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कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम्
भावार्थ—सहज, कर्मक्षयजन्य, देवकृत तथा प्रातिहार्य - इन प्रसिद्ध तथा प्रचुर अतिशयोंसे विराजित, देव, असुर, मनुष्य तथा देवेन्द्र आदिकेभी एकमात्र स्वामी ( देवाधिदेव ) भगवान् जिनेश्वर श्रीकुन्थुनाथ आप भव्योंकी सुखसम्पदा बढ़ायें। (यहां - जो ऐश्वर्यशाली है, वही सभीका स्वामी होता है, तथा किसीको ऐश्वर्य देता है-यह भाव है ) ॥ १९ ॥
अरनाथः स भगवांश्चतुर्थाऽरनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलासं वितनोतु वः ॥ २० ॥
पदार्थ-चतुर्थारनभोरविः चतुर्थ - चौथा, अर - द्वादशारकालचक्रका दुःषमसुषमानामकाभाग, नभ-आकाशमंडल, रवि-सूर्य, चोथा अर रूपी गगनमंडलके सूर्य, भगवान् प्रचुर तथा प्रशंसनीय ऐश्वर्य, ज्ञान आदिसे युक्त, सः प्रसिद्ध, अरनाथः जिनेश्वर श्रीअरनाथ, व आप भाव्योंका, चतुर्थपुरुषार्थश्रीविलासम् चतुर्थ, पुरुषार्थमोक्ष, श्री-साधनसम्पदा, विलास - शोभा, चौथे पुरुषार्थ-मोक्षके (ज्ञान, चारित्र आदि) साधनोंकी शोभा, वितनोतु करें - बढ़ायें ॥ २० ॥
___ भावार्थ--(जैसे सूर्य गगनमंडलमें सब ग्रहों नक्षत्रोंसे अधिक प्रकाशवान - ऐश्वर्यशाली है, · तथा अपनी किरणोंसे सभी पदार्थोंकी श्रीवृद्धि करता है। उस प्रकार ही चौथे दुःषमसुषमा अरमें जिनेश्वर तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ तथा मोक्षमार्गके प्रदर्शक होनेसे उसकी श्रीवृद्धि करते हैं । इसलिये --) चौथे अर रूपी गगनमंडल के सूर्यरूपीभगवान् श्रीअरनाथ आप भव्योंकी (धर्म - अर्थ-काम-मोक्ष - इन