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सकलाऽर्हत्स्तोत्रम्
चार पुरुषार्थों में) चौथे मोक्षरूपी पुरुषार्थकी ज्ञानचारित्र आदि साधनसम्पदा बढ़ायें। (यहां - उत्तमोत्तम व्यक्ति ही उत्तमोत्तम अभिलषित देसकता है - यह तात्पर्य है ) ॥ २० ॥
सुरासुरनराधीशमयुरनववारिदम् । कर्मद्रन्मूलने हस्तिमल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥ २१ ॥
पदार्थ—सुरासुरनराऽधीशमयूरनववारिदम् = सुर, असुर, नर, अधीश - इन्द्र, मयूर , नव - नवीन - प्रथम, जलसे भरा हुआ अषाढ महीनेका, वारिद - वादल, देवेन्द्र, असुरेन्द, नरेन्द्र आदि सभी प्राणीरूपी मयूरकेलिये हर्षदेनेवाले नवीन वादल रूपी, तथा, कर्मद्रुन्मूलने-फर्म - शुभ, अशुभ - पुण्य, पाप, द्रु - वृक्ष, उन्मूलन-उखाड़ना, नाशकरना, दूरकरना, कर्मरूपी वृक्षके उखाड़ने में, हस्तिमल्लम् =ऐरावत. हाथी समान, मल्लिम्-जिनेश्वर श्रीमलिनाथकी, अभिष्टुमः =हम स्तुति करते हैं ॥ २१ ॥
भावार्थ - (नवीन काले वादलोंको देखकर मयूर हर्षसे नांच उठता है, देवेन्द्र आदिभी अतिशय भक्ति होनेके कारण जिनेश्वरको देखते ही अत्यन्त हर्षित हो जाते हैं, क्योंकि जैसे ऐरावत हाथी वृक्षोंको उखाड़ फेंकता है, वैसे ही जिनेश्वरनेभी कर्मरूपी वृक्षको जड़ मूलसे नष्ट कर दिया है तथा उपदेशके द्वारा दूसरों के कर्मकाभी नाशकरते हैं। इसलिये-)देवेन्द्र आदिरूपी मयूरों केलिये नवीन वादलरूपी तथा कर्मरूपी वृक्षको उखाड़ फेंकनेवाले ऐरावतरूपी जिनेश्वर श्रीमलिनाथकी मैं स्तुति करता हूँ। (यहां - जो सभीका