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महादेवस्तोत्रम्
पदार्थ - आत्मा = जीव, तीर्थङ्करकी आत्मा, तपोदान
दयादिभिः = तप, दान तथा दया आदिगुणों से, यजमानः = यजमान - व्रती भवेत् = होती है । तथा, सः = वह आत्मा, अलेपकत्वात् = कहींभी लिप्त - आसक्त नहीं होनेसे, अथवा कर्ममलसे लिप्त नहीं होने के कारण, आकाशसङ्काशः = आकाशसदृश, अभिधीयते = कही जाती है ॥ ३६ ॥
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भावार्थ - आत्मा तप, दान, दया आदि गुणों के होनेसे यजमानरूप है । अर्थात् तप, दान, दया आदि हीं यजमान नाम के गुण हैं । तथा उनगुणों के होनेसे आत्मा हीं यजमान है । क्योंकि व्रतोंके पालन करनेवालेको हीं यजमान कहा जाता है । तथा वह आत्मा कर्मसे रहित होनेसे निर्लेप होजाती है । अर्थात् एकवार सकलकर्मों के क्षय होजाने पर पुनः उसमें कर्मलेप नहीं लगता । इसलिये निर्लेप आत्मा आकाशतुल्य कही जाती है । अर्थात् आत्माकी निर्लेपता आकाश नामका गुण है ॥ ३६ ॥
सौम्य मूर्तिरुचिश्चन्द्रो वीतरागः समीक्ष्यते । ज्ञानप्रकाशकत्वेन स आदित्योऽभिधीयते ॥ ३७ ॥ पदार्थ —— वीतरागः = वीतराग श्रीजिनेश्वर, सौम्यमूर्तिरुचि : = सौम्य - मधुर, मूर्त्ति शरीर, रुचि - कान्ति, मधुर - शरीरकान्तिवाले हैं, इसलिये, चन्द्रः = चन्द्रमा के जैसे, समीक्ष्यते = दीखते हैं । तथा, सः = वह वीतराग जिनेश्वर, ज्ञानप्रकाशकत्वेन ज्ञानज्ञानके द्वारा प्रकाशकत्व - प्रकाशकपन - प्रकाशित करनेका स्वभाववाले
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