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________________ महादेवस्तोत्रम् तथा, शङ्करः=शङ्कर, प्रकीर्तितः = कहे गये हैं -- शिव तथा शङ्कर शब्दों से उनका वर्णन किया जाता है ॥ १५ ॥ १६ भावार्थ — चूंकि जिनेश्वर ऋषभनाथ आदि तीर्थकर हीं किसी भी जीवकी विराधना नहीं हो - ऐसे कार्योत्सर्गमुद्रा धारण करने वाले एवं निर्विकल्प, निष्प्रकम्प तथा निरुपाधिक समाधिकेलिये पर्यङ्कासन से रहनेवाले तथा स्त्री शस्त्र आदि परिग्रह से रहित हैं । अर्थात् चारित्रका यथावत् पालन हो इसलिये जिन्होंने उचित मुद्रा एवं आसनका स्वीकार किया है तथा स्त्री शस्त्र आदि सभी परिग्रहोंका त्याग कर दिया है । इसलिये वे जिनेश्वरदेव हीं शिव - कल्याणमय एवं कल्याणप्रद होने के कारण - शिव तथा शङ्कर शब्दोंसे - कहे गये हैं - वर्णित हैं । ( दूसरे देव तो स्त्री शस्त्र आदि परिग्रह होनेसे असमाहित चित्तवाले एवं जीव विराधनाके विवेकके विना हीं यथेच्छ, निन्दनीय मुद्रा एवं आसनके धारण करनेवाले, अथवा आसन एवं मुद्रासे रहित होने के कारण शिवस्वरूप एवं कल्याणकारक नहीं हैं, किन्तु शस्त्रादि धारण करनेसे भयङ्कर एवं अनिष्ट करनेवाले हीं हैं । इसलिये वह नाममात्रसे हीं शिव तथा शङ्कर हैं, गुण तथा अर्थसे नहीं - यह अभिप्राय है ) ॥ १५ ॥ साकारोऽपि नाकारो मृर्त्तोऽमूर्त्तस्तथैव च । परमात्मा च बाह्यात्मा सोऽन्तरात्मा तथैव च ॥ १६ ॥ पदार्थ - हि = चूंकि, सः = जिनेश्वरदेव, साकार : शरीरी हैं, इसलिये, मूर्त्तः = रूप, स्पर्श आदि गुणवाले सगुण हैं । च = और, -
SR No.002450
Book TitleStotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorKirtichandravijay, Prabodhchandravijay
PublisherBhailalbhai Ambalal Petladwala
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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