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श्रीवीरजिनस्तोत्रम्
करता हूँ। (यहां - ज्ञानकी कामनावालेकेलिये उपयुक्तगुणविशिष्ट तीर्थकर ही ध्येय हैं - यह अभिप्राय है) ॥२॥
कल्याणपादपाऽऽराम श्रुतगङ्गाहिमाचलम् । विश्वाऽम्भोजरविं देवं वन्दे श्रीज्ञातनन्दनम् ॥ ३ ॥
पदार्थ - कल्याणपादपाऽऽरामम् कल्याण शुभ, पादप-वृक्ष, आराम - उपवन, बगीचा, कल्याणरूपी वृक्षके लिये उपवनरूपी, श्रुतगङ्गाहिमाचलम्-श्रुत - आगम, गङ्गा - गंगानदी, हिमाचल-हिमालय पर्वत, आगमरूपी गंगानदीकेलिये हिमालयपर्वतरूपी, विश्वाम्भोजरविम् विश्व - संसार, संसारके सभी प्राणी, अम्भोज-कमल, रवि-सूर्य, संसारी प्राणीरूपी कमलोंकेलिये सूर्यरूपी, देवम् = देवाधिदेव, श्रीज्ञातनन्दनम् श्रीज्ञात - इक्ष्वाकुवंशकी शाखा ज्ञातकुल, नन्दनपुत्र, हर्षवर्धक, (चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामी )की, वन्दे मैं वन्दना करता हूँ ॥३॥
_ भावार्थ- (जैसे उपवनमें अच्छे वृक्षोंका पोषण, संवर्धन एवं रक्षण होता है, उसप्रकार ही जो कल्याणके पोषण, संवर्धन, तथा रक्षण करनेवाले - कल्याणप्रद हैं। तथा, जैसे हिमालय पर्वत गंगा नदीका उद्गमस्थान है, वैसे ही जो आगमों के उद्गमस्थान-प्रवक्ता हैं। तथा सूर्य जैसे कमलोंको प्रबोधित - विकसित करता है, वैसे ही जो संसारी प्राणीको सदुपेदेशों के द्वारा प्रबोधित करते हैं-सम्यग् ज्ञान देते हैं। इसलिये ) कल्याणरूपी वृक्षोंके उपवनरूपी, आगमरूपी गंगानदीके हिमालयपर्वतरूपी तथा भव्यप्राणीरूपी कमलोंके .सूर्यरूपी