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कीर्तिकला हिन्दी भाषाऽनुवादसहितम् होनेके कारण, आदित्यः = सूर्यसमान, अभिधीयते = कहे जाते हैं
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भावार्थ — — वीतराग श्रीजिनेश्वरके शरीरकी कान्ति मधुर है, इसलिये वह चन्द्रके जैसे दीखते हैं अर्थात् उनके शरीरकी मधुर आह्लादक कान्ति चन्द्रनामका गुण है । ( क्योंकि चन्द्रभी आह्लादक है ।) तथा वे ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित करते हैं । अथात् सभी प्राणिये' को सम्यग्ज्ञानका उपदेश देकर उनके अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करते हैं, तथा मुक्तिमार्गका प्रकाशन करते हैं । अथवा वीतरागका ज्ञान सर्वपदार्थको ग्रहण - प्रकाशित करता है, इसलिये वे ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण जगत् में प्रकाशमान हैं, अतः वे सूर्यसमान कहे जाते हैं । ( क्योंकि सूर्य भी अपने किरणों के द्वारा सम्पूर्ण जगतको प्रकाशित करता है । इसलिये वीतराग जिनेश्वरका ज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण जगत्का प्रकाशन सूर्यनामका गुण है यह भाव है। यहाँ इस प्रकार क्षिति आदि आठ गुणों के होनेसे वीतराग जिनेश्वर अष्टमूर्ति हैं । किन्तु परतीर्थिकों के अनुसार एकमूर्तिका अष्टमूर्ति होना असम्भवित है । इसलिये परतीर्थिकों के इष्ट महादेव अष्टमूर्ति नहीं हैं । तथा उनमें रागद्वेष आदि होनेसे क्षमा आदि उक्तप्रकारके आठ गुणभी नहीं हैं । अतः इस प्रकार से भी वे अष्टमूर्ति नहीं होसकते । किन्तु शब्दमात्रसे हीं अष्टमूर्ति हैं - यह निष्कर्ष है ) ॥ ३७ ॥
पुण्यपापविनिर्मुक्तो रागद्वेषविवर्जितः ।
अर्हस्तस्य नमस्कारः कर्त्तव्यः शिवमिच्छता ॥ ३८ ॥