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________________ सकलाऽर्हृत्स्तोत्रम् शान्ति = नाश, अज्ञानरूपी अन्धकारके नाशके लिये, अस्तु = हों • • ॥ १८ ॥ १८ भावार्थ - (जैसे मृगलांछन वाले 'चन्द्र अपनी अमृततुल्य किरणों से दिगन्त पर्यन्त प्रकाश फैलाकर अन्धकारका नाशकर देता है, वैसे मृगलांछन वाले जिनेश्वर श्रीशान्तिनाथ अपनी अमृततुल्य वाणी से सभी प्राणियों के हृदयको पवित्रकर अज्ञानका नाशकर देते हैं। इसलिये ) अमृततुल्य वाणीरूपी किरणोंसे दिगन्त के प्रकाशित करनेवाले तथा मृगलांछनवाले जिनेश्वर श्रीशान्तिनाथ आप भव्यों के अज्ञान - रूपी अन्धकारका नाशकरें । (यहां जिनेश्वरकी वाणी अज्ञाननाशक है - यह ध्वनि है ) ॥ १८ ॥ श्री कुन्थुनाथ भगवान् सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुरनुनाथानामेकनाथोऽस्तु वः श्रिये ॥ १९ ॥ पदार्थ - अतिशयर्द्धिभिः = अतिशय प्रसिद्ध अतिशय, सहज - कर्मक्षयज - देवकृत - प्रातिहार्य ) ऋद्धि - समृद्धि - प्रचुरता - अधिकता, सहज आदि अतिशयोंकी समृद्धिसे, सनाथः = युक्त - विराजित, इसलिये, सुरासुरनुनाथानाम् = सुर, असुर, नृ - मनुष्य तथा उनके नाथ स्वामी - इद्रों के, एकनाथः = एक एकमात्र, नाथ - स्वामी, सर्वश्रेष्ठस्वामी, भगवान् = प्रशंसनीय तथा प्रचुर धर्म, ज्ञान आदिसे युक्त, श्री कुन्थुनाथः = जिनेश्वर श्रीकुन्थुनाथ वः - आप भव्योंकी, श्रिये सुखसम्पदा के लिये, अस्तु = हों । सुखसम्पदा देवें ॥ १९ ॥ -
SR No.002450
Book TitleStotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorKirtichandravijay, Prabodhchandravijay
PublisherBhailalbhai Ambalal Petladwala
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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