलिये अन्यतीर्थिकोंके शिव, जो विकृत अंगवाले, क्रोधी, दिगम्बर एवं शस्त्रादिसहित कहे गये हैं, वह शब्दमात्रसे ही शिव हैं, अर्थसे नहीं-ऐसा अभिप्राय है ) ॥१॥ प्रस्तुत श्लोकका दूसरा अर्थभी हो सकता है । जैसे-यस्य= जिस देवसे प्रतिपादित, दर्शनम् दर्शन-सिद्धान्त, प्रशान्तम् शान्त Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् - है, तथा, सर्वभूताऽभयप्रदम् सभी प्राणियोंके अभय देनेवाला है। तथा, मङ्गल्यम् च, कल्याणकारक है, तथा, प्रशस्तम् च प्रशंसनीय तथा इष्ट है। तेन उक्त गुणों के कारण (वह देव) शिवः शिवशुभप्रद, विभाव्यते-कहे तथा माने जाते हैं ॥ १ ॥ भावार्थ-जिस देवका सिद्धान्त मुक्तिका प्रतिपादन करनेके कारण शान्तिकी राह बताता है, इसलिये प्रशान्त है । तथा अहिंसा आदिके उपदेशके द्वारा सभी प्राणियों के अभय देनेवाला, शुभमार्गके उपदेश देनेके कारण कल्याणकारक है, इसलिये वह दर्शन प्रशंसनीय तथा इष्ट है । वह देव शिव शब्दसे कहे जाते हैं, तथा शिव समझे जाते हैं। (अन्यतीर्थिकों के प्रसिद्ध शिवका दर्शन-सिद्धान्त हिंसा आदिसे होनेवाले यज्ञ आदिका प्रतिपादन करने के कारण अशान्त, भयप्रद एवं अशुभानुबन्धी है, इसलिये अमंगल तथा निन्दनीय है । अतः वह देव शब्दमात्रसे शिव हैं, अर्थसे नहींऐसा अभिप्राय है ॥ १॥ महत्त्वादीश्वरत्वाच्च यो महेश्वरतां गतः । रागद्वेषविनिर्मुक्तं वन्देऽहं तं महेश्वरम् ॥ २॥ पदार्थ-य: जिस देवने, महत्त्वात् महिमासे, च=तथा, ईश्वरत्वात् ऐश्वर्यसे, महेश्वरताम् = महेश्वरपन-बड़प्पन, गत:= प्राप्त किये हैं, रागद्वेषविनिर्मुक्तम् राग तथा द्वेषसे विनिर्मुक्त-रहित= वीतराग ऐसे, तम्-उस, महेश्वरम् महेश्वर कहे जानेवाले देवकी, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् अहम्=मैं, वन्दे वन्दना करता हूं - मैं उस महेश्वर देवको प्रणाम करता हूँ ॥२॥ भावार्थ-जिस देवने सर्वकर्मक्षय तथा केवल-दर्शन, ज्ञान,. चारित्र आदि असाधारण एवं अलौकिक गुणरूपी महिमासे तथा सहज आदि अतिशयरूपी ऐश्वर्यसे महेश्वरपन प्राप्त किये हैं— महेश्वर कहे गये हैं। मैं वीतराग ऐसे उस महेश्वर देवको प्रणाम करता हूँ। (जिन परतीर्थिकों के महेश्वरकी महिमा अलौकिक एवं असाधारण नहीं, किन्तु जगतका पालन संहार आदि लौकिकहीं कही गयी है, तथा सहज आदि अतिशय नहीं कहे गये हैं, एवं स्त्री आदि परिग्रहशत्रुनिग्रह-भक्तानुग्रह आदिके कारण जो वीतराग नहीं हैं। वे शब्दसे ही महेश्वर हैं, अर्थसे नहीं। इसलिये वे मुमुक्षुओंके प्रणम्य नहीं - ऐसा अभिप्राय है ) ॥२॥ महाज्ञानं भवेद्यस्य लोकालोकप्रकाशकम् । महादया-दम-ध्यान महादेवः स उच्यते ॥ ३ ॥ पदार्थ-यस्य=जिस देवका, महाज्ञानम्-महान्-अन्य ज्ञानों की अपेक्षासे उत्तम, विशुद्ध, नित्य एवं अनन्त, ज्ञान - केवलज्ञान, लोकालोकप्रकाशकम् लोक - संसार तथा संसारमें रहनेवाले भूत भविष्य तथा वर्तमान सभी द्रव्य तथा उसके पर्याय, अलोक-संसारसे बाहरका आकाश-उन दोनोंका, प्रकाशक ग्रहण करनेवाला जानने वाला है, अथवा लोकालोकप्रकाशक होनेके कारण जिनका ज्ञान महाज्ञान है, तथा, महादया-दम-ध्यानम् महान् - सर्वजीवों के प्रति Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् होनेसे अन्यकी अपेक्षासे उत्कृष्ट ऐसी दया तथा, महान् - असाधारण, दम · इन्द्रियमनोनिग्रह, एवं महान् - निर्विकल्पक होनेसे सर्वोत्तम, ध्यान - शुक्लध्यान हैं, सः वह देव, महादेवः महादेव, उच्यते-कहे जाते हैं ॥ ३ ॥ भावार्थ---- जिस देवका लोक तथा अलोक - दोनों के जानने वाला ऐसा महान् ज्ञान है, अर्थात् जो देव केवलज्ञानी हैं, अथवा जिस देवका महान् ज्ञान लोक तथा अलोक दोनोंका प्रकाशक है। तथा जिस देवकी दया, दम तथा ध्यान महान् हैं, अर्थात् जिस देवकी दया सर्वजीवों के प्रति है, दम कभी भंग नहीं होनेके कारण असाधारण है, एवं ध्यान निर्विकल्पसमाधिरूप शुक्लध्यान है, वह देव महादेव कहे जाते हैं। (अन्य तीथिकों के महादेव शब्दसे ही महादेव हैं। क्यों कि वे केवलज्ञानी नहीं है, तथा सृष्टिका संहार करने के कारण उनकी दया महान् नहीं है, उनका दमभी उनके परिग्रही होनेके कारण महान् नहीं है, तथा ध्यान भी सैद्र होने के कारण महान् नहीं है - यह तात्पर्य है)॥३॥ महान्तस्तस्करा ये तु तिष्ठन्तः स्वशरीरके । निर्जिता येन देवेन महादेवः स उच्यते ॥ ४ ॥ ___ पदार्थ-स्वशरीरके अपने शरीरमें, तु-हीं, ये-जो, तिष्ठन्तः=रहे हुए, रहनेवाले, महान्त: बहुत बड़े, तस्करा: चोर हैं, वह, येन=जिस, देवेन-देवसे, निर्जिता:-जीते गये हैं, सः= वह देवहीं, महादेव महादेव, उच्यते-कहे जाते हैं ॥ ४ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् __ भावार्थ-अपने शरीरमें ही जो धन, पशु आदि चुरानेबाले चोरोकी अपेक्षासे अधिक बलवान् तथा लौकिक चोर जिसको नहीं चुरा सकते ऐसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि आत्माके सर्वस्वके चुरानेवाले इन्द्रियरूपी महान् चोर रहे हुए हैं, उनको जिस अनन्तज्ञान आदिसे युक्त देवने जीत लिए हैं, वह जितेन्द्रिय देव ही महान् चोरोंके जीतनेके कारण महादेव कहे जाते हैं। (किन्तु परतीर्थिकों के महादेव तो स्त्री आदि परिग्रहवाले हैं, इसलिये वे अपने शरीरमें रहे हुए उन महान् चोरोंके जीतनेवाले नहीं हैं। किन्तु उन चोरों के ही अधीन हैं। अतः वे शब्दमात्रसे ही महादेव हैंयह भाव है) ॥ ४ ॥ रागद्वेषौ महामल्लौ दुर्जयौ येन निर्जितौ। महादेवं तु तं मन्ये शेषा वै नामधारकाः॥५॥ पदार्थ-येन=जिस देवने, रागद्वेषौ रागद्वेषरूपी, दुर्जयौ .दुर्जय - बड़े कष्टसे जीतने योग्य, महामल्लो-महान् मल्ल - पहलवानों को, निर्जितौ-जीतलिये हैं, तम्=उस देवको, तु=हीं, महादेवम्= महादेव, मन्ये=मैं मानता हूं। शेषाः-अवशिष्ट, उस देवके अतिरिक्त दूसरे देव, अन्यतीर्थिकोंके महादेव, वै=तो, नामधारकाः महादेव ऐसे नामधारण करनेवाले ही हैं। (किन्तु वास्तवमें महान् देव होनेके कारण महादेव नहीं हैं) ॥ ५ ॥ भावार्थ- जिस देव (जिनेश्वर)ने रागद्वेषरूपी ( अनादि कालसे रहनेके कारण अत्यन्त बलवान् होनेसे) दुर्जय ऐसे महान् Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् । मल्लोंको जीत लिये है, अर्थात् आत्मामें अनादिकालसे रहनेके कारण अत्यन्त दृढ़ होनेसे दुस्त्याज्य ऐसे रागद्वेषोंका जिस देवने त्याग कर दिया है, उन देव (वीतराग जिनेश्वर)को ही मैं महादेव मानता हूं। अर्थात् दूसरे देवोंसे अजेयके जीतनेवालेको ही महादेव कहना योग्य है। अन्य तीर्थिकों के देवतो नामसे ही महादेव हैं। (अर्थ तथा गुणसे नहीं। क्योंकि वे स्त्री आदिका परिग्रह तथा शत्रु आदिके निग्रह आदिमें प्रवृत्त होनेसे रागद्वेष के ही अधीन हैं, उसके जीतनेवाले नहीं। इसलिये वे वास्तविकरूपसे महादेव नहीं हैं - यह अभिप्राय है) ॥ ५ ॥ शब्दमात्रो महादेवो लौकिकानां मते मतः । · शब्दतो गुणतश्चैवाऽर्थतोऽपि जिनशासने ॥ ६॥ . पदार्थ-लौकिकानां लौकिक विषयों की प्राप्तिसे ही कृतार्थ ऐसे साधारण जनों (अन्यतीर्थिकों )के, मते-मतमें, मतः माने गये, महादेव महादेव, शव्दमात्र नाममात्र ही हैं। किन्तु, जिनशासने-जिनेश्वरसे उपदिष्ट सिद्धान्त के अनुसार माने गये महादेव, शब्दतः नामसे, अर्थतोऽपि अर्थसे भी, गुणतश्चैव और गुणसे भी, (महादेव हैं ) ॥ ६ ॥ भावार्थ --- सम्यक्तरहित तथा वस्तुके अनेकान्तात्मक स्वरूप के नहीं जाननेवाले लौकिक पदार्थ स्त्री, पुत्र तथा धन आदिको ही सर्वस्व माननेवाले मुक्तिमार्गसे वंचित ऐसे लौकिक - अन्यतीर्थिकों के मतमें माने गये महादेव नाम मात्रसे महादेव हैं (गुण तथा अर्थसे Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् नहीं। क्योंकि वे जितेन्द्रिय, वीतराग आदि गुणोंसे. युक्त नहीं हैं।) जिनशासनमें माने गये जिनेश्वररूपी महादेव तो शब्द - महादेव ऐसे नामसे, एवं महान् केवलज्ञान आदि होने के कारण अन्यदेवोंसे श्रेष्ठ देव - ऐसे अर्थसे तथा ऊपर वर्णित गुणोंसे भी महादेव हैं ॥ ६॥ शक्तितो व्यक्तितश्चैव विज्ञानाल्लक्षणात्तथा। मोहजालं हतं येन महादेवः स उच्यते ॥७॥ पदार्थ-येन-जिस देवने, मोहजालम् -मोह - ममताके जाल - समूहको - सभी प्रकारकी ममताओंको नाशकर दिया है- त्याग कर दिया है, सः वह देव, शक्तित: शक्तिसे, व्यक्तितश्चैव-तथा व्यक्तित्वसे, विज्ञानात वि - विशिष्टज्ञान - केवलज्ञानसे, तथा और, लक्षणात्-लक्षणसे, महादेवः महादेव, उच्यते-कहे जाते हैं। अथवा - जिस देवने, शक्तित: अपने क्षायिक अनन्त आत्मवीर्यसे तथा केवलज्ञानके प्रभावसे, व्यक्तितः एक एक करके, मोहोंका नाशकिया है, वह, लक्षणात =मोहनाशरूप लक्षणसे, महादेव कहे जाते हैं ॥ ७॥ भावार्थ-जिस (जिनेश्वर) देवने सभी प्रकारकी ममताओंका त्याग कर दिया है, वही मोहका नाश करनेवाले, सकल कर्मके क्षयसे आविर्भूत अनन्त आत्मवीर्य तथा सहज आदि अतिशयवाले असाधारण तथा अलौकिक व्यक्तित्व एवं केवलज्ञान और कहे गये तथा आगे कहे जानेवाले लक्षण - इन सभी गुणों के होनेसे महादेव Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् कहे जाते हैं । अथवा जिस देवने अपने क्षायिक अनन्त आत्मवीर्य और केवलज्ञान के प्रभावसे एक एक करके मोहोंका नाश कर दिये हैं, ऐसे वह (जिनेश्वर) देवहीं महादेव कहे जाते हैं । (अन्यतीर्थिकों के महादेव, स्त्रीपुत्र आदिमें ममत्व होनेके कारण तथा उक्त प्रकारके शक्तिआदि गुण नहीं होनेके कारण गुणसे या अर्थसे महादेव नहीं हैं - यह आशय है ) ॥ ७ ॥ नमोऽस्तु ते महादेव ! महामदविवर्जित ! | महालोभविनिर्मुक्त ! महागुणसमन्वित ! || ८ ॥ पदार्थ - महामदविवर्जित ! = हे महान् मद - उद्दण्डता - अहङ्कारसे, विवर्जित- रहित, निरभिमानी, महालोभविनिर्मुक्त != हे महान् लोभसे, विनिर्मुक्त रहित, निर्लोभी, महागुणसमन्वित != हे महान् गुणों से समन्वित - विभूषित !, महादेव ! - हे महादेव !, जिनेश्वर, ते= आपको, नमः = ( मेरा ) नमस्कार, अस्तु = हो ॥ ८ ॥ भावार्थ - ज्ञान आदिका उत्कर्ष रहने पर भी उसके मदसे -रहित होने के कारण तथा किसीभी प्रकारके मद नहीं रहने के कारण महान् निरभिमानी, किसीभी प्रकारके परिग्रह नहीं रहने से तथा - सभी प्रकार के लोभसे रहित होनेके कारण महान् निर्लोभी, असा - धारण एवं अलौकिक निरभिमानता, निर्लोभता, सभी प्राणियों का उपकार तथा केवल ज्ञान आदि महान् गुणों से विभूषित ऐसे है महादेव ! जिनेश्वर ! आपको मेरा नमस्कार - प्रणाम है । ( अन्य तीर्थिकों के महादेव तो बल आदिके अभिमान तथा श्मशानवास, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् नृत्य आदि मत्तजनोंके योग्य क्रियाओंसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त मत्त,पूजानैवेद्य आदिका लोभ होनेके कारण महान् लोभी, अत एव उत्तम गुणोंसे रहित होनेके कारण महादेव नहीं हैं, इसलिये वन्दनीय भी नहीं हैं - ऐसा अभिप्राय हैं ) ॥ ८ ॥ महारागो महाद्वेषो महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन महादेवः स उच्यते ॥९॥ पदार्थ-येन=जिस देवने, महाराग: महान् - जिसका त्याग अशक्य है ऐसा, अत्युत्कट, राग - विषयासक्ति, तथैव च और, महाद्वेषः महान्-अत्युत्कट द्वेष - अनिष्ट विषयोंमें अप्रीति, एवं, महामोह: महान् मोह • ममत्व, च-तथा, कषायः कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ - इन सभीका, हत: नाश किये हैं, - त्याग किये हैं, सः=ऐसे वह (जिनेश्वर) देव ही, महादेवः महादेव, उच्यते =कहे जाते हैं ॥ ९ ॥ भावार्थ- (असाधारण एवं अलौकिक अतिशय, शक्ति, ज्ञान आदिसे युक्त) जिस देवने (अनादि कालसे रहनेके कारण) महान्अत्यन्त दृढ एवं दुर्जय ऐसे राग, द्वेष, तथा महान्-विवेकको भ्रष्ट करनेवाले मोह, एवं महान् क्रोध, मान, माया तथा लोभरूप कषायइन सभीके त्याग कर दिये हैं। वह देव ही महादेव कहे जाते हैं। (इन सभी गुणोंसे युक्त जिनेश्वर हीं हैं, इसलिये वही महादेव हैं, अन्य तीर्थिकके इष्ट महादेवके यह सब गुण नहीं हैं, अतः वे नामधारी महादेव ही हैं-यह आशय है) ॥९॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् । ११ महाकामो जितो येन महाभयविवर्जितः। महाव्रतोपदेशी च महादेवः स उच्यते ॥ १० ॥ पदार्थ-येन जिस देवने, महाकामा महान् अत्यन्त उत्कट काम - कामना - वासना - कामिनीजिज्ञासा आदिका, हत:= नाश - त्याग किया है, तथा जो, महाभयविवर्जितः महान् भयसे विवर्जित-रहित हैं, च तथा, महावतोपदेशी-महान् व्रतों के उपदेश करनेवाले हैं, सः वह देव हीं, महादेव महादेव, उच्यते-कहे जाते हैं ॥ १० ॥ भावार्थ - जिस देवने अत्यन्त उत्कट ऐसी भोग तथा उपभोगकी इच्छारूपी महाकामका (चारित्रके पालन आदिसे ) त्याग - दमन किया है, अर्थात् जो सर्वथा निष्काम हैं, तथा जो (सकल कर्मोंका क्षय करनेसे) जन्म जरा मरण आदिरूप भवके महान् भयोंसे रहित - अत्यन्त निर्भय हैं। एवं सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह रूपी पांच महान् व्रतोंके उपदेश करनेवाले हैं, वह देव ही महादेव कहे जाते हैं। (जिनेश्वरमें यह सभी गुण हैं, इसलिये वही महादेव हैं। अन्य तीथिकों के महादेव तो स्त्री आदि परिग्रहोंसे युक्त होनेके कारण कामी, शत्रु आदिसे भयभीत एवं हिंसासे होनेवाले निकृष्ट यज्ञ आदिके उपदेशक होनेसे शब्दसे ही महादेव हैं गुणोंसे नहीं-यह तात्पर्य है ) ॥ १॥ महाक्रोधो महामानो महामाया महामदः । महालोभो हतो येन महादेवः स उच्यते ॥ ११ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् पदार्थ — येन = जिस देवने, महाक्रोधः = महान् अत्यन्त उग्र क्रोध, महामान: = महान् अत्यधिक मान - अभिमान - अहंकार, महामाया - महान् - अपार माया - शठता, महामदः - महान् - अत्यधिक मद - बल, विद्या, ऐश्वर्य आदिके अभिमान से हुई उद्धतता, तथा, महालोभः = महान् अत्यन्त लोभ, इन सभी दोषोंका, हतः = नाश किये हैं- त्याग कर दिये हैं, सः = वह देव, महादेवः = महादेव, उच्यते = कहे जाते हैं ॥ ११ ॥ भावार्थ जिस देवने (ज्ञान तथा चारित्र के बलसे) अत्यन्त उत्कट, हिंसादिमें प्रवृत्ति कराने तथा स्थायी एवं अधिक परिमाण में होनेके कारण महान् क्रोध, गुरु आदिकी अवज्ञा करानेवाले तथा अत्यधिक होनेके कारण महान् विद्या कुल बल आदिका अभिमान, अपार माया, अविनय आदिका प्रेरक तथा बलवत्तर बल आदि के अभिमान से होनेवाली महान् उद्धतता, एवं दुस्त्याज्य होनेसे महान् लोभ, इन सभी दोषों- कषायों का नाश-त्याग किया है । अर्थात् जो देव कषाय रहित एवं निर्मद हैं, वह देव हीं महादेव कहे जाते हैं । ( वीतराग, ज्ञानी एवं संयमी होनेके कारण जिनेश्वर उक्त सभी क्रोध आदि कषायों तथा मदसे रहित हैं, इसलिये वही महादेव हैं। अन्यतीर्थिकों के महादेव पुराण आदिमें क्रोधी मानी आदि रूप से वर्णित हैं, इसलिये वह महादेव नहीं हैं - ऐसा अभिप्राय है ) || ११ ॥ १२ - महानन्ददये यस्य महाज्ञानी महातपाः । महायोगी महामौनी महादेवः स उच्यते ॥ १२ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषा ऽनुवादसहितम् १२. पदार्थ - यस्य = जिस देवके, महानन्ददये = आनन्द तथा दया महान् सर्वोत्कृष्ट हैं । तथा जो देव, महाज्ञानी - महान् सर्वद्रव्यपर्यायविषयक होनेसे सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी ज्ञानवाले, केवलज्ञानी महातपाः= महान् दूसरों से अत्यधिक तपस्वी, महायोगी = महान् - असाधारण योगी, महामौनी = महान् विशुद्ध मौनी मौनव्रतपालक तथा मुनिके महान् - उत्कृष्टलक्षणों से युक्त हैं। I सः = वही, महादेवः = महादेव, उच्यते = कहे जाते हैं ॥ १२ ॥ भावार्थ —– जिस देवका आनन्द महानू - शाश्वत, अखण्ड,, अनन्त एवं निरुपाधिक तथा निर्विकल्प होने के कारण सर्वोत्तम है, तथा जिस देवकी दया महान् सब जीवों के प्रति समान रूप से होने के कारण अन्यदेवों की अपेक्षासे अत्यधिक है । तथा जो देव अनन्त: तथा सर्वपदार्थविषयक होनेसे महान् ज्ञानवाले - केवलज्ञानी, दुष्कर, विशुद्ध एवं अत्यधिक अनशन आदि तप करनेके कारण महान् तपस्वी, सहज आदि अतिशयों का कारणभूत होनेसे असाधारण एवं अलौकिक योगसे युक्त तथा मुनियोंके सर्वोत्तमभावों एवं क्रियाओं से युक्त हैं। वह देवहीं महादेव कहे जाते हैं । (परतीर्थिक देव उक्त सभी गुणों से रिक्त होनेके कारण वास्तविक रूपसे महादेव नहीं कहे जा सकते - ऐसा भाव है ) ॥ १२ ॥ w महावीर्यं महाधैर्यं महाशीलं महागुणः । महामञ्जुक्षमा यस्य महादेवः स उच्यते ॥ १३ ॥ पदार्थ - यस्य - जिस देवके, महावीर्यम् = वीर्य आत्मबल महान् - सर्वाधिक हैं, महाधैर्यम्=धैर्य-सन्तोष महान् - सर्वोत्कृष्ट हैं, महाशीलम् Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महादेवस्तोत्रम् =शील-चारित्र महान्-असाधारण एवं सर्वोत्तम हैं, महागुण:-गुणसम्यग्दर्शन, ज्ञान आदिगुण महान्-असाधारण एवं अलौकिक हैं, तथा, महामञ्जुक्षमा जिनकी क्षमा-अपराधकी सहनशीलता महान्प्रशंसनीय सर्वाधिक अत एव मंजु-मनोहर है, सा-वह देव, महादेव =महादेव, उच्यते-कहे जाते हैं ॥ १३ ॥ ___ भावार्थ-जिस देवके आत्मबल एवं उत्साह क्षायिक होनेके कारण अनन्त हैं, सन्तोष कभी अल्प नहीं होने के कारण स्थिर एवं सर्वाधिक हैं, चारित्र असाधारण, अलौकिक एवं सर्वोत्कृष्ट हैं, सम्यग्दर्शनआदि गुण अप्रतिपाती एवं अनन्त हैं, क्षमा प्रशंसनीय एवं असाधारण हैं, वह देवहीं महादेव कहे जाते हैं। . (अन्यतीर्थिक देवों के ये गुण नहीं हैं। क्योंकि वे रागद्वेष . आदिसे अभिभूत हैं। इसलिये वे महादेव नहीं कहे जा सकते । किन्तु जिनेश्वर ही उक्त गुणोंसे शोभित होनेके कारण महादेव हैं - यह अभिप्राय है) ॥ १३ ॥ स्वयम्भूतं यतो ज्ञानं लोकालोकप्रकाशकम् । अनन्तवीर्यचारित्रं स्वयम्भूः सोऽभिधीयते ॥ १४ ॥ पदार्थ-यत: जिस देवके, लोकालोकप्रकाशकम् लोक तथा अलोक दोनोंका प्रकाशक-जाननेवाला, ज्ञानम् केवलज्ञान, स्वयम्भूतम् स्वयं-गुरुके उपदेशके विना ही अपने आप भूत-प्रगट हुआ है, तथा जिस देवके, अनन्तवीर्यचारित्रम् चारित्र तथा वीर्य अनन्त हैं, अथवा स्वयम्भूतं-स्वयं-किसी देव आदिकी कृपा आदिके विना ही Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् अपने आप भूत प्राप्त हैं, सः = वह देवहीं, स्वयम्भूः = स्वयम्भू, उच्यते = कहे जाते हैं ॥ १४ ॥ १५ भवार्थ - जिस देवके लोकालोकके परिच्छेद करनेवाला - तीनों कालमें सर्वद्रव्यपर्यायका ग्रहण करनेवाला - केवल- ज्ञान गुरु आदिके उपदेशके बिना हीं जन्म से हीं ज्ञानत्रय युक्त होनेके कारण चारित्रपालनसे कर्मों के नाश हो जानेसे अपने आप प्रगट हो गया है । तथा जिस देव चारित्र एवं आत्मबल क्षायिक होनेसे अनन्त हैं, अथवा जिस देवके लोकालोकप्रकाशकज्ञान तथा अनन्तवीर्य एवं चारित्र स्वयंभूत = कर्मोंके सर्वथा क्षय हो जानेसे ( बादलों के हट जानेसे सूर्यके जैसे ) अपने आप प्रगट हो गये हैं, वह देवहीं स्वयम्भू कहे जाते हैं । (ऐसे स्वयंभूत - ज्ञान, वीर्य तथा चारित्रवाले जिनेश्वर हीं हैं, दूसरे देव नहीं । इसलिये जिनेश्वर हीं एकमात्र परमार्थ रूप से स्वयंभू हैं, दूसरे तो नामधारी हीं हैं - यह भाव है ) ॥ १४ ॥ शिवो यस्माज्जिनः प्रोक्तः शङ्करच प्रकीर्तितः । कायोत्सर्गी च पर्यङ्की स्त्रीशस्त्रादिविवर्जितः ॥ १५॥ · भावार्थ – यस्मात् = चूंकि, जिनः = जिनेश्वरदेव ऋषभनाथ - आदि तीर्थङ्कर, कायोत्सर्गी = कायोत्सर्ग मुद्रा के धारण करनेवाले, च = तथा, पर्यङ्की = पर्यङ्कासनके धारण करनेवाले, एवं, स्त्रीशस्त्रादि- . विवर्जितः = स्त्री, शस्त्र आदिसे रहित हैं -- स्त्री शस्त्र आदिका त्याग कर दिये हैं, इसलिये वे, शिवः = शिव, प्रोक्तः = कहे गये हैं, च = Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् तथा, शङ्करः=शङ्कर, प्रकीर्तितः = कहे गये हैं -- शिव तथा शङ्कर शब्दों से उनका वर्णन किया जाता है ॥ १५ ॥ १६ भावार्थ — चूंकि जिनेश्वर ऋषभनाथ आदि तीर्थकर हीं किसी भी जीवकी विराधना नहीं हो - ऐसे कार्योत्सर्गमुद्रा धारण करने वाले एवं निर्विकल्प, निष्प्रकम्प तथा निरुपाधिक समाधिकेलिये पर्यङ्कासन से रहनेवाले तथा स्त्री शस्त्र आदि परिग्रह से रहित हैं । अर्थात् चारित्रका यथावत् पालन हो इसलिये जिन्होंने उचित मुद्रा एवं आसनका स्वीकार किया है तथा स्त्री शस्त्र आदि सभी परिग्रहोंका त्याग कर दिया है । इसलिये वे जिनेश्वरदेव हीं शिव - कल्याणमय एवं कल्याणप्रद होने के कारण - शिव तथा शङ्कर शब्दोंसे - कहे गये हैं - वर्णित हैं । ( दूसरे देव तो स्त्री शस्त्र आदि परिग्रह होनेसे असमाहित चित्तवाले एवं जीव विराधनाके विवेकके विना हीं यथेच्छ, निन्दनीय मुद्रा एवं आसनके धारण करनेवाले, अथवा आसन एवं मुद्रासे रहित होने के कारण शिवस्वरूप एवं कल्याणकारक नहीं हैं, किन्तु शस्त्रादि धारण करनेसे भयङ्कर एवं अनिष्ट करनेवाले हीं हैं । इसलिये वह नाममात्रसे हीं शिव तथा शङ्कर हैं, गुण तथा अर्थसे नहीं - यह अभिप्राय है ) ॥ १५ ॥ साकारोऽपि नाकारो मृर्त्तोऽमूर्त्तस्तथैव च । परमात्मा च बाह्यात्मा सोऽन्तरात्मा तथैव च ॥ १६ ॥ पदार्थ - हि = चूंकि, सः = जिनेश्वरदेव, साकार : शरीरी हैं, इसलिये, मूर्त्तः = रूप, स्पर्श आदि गुणवाले सगुण हैं । च = और, - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् १७ तथैव-उसी प्रकार, अनाकार:=(सिद्ध अवस्थामें) आकार - शरीर रहित हैं, इसलिये, अमूर्त रूप स्पर्श आदि गुणरहित - अव्यक्त हैं । च-पुनः, तथैव-उस प्रकार ही, परमात्मा सिद्धस्वरूप, च-तथा, बाद्यात्मा औदारिकादि शरीररहित तथा सिद्धि रहित केवल कर्म शरीरसे युक्त, तथा, अन्तरात्मा देही हैं ॥ १६ ॥ . ___ भावार्थ-श्रीजिनेश्वर देव सिद्धिलाभसे पूर्व शरीरी होनेके कारण आत्माके स्वभावतः अमूर्त होने परभी उसके प्रदेशों के कर्मयुक्त होनेसे कथंचित् मूर्त - व्यक्त हैं । तथा सिद्ध अवस्थामें शरीररहित होनेसे अमूर्त - पौद्गलिक उपाधिरूप गुणसे रहित-अव्यक्त हैं। तथा तीर्थकर एवं सिद्ध अवस्थामें परमात्मा, विग्रहगति कालमें बाह्यात्मा एवं देही अवस्थामें. अन्तरात्मा भी हैं । (इसलिये अन्यतीर्थिक देवके वर्णित सगुण आदि रूप परमार्थसे जिनेश्वरमें ही घटित होते हैं। अन्य देवके विषयमें तो शब्दमात्र ही हैं - यह भाव है) दर्शनज्ञानयोगेन परमात्माऽयमव्ययः । परा क्षान्तिरहिंसा च परमात्मा स उच्यते ॥ १७ ॥ पदार्थ-अयम्=यह जिनेश्वर देव, अव्ययः अविनाशीमुक्त होनेके कारण जन्म मरणादिरूप अपाय रहित, तथा, दर्शनज्ञानयोगेन-दर्शन - सम्यग्दर्शन तथा केवलदर्शन एवं ज्ञान - सम्यग्ज्ञान तथा केवलज्ञानके योग - सम्बन्धसे, परमात्मा परम - सर्वोत्कृष्ट आत्मा हैं । तथा सांसारिक अवस्खामें भी, थान्तिः क्षमा, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् च = तथा, अहिंसा, परा कभी भङ्ग नहीं होनेवाली, अलौकिक, असाधारण, सर्वाधिक, सर्वोत्कृष्ट है, इसलिये, सः = वह आत्मा हीं, परमात्मा = परम - प्रकृष्ट गुणवान् आत्मा परमात्मा, उच्यते = कही जाती है ॥ १७ ॥ १८ . भावार्थ वह जिनेश्वरदेव तीर्थङ्कर अवस्था में सकल कर्मक्षय हो जाने से नित्य, अनन्त दर्शन - ज्ञान होनेके कारण अव्यय - मुक्त, जन्म - जरा - मरण आदि अपायों से रहित - अविनाशी - निर्गुण परमात्मा हैं । तथा सांसारिक अवस्था में क्षमा तथा अहिंसा आदि गुणों के सर्वोत्कृष्ट, सर्वाधिक तथा सर्वजीवविषयक होनेके कारण वह सगुण परमात्मा हैं । ( क्योंकि परमगुणों के होने से हीं आत्माको परमात्मा कहा जाता है । अन्य देव 'ज्ञान, दर्शन एवं क्षमा अहिंसा आदि गुणोंसे रहित होनेके कारण नाम मात्र से हीं सगुण निर्गुण 'परमात्मा हैं—ऐसा तात्पर्य है ) ॥ १७ ॥ परमात्मा सिद्धिप्राप्तौ बाह्यात्मा तु भवान्तरे । अन्तरात्मा भवेद्देहे इत्येष त्रिविधः शिवः ।। १८ ॥ ¡ पदार्थ - सिद्धिप्राप्तौ = सिद्धि मिल जाने पर, अर्थात् मुक्त अवस्थामें, परमात्मा=परम- सर्वोत्कृष्ट आत्मा परमात्मा, तु=तथा, भवान्तरे = दो भवों के मध्यकी अवस्था में, अर्थात् विग्रहगतिकाल में, बाह्यात्मा=बाह्य - औदारिक आदि 'चार शरीरसे बहिर्भूत आत्मा, 'तथा, देहे देहस्थ होने पर, अर्थात देही अवस्थामें, अन्तरात्मा ‘अन्तर - देहके मध्यवर्त्ती आत्मा, भवेत् हैं, इति- इस प्रकार, 'ऐषः = ? Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् प्रशान्तदर्शन आदि गुणोंसे विराजित - प्रस्तुत, शिवः शिव : जिनेश्वर, त्रिविधः तीन प्रकारके हैं ॥ १८ ॥ - भावार्थ- प्रशान्त दर्शन आदि गुणोंसे युक्त शिव जिनेश्वरहीं अन्तरात्मा, बाह्यात्मा तथा परमात्मा-इन त्रिविध रूपोंसे युक्त हैं । जैसे--सिद्धि प्राप्त होनेपर, अर्थात् मुक्त अवस्थामें अनन्त-दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा वीर्य आदि सिद्ध होनेसे वह परमात्मा कहे जाते हैं। क्योंकि सिद्ध आत्मासे अधिक उत्कृष्ट गुण अन्य आत्मामें नहीं होते। इसलिये वह परम-सर्व श्रेष्ठ आत्मा हैं। तथा सिद्धिकी प्राप्तिसे पूर्व जब भवावस्थामें जन्म ग्रहण केलिये पूर्व · भव छोड़कर जिनेश्वरकी आत्मा परभव ग्रहण करने के लिये विग्रहगति में रहती है, तब वह बाह्यात्मा हैं। क्योंकि उस अवस्थामें वह आत्मा कर्मिण शरीरके सिवाय अन्य सभी शरीरोंसे बाहर रहता है। इसलिये बाह्या - बाहर रहनेवाली आत्मा - बाह्यात्मा हैं । एवं जन्म ग्रहणके बाद शरीरस्थ रहने के कारण अन्तर - शरीरमें रहनेवाली आत्मा - अन्तरात्मा हैं। इस प्रकार जिनेश्वर त्रिविध आत्मस्वरूप है। (अन्य तीर्थिकों के शिवमें इस प्रकारसे तीनों अथ घटित नहीं होनेके कारण वह नामधारी ही है-ऐसा भाव है) ॥ १८ ॥ . सकलो दोपसम्पूर्णो निष्कलो दोषवर्जितः ।। . पञ्चदेहविनिर्मुक्तः सम्प्राप्तः परमं पदम् ॥ १९ ॥ ... पदार्थ:---दोषसम्पूर्ण: दोष - कर्म,, जन्म- राग द्वेष आदिले सम्पूर्ण - सहित् होनेपरः सकलः = कला : भविस्थामें होनेवाले Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् दोषोंसे सहित - सकल - सगुण हैं। दोषवर्जितः=दोष - उक्त प्रकारके रागआदि दोषोंसे वर्जित -रहित होनेपर - मुक्त अवस्थामें, पञ्चदेहविनिर्मुक्तः पञ्च - पांच, देह - शरीरोंसे विनिर्मुक्त - रहित, तथा. परमम् सर्वोच्च, सर्वोत्कष्ट - सिद्धिशिलारूप, पदम्पद - स्थानको, सम्प्राप्तः प्राप्तकरने पर, निष्कलः उक्त प्रकारकी कलासे रहित - निर्गुण हैं ॥ १९ ॥ भावार्थ -जिनेश्वर देव, सांसारिक अवस्थामें संसारमें होनेवाले कर्मजनित जन्म, जरा, मरण, राग, द्वेष आदि दोषों से अथवा कर्मरूप दोषसे युक्त रहते हैं। इसलिये उस अवस्थामें वे, सकल= कला - सत्त्व,रजस् तथा तमस् - इनतीनों गुणोंसे युक्त होनेसे - सगुण हैं। तथा चारित्र पालन आदिके प्रभावसे उक्त दोषोंसे रहित होनेपर उन दोषोंके कारण होनेवाले औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस तथा कार्मण - इन पांच शरीरोंसे मुक्त होकर सिद्धशिला रूप परम पदको प्राप्त करलेते हैं, उस अवस्थामें, निष्कल-कलासे रहितनिर्गुण हैं। (दूसरे देव तो परिग्रह आदिके कारण दोष सम्पूर्ण ही हैं । इसलिये वह नामधारी निष्कल या निर्गुण हैं, वास्तविक रूपसे तो सदा सकल या सगुण ही हैं - यह भाव है) ॥ १९ ॥ एकमूर्तिस्त्रयो भागा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । त एव च पुनरुक्ता ज्ञानचारित्रदर्शनात् ॥ २०॥ पदार्थ-(जिनेश्वर) एकमुनिः मूर्ति-स्वरूप - शरीर-व्यक्तिसे एक हैं, और, ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर. परम तथा कार्मण - इनारण होनेवाले आवसे उक्त दोषार सगुण Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् २१ इन नामोंके, त्रयः-तीन, भागाः भाग - अंश-पर्याय हैं। च तथा, ते वे तीनों भाग, एव- ही, ज्ञानचारित्रदर्शनात् = ज्ञान, चारित्र तथा दर्शन शब्दोंसे क्रमशः, पुन=फिरसे - शब्दान्तरसे, उक्ताः= कहे गये हैं ॥ २०॥ भावार्थ-जिनेश्वर रूपी एक मूर्ति हैं, तथा उसके ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर - इन नामोंके तीन पर्याय हैं । वह तीनों पर्याय ही ज्ञान, चारित्र तथा दर्शन शब्दों से कहे जाते है । अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर एवं ज्ञान, चारित्र तथा दर्शन ये शब्द क्रमशः पर्याय शब्द हैं। इस प्रकार अन्यदर्शनमें बताये गये (एक मूर्ति तीन भाग) जिनेश्वर हीं है। दूसरे देवके विषयमें 'एक मूर्ति तीन भाग' यह उक्ति असंगत है, जिसका प्रतिपादन आगे किया जायगा—यह जानना चाहिये । ॥ २० ॥ एकमूर्तिस्त्रयो भागा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। . परस्परं विभिन्नानामेकमूर्तिः कथं भवेत् १ ॥ २१ ॥ पदार्थ-एकमूर्तिः एक मूर्ति, और, ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः= ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर - ये, त्रयः तीन, भागाः भाग - अंश हैं । किन्तु, परस्परम् परस्पर, एक दूसरेसे, विभिन्नानाम् विभिन्न - पृथक् स्वरूप - शरीरवालोंकी, एकमूर्तिः एक शरीर, कथम् कैसे, भवेत् ? = हो सकती है? अर्थात् परस्पर भिन्न शरीरवालोंकी तीन मूर्तियां होंगी, एक नहीं ॥ २१ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् भावार्थ – अन्यतीर्थिकों का अभिप्राय हैं कि ब्रह्मरूप एक महेश्वर- ये तीनों अंश हैं यहां विष्णु तथा महेश्वर - तीनों परस्पर व्यक्तिके हीं ब्रह्मा, विष्णु तथा यह प्रश्न उठता है कि - ब्रह्मा, एक दूसरे से भिन्न स्वरूपवाले हैं । तो इन तीनों की एक मूर्ति या एक मूर्ति के ये तीनों भाग कैसे हो सकते है ? ( एक मूर्त्तिके तीन अवयव हो सकते हैं, किन्तु पृथक् रही हुई तीन मूर्तियां एक मूर्ति या एक मूर्त्तिके भागरूप तीन मूर्तियां नहीं हो सकती । जो जिसका भाग होता है, वह एकत्र नहीं रहनेसे अपूर्ण होता है । यहाँ तो ब्रह्म सम्पूर्ण हैं, तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वरभी पृथक् पृथक् सम्पूर्ण हीं हैं । इसलिये एकका दूसरा भाग है ऐसा कहना अयुक्त है - ऐसा तात्पर्य है ) ॥ २१ ॥ 1 २२ • . कार्यं विष्णुः क्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वरः । कार्यकारणसम्पन्ना एकमूर्त्तिः कथं भवेत् ? ॥ २२ ॥ - पदार्थ – विष्णुः = विष्णु नाम के देव, कार्यम् = कार्य-फल- पुत्र हैं, ब्रह्मा ब्रह्मा नामके देव, क्रिया = क्रियारूप द्वार हैं. तु=तथा, महेश्वरः=महेश्वरनाम के देव, कारणम् = कारण निमित्त हैं । इस प्रकार, कार्यकारणसम्पन्नाः- कार्यकारण भावको प्राप्त हुई तीन मूर्तियां, एकमूर्त्तिः = एकमूर्ति, कथम् = कैसे, भवेत् ? - हो सकती हैं, अर्थात् नहीं हो सकती ॥ २२ ॥ भावार्थ- पौराणिकों का कहना है कि - महेश्वरकी प्रेरणा से ब्रह्मा के शरीर से विष्णु प्रगट हुए । ऐसी स्थिति में महेश्वर निमित्त Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् हुए, ब्रह्मा द्वार हुए, तथा विष्णु कार्य हुए । (जैसे दण्ड निमित्त है, चक्रका घूमना द्वार है, घट कार्य है । यहाँ ब्रह्मा बीचमें रहनेसे चक्रके घूमनेके जैसे द्वार माने गये हैं—यह ध्यान देने योग्य है।) इस प्रकार ये तीनों कार्यकारणभावको प्राप्त हैं। तो एक मूर्ति कैसे हो सकते हैं ? । (एक ही व्यक्तिमें कार्यकारणभाव नहीं होता, किन्तु भिन्न व्यक्तियों में होता है, जैसे दण्ड तथा घटमें ! दण्ड तथा घट एक मूर्ति है-ऐसा तो बालकभी नहीं कह सकता। इसलिये तीनोंकी एकमूर्ति नहीं हो सकती। किन्तु जिनेश्वरके ही उक्त प्रकारसे एक मूर्त्तिके तीन भाग हैं - ऐसा अभिप्राय है) ॥ २२ ॥ प्रजापतिसुतो ब्रह्मा माता पद्मावती स्मृता । अभिजिजन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथं भवेत् ॥ २३ ॥ पदार्थ-ब्रह्मा=ब्रह्मानामके देव, प्रजापतिसुतः-प्रजापति द्विजके पुत्र हैं। तथा, माता=ब्रह्माकी माता, पद्मावती पद्मावती नामकी, स्मृता कही गयी हैं। एवं, जन्मनक्षत्रम् ब्रह्माके जन्म समयका नक्षत्र, अभिजित् अभिजित् नामका है। तो, एकमुर्तिः =एकमूर्ति, कथम् कैसे, भवेत् हो सकती है। अर्थात् नहीं हो सकती ॥ २३ ॥ - भावार्थ --- ( एक मूर्तिके ही भिन्न भिन्न अवस्थाओं के सूचक ये नाम हैं- ऐसा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इन तीनोंके माता पिता आदि भिन्न भिन्ननामके हैं। जैसे-) ब्रह्मा नामके देव प्रजापति नामक द्विजके पुत्र हैं, उनकी माताका नाम पद्मावती है। . तथा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् / जन्मनक्षत्र अभिजित् है । ऐसी स्थितिमें एकमूर्ति कैसे हो सकती है ? | ( एक व्यक्तिके हीं भिन्न भिन्न माता पिता तथा जन्म नक्षत्र नहीं होते । इसलिये ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर एक मूर्त्तिके तीन भाग नहीं हैं - ऐसा अभिप्राय है । पुराणमें प्रजापति के पुत्रको ब्रह्माका अवतार कहा गया है । उसके अनुसार यहां माता पिता आदिका उल्लेख है । ऐसे तो ब्रह्मा विष्णु के नाभिकमलसे उत्पन्न तथा सृष्टिके कर्त्ता माने जाने हैं - यह ध्यान देने योग्य है ) ॥ २३ ॥ २४ वसुदेवसुतो विष्णुर्माता च देवकी स्मृता । रोहिणी जन्मनक्षत्रमेकमूर्त्तिः कथं भवेत् ॥ २४ ॥ " पदार्थ – विष्णुः = विष्णु नामके देव-कृष्ण, वसुदेवसुतः = वसुदेवनामक राजाके पुत्र हैं । च=तथा माता = कृष्णकी माता, देवकी - देवकी नामकी, स्मृता = कही गयी है । |_जन्मनक्षत्रम्= कृष्णके जन्म समयका नक्षत्र, रोहिणी = रोहिणी नामका है । तो एकमूर्त्तिः = एकमूर्ति, कथम् - कैसे, भवेत् ? = हो सकती है ? ॥२४॥ भावार्थ – विष्णु वसुदेव राजाके पुत्र हैं, उनकी माताका नाम देवकी है, और उनका जन्मनक्षत्र रोहिणी है । ऐसी स्थितिमें एकमूर्ति तीन भाग कैसे हो सकते हैं ? । ( एक हीं व्यक्तिके अनेक माता पिता नहीं हो सकते । इसलिये एक मूर्त्ति तीन भाग कहना असंगत है । पुराणों में कृष्णको विष्णुका अवतार कहा गया है । तदनुसार यहाँ उपर्युक्त बातें कही गयीं हैं यह जानना चाहिये ) ॥ २४ ॥ · Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् पेढालस्य सुतो रुद्रो माता च सत्यकी स्मृता । मूलं च जन्मनक्षत्रमेकमूर्तिः कथ भवेत् ? ॥ २५ ॥ . पदार्थ–रुद्रः रुद्र - महेश्वर, पेढालस्य-पेढालनामकद्विजके, सुतः पुत्र हैं। च-तथा, माता-रुद्रकी माता, सत्यकी-सत्यकी नामकी, स्मृता-कही गयी है। च-तथा, जन्मनक्षत्रम् रुद्रके जन्मका नक्षत्र, मूलम् मूलनामका है। तो, एकमूर्ति-एकमूर्ति, कथम् कैसे, भवेत् हो सकती है ? ॥ २५ ॥ __ भावार्थ-रुद्र, जो पुराणों में महेश्वरके अवतार कहे गये हैं, वह पेढाल द्विजके पुत्र है, उनकी माताका नाम सत्यकी है, तथा जन्मनक्षत्र मूल है। ऐसी स्थितिमें एकमूर्ति तीन भाग कैसे हो सकते हैं ? (जो तीन भाग कहे गये हैं, उनके प्रत्येकके माता पिता तथा जन्मनक्षत्र भिन्न भिन्न हैं। किन्तु एकमूर्तिके माता आदि एक ही होते हैं। इसलिये ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर एकमूर्तिके तीन भाग नहीं हैं—यह आशय है) ॥ २५ ॥ रक्तवर्णो भवेद्ब्रह्मा श्वेतवर्णो महेश्वरः । कृष्णवर्णो भवेद्विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २६ ॥ पदार्थ-ब्रह्मा ब्रह्मानामके देव, रक्तवर्णः लाल कान्तिवाले, भवेत् हैं। महेश्वरः महेश्वरनामके देव, श्वेतवर्णः शुक्ल कान्तिवाले हैं। तथा, विष्णुः विष्णुनामके देव, कृष्णवर्णः-कृष्णकान्तिवाले, भवेत् हैं। तो, एकमूर्तिः एकमूर्ति, कथम्=कैसे, भवेत्= हो सकते हैं ॥२६॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महादेवस्तोत्रम् ___ भावार्थ-पुराणोंमें तीनों देवोंकी शरीरकान्ति भिन्न भिन्न वर्णकी कही गयीं हैं। जैसे - ब्रह्मा लाल कान्तिवाले, महेश्वर श्वेत कान्तिवाले तथा विष्णु कृष्ण कान्तिवाले कहे गये हैं । किन्तु एक मूर्तिकी एक प्रकारकी ही कान्ति होती है, अनेक प्रकारकी नहीं। इसलिये भिन्न भिन्न वर्णके होनेके कारण तीनों देव भिन्न ही हैं, एक मूर्तिके तीन भाग नहीं। इसलिये उन तीनों देवोंको एक मूर्ति तीन भाग कहना अयुक्त है - ऐसा अभिप्राय है ॥ २६ ॥ अक्षसूत्री भवेद्ब्रह्मा द्वितीयः शूलधारकः । तृतीयः शङ्खचक्राङ्क एकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २७ ॥ पदार्थ --ब्रह्मा=ब्रह्मा नामके देव, अक्षसूत्री = अक्षसूत्रके लांछनवाले, भवेत् हैं, द्वितीयः दूसरे, अर्थात् महेश्वर नामके देव, शुलधारकः शूल - त्रिशूलके धारक-धारण करनेवाले, अर्थात् त्रिशूललान्छनवाले, तथा, तृतीयः तीसरे विष्णुनामके देव, शङ्ख. चक्राङ्क:-शंख तथा चक्रके अङ्क-लाञ्छनवाले कहे गये हैं। तो, एकमूर्तिः एकमूर्ति, कथम् कैसे, भवेत् ? = हो सकते हैं ? भावार्थ-पुराणों में प्रत्येक देवके लांछन भिन्न-भिन्न प्रकारके कहे गये हैं। जैसे - ब्रह्माका लांछन अक्षसूत्र , महेश्वरका लांछन त्रिशूल, तथा विष्णुका लांछन शंखचक्र कहे गये हैं। यहाँ यह ध्यानमें रखना चाहिये कि एक देवके अनेक अवतार होने परभी लांछन दूसरा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् . २७. नहीं होता। इसलिये लांछन भिन्न होनेसे उक्त तीनों देव एकमूर्ति नहीं हो सकते, किन्तु भिन्न मूर्ति ही हैं। ऐसी स्थितिमें एक मूर्ति तीन भाग कहना अत्यन्त अयुक्त है ॥ २७ ॥ चतुर्मुखो भवेद्ब्रह्मा त्रिनेत्रोऽथ महेश्वरः।। चतुर्भुजो भवेद्विष्णु रेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २८ ॥ __पदार्थ-ब्रह्मा ब्रह्मानाम के देव, चतुर्मुख: चारमुखवाले, भवेत् =हैं, अथ तथा, महेश्वरः महेश्वर नामके देव, त्रिनेत्रः तीन नेत्र वाले हैं, विष्णुः विष्णु नाम के देव, चतुर्भुजः चार भुज-बाहुवाले, भवेत् हैं। तो, एकमूर्तिः एक मूर्ति, कथम् कैसे, भवेत् हो सकते हैं ? ॥ २८ ॥ . भावार्थ-पुराणोंमें ब्रह्मा चतुर्मुख कहे गये हैं, ( किन्तु तीन नेत्रवाले नहीं ।) तथा महेश्वर त्रिनेत्र कहे गये हैं, (किन्तु चतुर्मुख नहीं।) विष्णु चतुर्भुज कहे गये हैं, (किन्तु चतुर्मुख या त्रिनेत्र नहीं ।) तो एक मूर्ति तीन भाग कैसे हो सकते है ? । यदि मूर्ति एक माना जाय तो विष्णुकोभी त्रिनेत्र तथा चतुर्मुख, एवं महेश्वरकोभी चतुर्मुख तथा चतुर्भुज तथा ब्रह्माकोभी त्रिनेत्र तथा चतुर्भुज कहा जाता। किन्तु ऐसा नहीं हैं, चतुर्भुजसे विष्णु तथा त्रिनेत्रसे केवल महेश्वर तथा चतुर्मुखसे केवल ब्रह्मा ही समझे जाते है। इसलिये एक मूर्ति तीन भाग नहीं, किन्तु तीनों पृथक् पृथक् मूर्ति ही हैं ॥ २८ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् मथुरायां जातो ब्रह्मा, राजगृहे महेश्वरः ।। द्वारावत्यामभूद्विष्णु रेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ २९ ॥ पदार्थ-ब्रह्मा = ब्रह्मानामके देव, मथुरायाम् मथुरा नामके नगरमें, जातः उत्पन्न हुए हैं। महेश्वरः महेश्वर नामके देव, राजगृहे राजगृह नामके नगरमें ( उत्पन्न हुए हैं)। विष्णुः= विष्णु नामके देव, द्वारावत्याम् द्वारका नामके नगरमें, अभूत् = रहनेवाले हैं, तो, एकमूर्तिः एकमूर्ति, कथम् कैसे, भवेत ?