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सकलाऽर्हत्स्तोत्रम्
तथा अलौकिक भाव । अथवा - सकल तीर्थकर प्रतिष्ठान - आश्रय हैंजिसके ऐसा, सकल तीर्थकरोंमें रहनेवाले, तथा, शिवश्रियः शिव - कल्याण - मोक्ष, श्री - लक्ष्मी - समृद्धि, कल्याण या मोक्षसंपदाओंका, अधिष्ठानम्-प्राप्तिका साधनहोनेसे आश्रयभूत, तथा, भूर्भुव:स्वस्त्रयीशानम्-भूर् - नागलोक, भुवर् - मर्त्यलोक, स्वर् - स्वर्गलोक - इनतीनों लोकों के खामीके जैसे सर्वश्रेष्ठ, आर्हन्त्यम्-आर्हन्त्य - तीर्थकरत्व - तीर्थंकरपन - तीर्थंकरोंके असाधारण एवं अलौकिक अतिशय तथा केवलज्ञान आदि गुणरूप भाव का, प्रणिदध्महे प्रणिधान मन, वचन, तथा शरीरसे तादाम्यकी साधना करता हूँ - ध्यान करता हूँ ।। १ ।।
भावार्थ-तीर्थंकरों के सहज आदि अतिशय तथा केवलज्ञान आदि असाधारण एवं अलौकिक गुणरूपी भाव, जो उन तीर्थंकरोंकी लोगोंसे की गयी पूजाके हेतु हैं, तथा शुभसम्पदाओं एवं मुक्तिलक्ष्मीकी प्राप्तिके साधन हैं, तथा स्वर्ग-मर्त्य-पाताललोकोंके खामीके जैसे सर्वोत्कृष्ट हैं, अथवा तीनों लोकोंके खामित्वका साधनरूप हैं, मैं उन गुणों - आर्हन्त्यका ध्यान करता हूँ ॥१॥
नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैः पुनतस्त्रिजगज्जनम् । क्षेत्रे काले च सर्वस्मिनहतः समुपास्महे ॥२॥
पदार्थ—सर्वस्मिन् सभी, क्षेत्रे क्षेत्रों - स्थानोंमें, च-तथा, काले-कालोंमें, तीनों लोकों तथा तीनों कालों में, त्रिजगज्जनम् =