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________________ कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् क्षितिरित्युच्यते क्षान्तिर्जलं या च प्रसन्नता । निःसङ्गता भवेद्वायु र्हुताशो योग उच्यते ॥ ३५ ॥ प्रसन्नता - निर्मलता है पदार्थ - क्षान्तिः क्षमा, क्षितिः = क्षिति, इति = इस शब्द से, उच्यते = कही जाती है । च= और, या= जो, रूप गुण है, वह, जलम् = जल ( कहा जाता वीतरागपन, वायुः = पवन नामका गुण, भवेत् = है शुक्लध्यान, समाधि, हुताशः = अग्निनामका गुण, जाता है ॥ ३५ ॥ । ३३ ।) निःसङ्गता = तथा, योग: = उच्यते = कहा भावार्थ - ( वीतरागके क्षिति आदि आठ गुणोंका स्वरूप बताते हैं, जैसे -) क्षिति पृथिवी सर्वंसहा कही जाती है। वह शुभ या अशुभ - सब कुछ सहन करती है । इसलिये शक्ति रहने परभी किसी के अपराधका सहनरूप क्षमा हीं क्षितिनामका गुण कहा गया है । जल निर्मल होता है तथा दूसरेको भी निर्मल करता है, इसलिये कर्मके सर्वथा क्षय होजानेसे आत्माकी निर्मलताहीं जलनामका गुण है । किसी भी विषय में रागका नहीं होना - वीतरागता हीं पवन नामका गुण है । क्योंकि पवन मिट्टी या पानीके जैसे किसीभी वस्तु आसक्त नहीं होता । तथा अनि सभी पदार्थों को जला देता है, योगभी सकल कर्मों का नाश करता है । इसलिये योग अग्निनामका गुण कहा गया है ॥ ३५ ॥ यजमानो भवेदात्मा तपोदानदयादिभिः । अलेपकत्वादाकाशसङ्काशः सोऽभिधीयते ॥ ३६ ॥ C -
SR No.002450
Book TitleStotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorKirtichandravijay, Prabodhchandravijay
PublisherBhailalbhai Ambalal Petladwala
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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