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सकलाऽर्हत्स्तोत्रम्
पानीकी धारा, इव - जैसे, निर्मलीकारकारणम् = निर्मलीकार - शुद्ध करना, कारण-साधन, शुद्धकरनेका साधनरूप - शुद्धकरनेवाले, नमः =जिनेश्वर श्रीनमिनाथकी, पादनखांशवः पाद - पाँव, नख, अंशुकिरण, पाँवके नखोंकी किरणें, पान्तु (आप भव्योंकी) रक्षाकरें ॥ २३ ॥
भावार्थ - (जैसे पानीकी धारा मलको धोकर मांथा आदिअंगोको पवित्र करती है, वैसे ही जिनेश्वरके पाँवोंके नखोंकी किरणें मस्तकपर पड़नेसे प्रणाम करनेवालोंको पवित्र करदेती हैं । इसलिये-) अतिशय भक्तिसे अत्यन्त झुककर प्रणाम करनेवालों के मस्तक पर फैलती हुई, एवं पानीकी धाराके समान पवित्र करनेवाली जिनेश्वर श्रीनमिनाथके पाँवोंके नखोंकी किरणें आप भव्योंकी रक्षा करें । (यहां - जो पवित्र करे, वास्तवमें वही रक्षक है - तथा जिनेश्वर के प्रणामसे लोक पवित्र होते हैं - ऐसा आशय है) ॥ २३॥
यदुवंशसमुद्रेन्दुः कर्मकक्षहुताशनः । अरिष्टनेमिभगवान् भूयाद्वोऽरिष्टनाशनः ॥ २४ ॥
पदार्थ-यदुवंशसमुद्रेन्दुः यदु - यदुनामके राजा, वंशसन्तान, कुल, समुद्र, इन्दु - चन्द्र, यदुकुलरूपी समुद्र केलिये चन्द्ररूपी, कर्मकक्षहुताशनः कर्म - पुण्यपापे, कक्ष - वन, हुताशन -
अमि, कर्मरूपी वनके लिये अमिरूपी, भगवान् ज्ञान आदि गुणोंसे विराजित, अरिष्टनेमिः जिनेश्वर श्रीनेमिनाथ, वा=आप भव्योंके, करिष्टनाशना अरिष्ट - उपसर्ग, उपद्रव, नाशन-नाशकरनेवाले, सभी