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सकलाईस्तोत्रम् ऐश्वर्यसे युक्त, सुमतिस्वामी = जिनेश्वर श्रीसुमतिस्वामी, वः = आप भव्योंके, अभिमतानि-अभीष्ट, तनोतु= सिद्ध करें - मनोरथ पूर्णकरें ॥ ७॥
भावार्थ-(जैसे सानपर घसाकर शस्त्र आदि तीक्ष्ण होजाते हैं, तथा चमकने लगते हैं, उसीप्रकार सातिशय भक्तिके कारण पाँवोंमें मुकुटका स्पर्शहो • इसप्रकार देवोंसे प्रणाम किये जानेके कारण मुकुटोंसे घसाकर जिनके पाँवोंके नख तीक्ष्ण हो गये हैं तथा अधिक चमकने लगे हैं। इसलिये) देवोंके मुकुटरूपी सानपर घसाकर तीक्ष्ण एवं चमकते नखवाले भगवान् श्रीसुमतिस्वामी आपभव्यों के मनोरथोंको पूर्णकरें। (यहां - जो देवोंसे सेवित होनेके कारण देवाधिदेव हैं, वही मनोरथ पूरा कर सकते हैं - यह ध्वनि है)॥ ७ ॥
पद्मप्रभप्रभो देहभासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । · अन्तरङ्गाऽरिमथने कोपाऽऽटोपादिवाऽरुणाः ॥ ८॥
पदार्थ—पद्मप्रभप्रभोः = जिनेश्वरश्रीपद्मप्रभ प्रभु - स्वामीकी, अन्तरङ्गारिमथने = अन्तरङ्ग - अन्तरात्माके अहितकरनेके कारण अन्तरंग - आत्मसम्बन्धी, अरि - शत्रु - कर्म, कषाय आदिके, मथन - नाशकरनेके समय, कोपाऽऽटोपादिव कोप - क्रोधके आटोप - आवेशसे, इव - जैसे, अरुणा: कमलपत्रके समान लाल, देहभास:= देहकी भास - अतिशयकान्ति, व आप भव्योंकी, श्रियम् =समृद्धिको, पुष्णन्तु-पोषं, वढ़ायें ॥ ८ ॥