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कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम्
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ज्ञातकुलोद्भव चरमतीर्थकर देवाधिदेव श्रीमहावीर स्वामीकी मैं वन्दना करता हूँ। (यहां-शुभकारक, शास्त्रप्रवर्तक, ज्ञानप्रद तथा उच्चकुलोत्पन्न । एवं देवोंकेभी वन्दनीय ही वन्दनीय हो सकते हैं—यह भाव है) ॥३॥
पान्तु वः श्रीमहावीरस्वामिनो देशनागिरः । भव्यानामान्तरमलप्रक्षालनजलोपमाः ॥ ४ ॥
इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं श्रीवीरजिनस्तोत्र समाप्तम् ।।
___ पदार्थ-भव्यानाम् भविष्यमें सिद्धि प्राप्तकरनेवाले - भव्यप्राणियों के, आन्तरमलप्रक्षालनजलोपमा आन्तर - अन्तरंग, मल. दोष - राग, द्वेष, कषाय आदि, प्रक्षालन - धोना, शुद्ध करना, दूर करना, जल, उपमा - समान, अन्तरंग-रागद्वेष कषाय आदि - दोषों के दूरकरने में निर्मलजलसमान, श्रीमहावीरस्वामिनः = चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीकी, देशनागिर: उपदेशवाणी - प्रवचन, व: आपभव्योंकी, पान्तु रक्षाकरें, आत्मशुद्धिके द्वारा कल्याणप्रद हों ॥ ४ ॥
भावार्थ -- (जैसे निर्मल जल - शरीर वस्त्र आदिके मैलको साफ करदेता है, वैसेही तीर्थंकरकी वाणी सम्यग् ज्ञानका प्रतिपादन करनेके कारण आत्माके दोषों-रागद्वेष कषाय आदि-को दूर करनेवाली है। इसलिये ) भव्यप्राणियों के अन्तरंग दोषोंके दूरकरनेमें निर्मलजलसमान, चरमतीर्थकर श्रीमहावीरस्वामीकी देशनावाणी आपकी रक्षाकरें - अन्तरंग दोषोंको दूरकर आत्माकी शुद्धि करें। (यहां