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________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् १७ तथैव-उसी प्रकार, अनाकार:=(सिद्ध अवस्थामें) आकार - शरीर रहित हैं, इसलिये, अमूर्त रूप स्पर्श आदि गुणरहित - अव्यक्त हैं । च-पुनः, तथैव-उस प्रकार ही, परमात्मा सिद्धस्वरूप, च-तथा, बाद्यात्मा औदारिकादि शरीररहित तथा सिद्धि रहित केवल कर्म शरीरसे युक्त, तथा, अन्तरात्मा देही हैं ॥ १६ ॥ . ___ भावार्थ-श्रीजिनेश्वर देव सिद्धिलाभसे पूर्व शरीरी होनेके कारण आत्माके स्वभावतः अमूर्त होने परभी उसके प्रदेशों के कर्मयुक्त होनेसे कथंचित् मूर्त - व्यक्त हैं । तथा सिद्ध अवस्थामें शरीररहित होनेसे अमूर्त - पौद्गलिक उपाधिरूप गुणसे रहित-अव्यक्त हैं। तथा तीर्थकर एवं सिद्ध अवस्थामें परमात्मा, विग्रहगति कालमें बाह्यात्मा एवं देही अवस्थामें. अन्तरात्मा भी हैं । (इसलिये अन्यतीर्थिक देवके वर्णित सगुण आदि रूप परमार्थसे जिनेश्वरमें ही घटित होते हैं। अन्य देवके विषयमें तो शब्दमात्र ही हैं - यह भाव है) दर्शनज्ञानयोगेन परमात्माऽयमव्ययः । परा क्षान्तिरहिंसा च परमात्मा स उच्यते ॥ १७ ॥ पदार्थ-अयम्=यह जिनेश्वर देव, अव्ययः अविनाशीमुक्त होनेके कारण जन्म मरणादिरूप अपाय रहित, तथा, दर्शनज्ञानयोगेन-दर्शन - सम्यग्दर्शन तथा केवलदर्शन एवं ज्ञान - सम्यग्ज्ञान तथा केवलज्ञानके योग - सम्बन्धसे, परमात्मा परम - सर्वोत्कृष्ट आत्मा हैं । तथा सांसारिक अवस्खामें भी, थान्तिः क्षमा,
SR No.002450
Book TitleStotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorKirtichandravijay, Prabodhchandravijay
PublisherBhailalbhai Ambalal Petladwala
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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