= हो सकते है ? ॥ २९॥ भावार्थ-पुराणोंमें वर्णन किया गया है कि ब्रह्मा मथुरा नगरमें तथा महेश्वर राजगृह नगरमें अवतार लिये थे। एवं विष्णु द्वारका नगरीमें रहते थे। तो एक मूर्ति तीन भाग कैसे होंगे ? । ( भिन्न भिन्न स्थानोंमें जन्मलेने वालेकी मूर्ति भिन्न हीं हो सकती है, क्योंकि एक मूर्तिका अनेक स्थानोंमें जन्म नहीं होता। इसलिये एक मूर्ति तीन भाग-ऐसा कथन अत्यन्त अयुक्त है ) ॥ २९ ।। हंसयानो भवेद्ब्रह्मा वृषयानो महेश्वरः ।। ताय॑यानो भवेद्विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् १ ॥ ३० ॥ पदार्थ-ब्रह्मा ब्रह्मानामके देव. हंसयानः-हंसके यानवाहनवाले, तथा, महेश्वरः महेश्वरनामके देव, वृषयानः वृषबलदके यान-वाहनवाले, भवेत् हैं। विष्णुः विष्णुनामके देव, तार्श्वयानःताय - गरुड़के यान - वाहनवाले, हैं, तो, एकमूर्तिः =एक मूर्ति, कथम् केसे, भवेत् ? = हो सकते हैं ? ॥ ३० ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् २९. भावार्थ-पुराणों में ब्रह्माका वाहन हंस, महेश्वरका वाहन बलद तथा विष्णुका वाहन गरुड़ कहा गया है । (चूंकि एक देवके. अनेक वाहनोंका वर्णन नहीं है, किन्तु एक वाहनका ही वर्णन है।) तो एक मूर्ति तीन भाग कैसे हो सकते है ?। (अन्यथा प्रत्येक देवके पृथक् पृथक् वाहनोंका वर्णन ही असंगत हो जायगा । इसलिये तीनोंकी मूर्ति पृथक् ही है- ऐसा तात्पर्य है ) ॥ ३० ॥ पग्रहस्तो भवेद्ब्रह्मा शूलपाणि महेश्वरः। चक्रपाणि भवेद्विष्णुरेकमूर्तिः कथं भवेत् ? ॥ ३१ ॥ पदार्थ-ब्रह्मा ब्रह्मा नामके देव, पद्महस्तः पद्म-कमल हस्तहाथमें धारण करनेवाले, महेश्वरः महेश्वर नामके देव, शुलपाणिः =शूल-त्रिशूल पाणि-हाथमें धारण करनेवाले, भवेत् हैं, तथा, विष्णुः =विष्णुनामके देव, चक्रपाणिः चक्र-सुदर्शनचक्र पाणि-हाथमें धारण करनेवाले, भवेत् हैं । तो, एकमूर्तिः एक मूर्ति, कथमकैसे, भवेत् हो सकते है ? ॥ ३१॥ भावार्थ-पुराणों में ब्रह्मा हाथमें सदा कमल धारण करनेवाले महेश्वर हाथमें सदा त्रिशूल धारण करनेवाले, तथा विष्णु हाथमें “सदा सुदर्शन चक्र धारण करनेवाले कहे गये हैं। तो एकमूर्ति कैसे हो सकते है ? (पद्महस्त कहनेसे केवल ब्रह्माका, शूलपाणि कहनेसे केवल महेश्वरका तथा चक्रपाणि शब्दसे केवल विष्णुका ही बोध होता है। यदि एकमूर्ति हो तो ब्रह्माको चक्रपाणि, महेश्वरको पद्महस्त तथा विष्णुको शूलपाणि कहा जासकता है। किन्तु ऐसा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् व्यवहार नहीं है। इसलिये तीनों देव एकमूर्ति तीनभाग नहीं हैंयह भाव है) ॥ ३१॥ कृते जातो भवेद्ब्रह्मा त्रेतायां च महेश्वरः । विष्णुश्च द्वापरे जात एकमूर्तिः कथंभवेत् ? ॥ ३२ ॥ पदार्थ-ब्रह्मा ब्रह्मानामके देव, कृते कृतयुग-सत्ययुगमें, जात: उत्पन्न, भवेत् हुए थे, च-तथा, महेश्वर: महेश्वरनामके देव, त्रेतायाम्=त्रेतायुगमें, (उत्पन्न हुए थे।) च-और, विष्णुः= विष्णुनामके देव, द्वापरे द्वापरनामके युगमें, जातः- उत्पन्न हुए थे। तो, एकमृतिः = एकमूर्ति, कथम् = कैसे, भवेत् ? = हो सकते हैं? ॥ ३२ ॥ . .. .... ... भावार्थ-पुराणोंमें - सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग - ये चारयुग कहे गये हैं। तथा सत्ययुगमें ब्रह्माका, त्रेतायुगमें महेश्वरका, द्वापरयुगमें विष्णुका अवतार वर्णित है। तो एकमूर्ति कैसे हो सकते हैं ? (यदि एकमूर्ति हो तो प्रत्येक देवका पृथक् अवतारका वर्णन अयुक्त हो जायगा। एकमूर्ति मानने पर एक देवका अवतार दूसरे देवकाभी अवतार कहा जायगा। किन्तु ऐसा व्यवहार नहीं है। एक देवका अवतार दूसरे देवका नहीं कहा जाता। इसलिये तीनों देव एकमूर्ति नहीं हैं--ऐसा आशय है). ॥ ३२ ॥ ज्ञानं विष्णुः सदा प्रोक्तं ब्रमा चारित्रमुच्यते । सम्यक्त्वं तु शिवः प्रोक्तमहन्मूर्तिस्त्रयात्मिका ॥ ३३ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् पदार्थ-ज्ञानम्-केवलज्ञान, सदासर्वदा, विष्णुः विष्णु, प्रोक्तम् कहा गया है, चारित्रम्-चारित्र - सर्व सवाद्यविरति - संयम, ब्रह्मा ब्रह्मा, उच्यते-कहा जाता है, तु तथा, सम्यक्त्वम् - सम्यक्त्व - सम्यग्दर्शन - जिनोक्ततत्त्वोंमें श्रद्धा, शिवः शिव - महेश्वर, प्रोक्तम् कहा गया है। इसलिये, अर्हन्मूर्तिः तीर्थङ्करकी मूर्तितीर्थङ्कर, त्रयात्मिका तीनों - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वरस्वरूप हैं ॥ ३३ ॥ ___ भावार्थ -(उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हो चुका है कि परतीथिकों के महादेवके विषयमें 'एकमूर्ति तीन भाग' वाली बात घटित नहीं होती। तथा पूर्वमें यह भी कहा जा चुका है कि अर्हत् ही ज्ञान, चारित्र तथा दर्शनके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर खरूप हैं। उसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि-) केवलज्ञान सदा ही विष्णु कहा गया है। (पुराणों में पालक तथा व्यापक देवको विष्णु कहा गया है। केवलज्ञान कर्मशत्रुका नाशकरके उससे रक्षण करता है, तथा सर्वद्रव्यपर्यायविषयक होनेसे व्यापकभी है, इसलिये पारमार्थिक रूपसे केवलज्ञान ही विष्णु है -- यह भाव है।) चारित्र सदा ब्रह्मा कहा जाता है। (पुराणों में जगत् के सर्जन करनेवालेको ब्रह्मा कहा गया है । चारित्रभी सिद्धिरूपी -सृष्टिका करनेवाला - सिद्धिप्रद है, इसलिये व स्तविक रूपसे चारित्रहीं ब्रह्मा है-यह अभिप्राय है ।) तथा सम्यक्त्त्वको शिव कहा गया है। (पुराणों में जगतके संहार करनेवालेको शिव-महेश्वरः कहा गया है । · सम्यक्त्त्वभी कर्मों के क्षयोपशमका हेतु होनेसे शिव कहा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महादेवस्तोत्रम् जाता है। क्योंकि वस्तुतःकर्म के नाशसे ही जगत्-भवका नाश होता है। इसलिये सम्यक्त्व ही तात्त्विक रूपसे शिव है-यह आशय है ।) इन तीनों गुणोंसे युक्त अर्हत् - तीर्थकर हैं। इसलिये वेही एकमूर्ति तीन - ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वररूप - भाग हैं। अर्थात् तीर्थकर एकमूर्ति हैं, एवं उनके केवल दर्शन, ज्ञान तथा चारित्ररूपी तीन पर्याय ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वररूप भाग हैंऐसा तात्पर्य है ।। ३३ ॥ क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाऽऽकाशसोमसूर्याख्याः । इत्येतेऽष्टौ भगवति गीता वीतरागे सुगुणाः ॥ ३४ ॥ पदार्थ-क्षितिजलपवनहुताशनयजमानाऽऽकाशसोमसूर्याख्याः क्षिति - पृथिवी, जल, पवन, हुताशन-अमि, यजमान - व्रती, आकाश, सोम - चन्द्र तथा सूर्य आख्या - नामवाले, इति एते ये सभी, अष्टौ-आठ, सुगुणाः उत्तमगुण, भगवति भगवान् , वीतरागे वीतरागमें, गीताः वर्णित हैं ॥ ३४ ॥ भावार्थ-(पुराणों में परतीर्थिक महादेवकी पृथिवी आदि आठ मूर्तियां कही गयी हैं। किन्तु एकमूर्ति अष्टमूर्ति नहीं हो सकते - बह बात पूर्वमें एकमूर्तिके तीनमूर्ति नहीं होनेमें कही गयी युक्तियोंसे ही स्पष्ट है। किन्तु) वीतरागके क्षिति, जल, पवन, हुताशन, यजमान, आकाश, सोम तथा सूर्य - ये आठ उत्तमगुण कहे गये हैं। (इसलिये वीतराग ही अष्टगुणमय होने के कारण अष्टमूर्ति हैं - यह भाव है) ।। ३४ ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् क्षितिरित्युच्यते क्षान्तिर्जलं या च प्रसन्नता । निःसङ्गता भवेद्वायु र्हुताशो योग उच्यते ॥ ३५ ॥ प्रसन्नता - निर्मलता है पदार्थ - क्षान्तिः क्षमा, क्षितिः = क्षिति, इति = इस शब्द से, उच्यते = कही जाती है । च= और, या= जो, रूप गुण है, वह, जलम् = जल ( कहा जाता वीतरागपन, वायुः = पवन नामका गुण, भवेत् = है शुक्लध्यान, समाधि, हुताशः = अग्निनामका गुण, जाता है ॥ ३५ ॥ । ३३ ।) निःसङ्गता = तथा, योग: = उच्यते = कहा भावार्थ - ( वीतरागके क्षिति आदि आठ गुणोंका स्वरूप बताते हैं, जैसे -) क्षिति पृथिवी सर्वंसहा कही जाती है। वह शुभ या अशुभ - सब कुछ सहन करती है । इसलिये शक्ति रहने परभी किसी के अपराधका सहनरूप क्षमा हीं क्षितिनामका गुण कहा गया है । जल निर्मल होता है तथा दूसरेको भी निर्मल करता है, इसलिये कर्मके सर्वथा क्षय होजानेसे आत्माकी निर्मलताहीं जलनामका गुण है । किसी भी विषय में रागका नहीं होना - वीतरागता हीं पवन नामका गुण है । क्योंकि पवन मिट्टी या पानीके जैसे किसीभी वस्तु आसक्त नहीं होता । तथा अनि सभी पदार्थों को जला देता है, योगभी सकल कर्मों का नाश करता है । इसलिये योग अग्निनामका गुण कहा गया है ॥ ३५ ॥ यजमानो भवेदात्मा तपोदानदयादिभिः । अलेपकत्वादाकाशसङ्काशः सोऽभिधीयते ॥ ३६ ॥ C - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् पदार्थ - आत्मा = जीव, तीर्थङ्करकी आत्मा, तपोदान दयादिभिः = तप, दान तथा दया आदिगुणों से, यजमानः = यजमान - व्रती भवेत् = होती है । तथा, सः = वह आत्मा, अलेपकत्वात् = कहींभी लिप्त - आसक्त नहीं होनेसे, अथवा कर्ममलसे लिप्त नहीं होने के कारण, आकाशसङ्काशः = आकाशसदृश, अभिधीयते = कही जाती है ॥ ३६ ॥ ३४ - भावार्थ - आत्मा तप, दान, दया आदि गुणों के होनेसे यजमानरूप है । अर्थात् तप, दान, दया आदि हीं यजमान नाम के गुण हैं । तथा उनगुणों के होनेसे आत्मा हीं यजमान है । क्योंकि व्रतोंके पालन करनेवालेको हीं यजमान कहा जाता है । तथा वह आत्मा कर्मसे रहित होनेसे निर्लेप होजाती है । अर्थात् एकवार सकलकर्मों के क्षय होजाने पर पुनः उसमें कर्मलेप नहीं लगता । इसलिये निर्लेप आत्मा आकाशतुल्य कही जाती है । अर्थात् आत्माकी निर्लेपता आकाश नामका गुण है ॥ ३६ ॥ सौम्य मूर्तिरुचिश्चन्द्रो वीतरागः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन स आदित्योऽभिधीयते ॥ ३७ ॥ पदार्थ —— वीतरागः = वीतराग श्रीजिनेश्वर, सौम्यमूर्तिरुचि : = सौम्य - मधुर, मूर्त्ति शरीर, रुचि - कान्ति, मधुर - शरीरकान्तिवाले हैं, इसलिये, चन्द्रः = चन्द्रमा के जैसे, समीक्ष्यते = दीखते हैं । तथा, सः = वह वीतराग जिनेश्वर, ज्ञानप्रकाशकत्वेन ज्ञानज्ञानके द्वारा प्रकाशकत्व - प्रकाशकपन - प्रकाशित करनेका स्वभाववाले - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् होनेके कारण, आदित्यः = सूर्यसमान, अभिधीयते = कहे जाते हैं 1130 11 । भावार्थ — — वीतराग श्रीजिनेश्वरके शरीरकी कान्ति मधुर है, इसलिये वह चन्द्रके जैसे दीखते हैं अर्थात् उनके शरीरकी मधुर आह्लादक कान्ति चन्द्रनामका गुण है । ( क्योंकि चन्द्रभी आह्लादक है ।) तथा वे ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करते हैं । अथात् सभी प्राणिये' को सम्यग्ज्ञानका उपदेश देकर उनके अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करते हैं, तथा मुक्तिमार्गका प्रकाशन करते हैं । अथवा वीतरागका ज्ञान सर्वपदार्थको ग्रहण - प्रकाशित करता है, इसलिये वे ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण जगत् में प्रकाशमान हैं, अतः वे सूर्यसमान कहे जाते हैं । ( क्योंकि सूर्य भी अपने किरणों के द्वारा सम्पूर्ण जगतको प्रकाशित करता है । इसलिये वीतराग जिनेश्वरका ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण जगत्का प्रकाशन सूर्यनामका गुण है यह भाव है। यहाँ इस प्रकार क्षिति आदि आठ गुणों के होनेसे वीतराग जिनेश्वर अष्टमूर्ति हैं । किन्तु परतीर्थिकों के अनुसार एकमूर्तिका अष्टमूर्ति होना असम्भवित है । इसलिये परतीर्थिकों के इष्ट महादेव अष्टमूर्ति नहीं हैं । तथा उनमें रागद्वेष आदि होनेसे क्षमा आदि उक्तप्रकारके आठ गुणभी नहीं हैं । अतः इस प्रकार से भी वे अष्टमूर्ति नहीं होसकते । किन्तु शब्दमात्रसे हीं अष्टमूर्ति हैं - यह निष्कर्ष है ) ॥ ३७ ॥ पुण्यपापविनिर्मुक्तो रागद्वेषविवर्जितः । अर्हस्तस्य नमस्कारः कर्त्तव्यः शिवमिच्छता ॥ ३८ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् पदार्थ—अर्हन् = श्रीवीतराग अरिहन्त - तीर्थङ्कर, रागद्वे विवर्जितः राग-विषयासक्ति, द्वेष-अनिष्ट विषयोमें अप्रीति, विवर्जितरहित, रागद्वेषसे रहित हैं-वीतराग हैं । इसलिये, पुण्यपापविनिर्मुक्तः -पुण्य-शुभकर्म, पाप-अशुभकर्म, विनिर्मुक्त - रहित, पुण्य तथा पापसे रहित - मुक्त हैं। अतः, शिवम् = कल्याणकी, इच्छता = इच्छा करनेवालेको कल्याण चाहनेवालेको, तस्य-उस वीतराग अरिहन्तका ही, नमस्कार: नमस्कार • प्रणाम-वन्दन-भक्ति, कर्त्तव्यः= करना चाहिये । कल्याण चाहनेवाले वीतरागकी ही भक्ति करें ॥३८॥ भावार्थ - तीर्थंकर रागद्वेषसे रहित - वीतराग हैं तथा सम्यग् ज्ञान एवं चारित्रके पालनसे उनके सभी कर्मोंका क्षय हो गया है । अतः वे मुक्त हैं। क्योंकि रागद्वेषसे तथा पुण्य पापसे मुक्त हीं मुक्त कहे जाते हैं । इसलिये कल्याण चाहने वालेको उनकी ही भक्ति करनी चाहिये। (जो देव रागद्वेष आदिसे युक्त हैं, वे मुक्त नहीं हैं। अतः उनकी भक्तिसे रागद्वेषका ही लाभ हो सकता हैः कल्याण. मुक्तिका नहीं। अतः अन्य देवोंकी भक्ति त्याज्य है-यह भाव है) ॥ ३८ ॥ अकारेण भवेद्विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तस्याऽन्ते परमं पदम् ॥ ३९ ॥ पदार्थ- अकारेण='अहँ ' यह मन्त्र अपने आदिमें स्थित अकाररूप वर्णसे, विष्णुः विष्णुस्वरूप, भवेत्-है, तथा, रेफे 'अहं ' इस मन्त्रके रेफरूप वर्णमें, ब्रह्मा = ब्रह्मा नामके देव, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् व्यवस्थितः=रहे हुए हैं। हकारेण= अहँ ' इस मन्त्रके हकाररूप वर्णसे, हरः=महेश्वर, प्रोक्तः कहे गये हैं। तस्य-उस हकाररूप वर्णके, अन्ते अन्त में-ऊपरमें रहा हुआ अर्धचन्द्रबिन्दु, परमम् =सर्वोच्च, पदम्प द - सिद्धशिला है ॥ ३९ ॥ भावार्थ - जिनेश्वर श्री अरिहन्त देवका 'अहँ, यह मन्त्र ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तथा परमपद स्वरूप है । जैसे अकाररूप वर्णअच्युत आदि विष्णुवाचक शब्दोंमें अकार होनेसे - विष्णुका प्रतीक है। तथा रेफरूप वर्ण-ब्रह्माशब्दमें रेफ होनेसे - ब्रह्माका प्रतीक है। एवं हकाररूपवर्ण - हर आदि महेश्वरवाचक शब्दोंमें हकार रहनेसे - महेश्वरका प्रतीक है। तथा अर्धचन्द्रबिन्दु सिद्धाशिलाके आकारका होनेसे - परमपदका प्रतीक है। और 'अहं । इस मन्त्रके देवता तीर्थकर जिनेश्वर हैं। इसलिये जिनेश्वर, शब्दसे ब्रह्मा आदि स्वरूप हैं । गुणसे जिनेश्वरका ब्रह्मा आदि स्वरूप होनेका पूर्वमें प्रतिपादन किया जा चुका है ॥ ३९ ॥ अकार. आदि धर्मस्य मोक्षस्य च प्रदेशकः । स्वरूपं परमज्ञानमकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४० ॥ पदार्थ -- अकार:='अन्' इस पदके आदिका अकाररूप वर्ण, आदिधर्मस्य आदि - मुख्य तथा सर्व प्रथम उपदिष्ट होनेके कारण सभी धर्मोके आदिभूत धर्मका, च-तथा, मोक्षस्य-मोक्षका, आदि मोक्षका, प्रदेशकः प्रतिपादक है । तथा, स्वरूपम्-अरिहन्तके स्वरूपभूत, परमज्ञानम्=परम - सर्वोत्कृष्ट ज्ञान - केवलज्ञान • आदि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महादेवस्तोत्रम् ज्ञान है, तेन इसलिये, अकारः अर्हन् पदका आदिभूत अकार, प्रोच्यते-कहा जाता है ॥ ४० ॥ . भावार्थ - अकाररूप वर्ण मातृकापाठमें प्रथम अक्षर है, तथा अन् पदकेभी आदिमें है। इसलिये वह, तीर्थकरने मुख्य तथा सर्वप्रथम युगादिमें धर्मका उपदेश किया था, तथा वे ही सर्वप्रथम चारित्रका पालन कर मुक्त हुए थे, एवं वे परमज्ञान - केवलज्ञान स्वरूप थे - इन सभी भावोंका द्योतक है। इसलिये अर्हन् पदके आदिमें अकार कहा गया है। अर्थात् अर्हन् पदका प्रथम अक्षर अकार, तीर्थकरसे उपदिष्ट धर्म ही आदि धर्म है, तथा वे ही आदि मुक्त एवं आदि केवलज्ञानी हैं-ऐसा सूचित करता है। इन सभी अर्थोंकी सूचना केलिये ही अर्हन् पदमें सर्वप्रथम अकाररूप अक्षर कहा जाता है-यह आशय है ॥ ४० ॥ १. रूपिद्रव्यस्वरूपं वा दृष्ट्रा ज्ञानेन चक्षुषा । दृष्टं लोकमलोकं वा रकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४१ ॥ पदार्थ-ज्ञानेन=ज्ञानरूप, चक्षुषा नेत्रसे, रूपिद्रव्यस्वरूपम् =रूपि - मूर्त, द्रव्य - पुद्गल, स्वरूप - तत्त्व, पुद्गलों के अनेकान्तरूप यथार्थतत्त्वको, दृष्ट्रा-जानकर, वा-पुनः, लोकम्-चौदह रज्जुप्रमाण लोकाकाशमें अवस्थित सभी द्रव्यों तथा उनके पर्यायोंको, वा तथा, अलोकम् लोकसे अतिरिक्त अलोकाकाशको, दृष्टम् =(केवलज्ञानरूपी नेत्रसे) जाने थे, तेन-इसलिये, रकारः अर्हन् - पदमें रेफ, प्रोच्यते कहा जाता है ॥ ४१ ।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् भावार्थ - तीर्थंकरने संसारी अवस्थामें मति, श्रुत तथा अवधि-ज्ञान से युक्त होने के कारण सभी पुद्गलोके यथार्थ तत्त्वको ज्ञानरूपी नेत्रसे जानकर, ( दीक्षा ग्रहण के बाद घातिकर्मों के क्षयसे केवलज्ञान होनेपर उस केवलज्ञानरूपी नेत्रसे) लोक तथा अलोकको देखे जाने थे । इसलिये अर्हत् पदमें प्रथम रूपी द्रव्यों के पश्चात् सभी पदार्थों के क्रमशः ज्ञानका सूचक रेफ कहा जाता है । ( क्योंकि रूपिशब्दमें भी रेफ वर्ण है, तथा अर्हन् तीर्थंकर केवलज्ञानी हैं। इसलिये दोनोंके क्रमका सूचन रेफके द्वारा किया जाता है ) ॥ ४१ ॥ - हता रागाश्च द्वेषाश्च हता मोहपरीषहाः । हतानि येन कर्माणि हकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४२ ॥ ३९ पदार्थ - येन = चूंकि, रागाः = विषयासक्तियोंका, च = और, द्वेषाः = अनिष्ट विषयमें अप्रीतियोंका, हताः -नाश - त्याग किये, च = पुनः, मोहपरीपहा : = मोह - ममता, परीषह-भूख, प्यास, ठंढी, गरमी आदि बाईस परीषह - इन सभीका, हताः - नाश - त्याग तथा सहन किये हैं । तथा, कर्माणि शुभ तथा अशुभ कर्मोंका, हतानि क्षय किया है, तेन = इसलिये राग, द्वेष, मोह, परीषह तथा कर्मोंका नाश करने के कारण, हकारः = अर्हन् पदमें हकाररूप अक्षरं, प्रोच्यते = कहा जाता है ॥ ४२ ॥ भावार्थ - चूंकि तीर्थंकरदेवने सभीप्रकारके राग, द्वेष, मोह, परीषह तथा कर्मों का ( अपने असाधारण एवं अलोकिक ज्ञान तथा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महादेवस्तोत्रम् चारित्रके बलसे) नाश किया है। इसलिये राग आदिके हननका सूचक हकाररूप अक्षर अर्हन् पदमें कहा जाता है ॥ ४२ ॥ सन्तोषेणाऽभिसम्पूर्णः प्रातिहार्याऽष्टकेन च । ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च नकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४३ ॥ पदार्थ - पुण्यम्-शुभकर्म, च-और, पापम् अशुभकर्मको, च-भी, ज्ञात्वा जानकर, सन्तोषेण सन्तोष - आत्मतृप्तिसे, अभि सम्पूर्णः सभी प्रकारसे भरे हुए-आत्मसुखमम, च-तथा, प्रातिहार्याऽष्टकेन-चैत्यवृक्ष, छत्र, दुन्दुभि आदि आठ प्रातिहार्योंसे ( अभिसम्पूर्णः विराजित ) हैं । तेन-इसलिये, नकारः अहंन् पदमें नकाररूप अक्षर, प्रोच्यते कहा जाता है ।। ४३ ॥ भावार्थ - अरिहन्त श्रीतीर्थकर देवने पुण्य तथा पाप ( एव उनके हेतुओं )को जानकर (तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेसे आस्रवोंका त्याग करके ) सन्तोष-उपशमसे युक्त हुए तथा अतिशयके प्रभावसे समवसरणमें चेत्यवृक्ष, छत्र, दुन्दुभि आदि प्रातिहार्यों से विराजित हुए । इसलिये अर्हन् पदमें नकार कहा जाता है। अर्थात् अर्हन् पदमें रहा हुआ नकार तीर्थंकरके पुण्य पापके तत्त्वज्ञान, उपशम तथा प्रातिहार्याऽष्टकका सूचक है ।। ४३ ॥ भववीजाऽङ्कुरजनना रागादयः क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ४४ ॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं श्रीमहादेवस्तोत्रं समाप्तम् ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिकला हिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् पदार्थ — यस्य = जिसदेवके, भवबीजाऽङ्कुरजननाः भव - संसार, बीजाऽङ्कर - मूलभूतकारण, जनन उत्पन्न करनेवाले - साधन - संसारके मूलभूतकारणरूप. कर्म तथा जन्म आदिके हेतुभूत, रागादय: = रागद्वेष आदि, क्षयम् = नाशको, उपगता: - प्राप्त होगये हैंनष्ट होगये हैं । वह, ब्रह्मा = ब्रह्मानामके देव हों, वा = अथवा, विष्णुः = विष्णुनामके देव हों, वा = अथवा, हरः = महेश्वरनाम के देव हों, वा = अथवा, जिनः = जिनेश्वर तीर्थंकर हों, तस्मै उन वीतराग-देवको, नमः = मेरा नमस्कार है ॥ ४४ ॥ - भावार्थ —भव के आदि तथा मुख्यकारणरूप रागद्वेष आदि जिन देव नष्ट होगये हैं, अर्थात् जो देव वीतराग हैं । वे नामसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर या जिनेश्वर - कोई भी हों, उनको मेरा प्रणाम है । (क्योंकि गुणसे हीं किसीकी पूजा होती है, केवल व्यक्तिकी नहीं | ऊपरके विवेचनोंसे - जिनेश्वर हीं वीतराग हैं, ब्रह्मा आदि देव नहीं - यह स्पष्ट हो चुका है । फिरभी अपनी तटस्थता सूचित की गयी है । व्यक्ति कोईभी हों, गुणग्राहीको व्यक्तिके विषयमें पक्षपात नहीं होता है, किन्तु गुणके विषयमें हीं पक्षपात होता है - यह ध्यान देने योग्य है ॥ ४४ ॥ - -४१ इति श्रीमहादेवस्तोत्रे तपोगच्छाधिपतिशासनसम्राट्कदम्बगिरिप्रभृत्यनेकतीर्थोद्धारकबालब्रह्मचार्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयने मिसूरीश्वर-पट्टालकार समयज्ञ - शान्त मूर्त्याचार्यवर्यश्रीविजय बिज्ञानसूरीश्वर पट्टधर - cl - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महादेवस्तोत्रम् सिद्धान्तमहोदधि-प्राकृतविद्विशारदाचार्यवर्यश्रीविजयकस्तूरसूरीश्वरशिष्यपन्यासश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचितः कीर्तिकलाख्यो हिन्दीभाषानुवादः समाप्तः ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 sit: 11 पन्यास श्री कीर्तिचन्द्र विजयगणिविरचित कीर्तिकला व्याख्या सहितानि पुस्तकानि - द्वात्रिंशिकाद्वयी (क. स. हेम, विरचिता- अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका) कीर्तिकला संस्कृतव्याख्या सहिता । द्वात्रिंशिकाद्वयी कीर्तिकला हिन्दी भाषानुवादसहिता । श्रीवीतरागस्तवः ( क. स. हेम. विरचितः) कीर्तिकला संस्कृत व्याख्यासहितः । श्रीवीतरागस्तवः कीर्तिकला हिन्दीभाषानुवादसहितः । स्तोत्रयी (क. स. म. विरचितानि सकलाई त्स्त्रोत्रवीर जिनस्तोत्रमहादेवस्तोत्राणि) कीर्तिकलाख्य संस्कृत हिन्दीव्याख्यासहिता । स्तोत्रत्रयी कीर्तिकला हिन्दीभाषानुवादसहिता । प्राप्तिस्थानम् — श्री जनकलाल कान्तिलाल लिम्बडी शेरी, पेटलाद वाया - आणन्द (गुजरात) Page #97 --------------------------------------------------------------------------  Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: पन्यासश्रीकीर्तिचन्द्रविजयगणिविरचित कीर्तिकलाव्याख्यासहितानिपुस्तकानि : 1. द्वात्रिंशिकाद्वयी-(अयोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाऽन्ययोगवच्छेद द्वात्रिंशिका च) कीर्तिकलाव्याख्यासहिता / 2. द्वात्रिंशिकाद्वयी-कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुवादसहितः / 3. वीतरागस्तवः—कीर्तिकलाव्याख्याविभूषितः / वीतरागस्तव:-कीर्तिकलाहिन्दीभाषानुवादसहित / 5. स्तोत्रत्रयी-(सकलाई स्तोत्र - वीरजिनस्तोत्र - महादेव स्तोत्राणि ) कीर्तिकलाव्याख्यासहिता / 6. स्तोत्रत्रयी-कीर्तिकलाहिन्दी भाषाऽनुवादसहित / 7. अध्यात्मसार:-कीर्तिकलाव्याख्यासहितः (यन्त्रस्थः) (सम्प भागोंमे) प्राप्तिस्थान : शा. जनकलाल कान्तिल लिम्बडी शेरी, पेटलाद, वाया - आणन्द (गुजरात) / /