________________
सकलाऽईत्स्तोत्रम्
इसलिये इन्द्रभी उनके चरणोंकी पूजा करते हैं। इसलिये) चतुर्विध सङ्घरूपी विस्तृतगगनके सूर्यसमान तथा महेन्द्रों - सुरेन्द्र - असुरेन्द्र तथा नरेन्द्रोंसे पूजित चरणवाले जिनेश्वरश्रीसुपार्श्वप्रभुको मेरा नमस्कार - प्रणाम हो। (जो लोगों केलिये सूर्यसमान तथा विश्ववन्ध हों, उनका प्रणाम करना ही चाहिये - यह भाव है) ॥ ९ ॥
चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला। . मूर्ति मूर्त्तसितध्याननिर्मितेव श्रियेऽस्तु वः ॥१०॥
पदार्थ - चन्द्रप्रभप्रभोः =श्रीचन्द्रप्रभप्रभु - स्वामीकी, मूर्तसितध्याननिर्मिता इव मूर्त-पृथिवी आदिके जैसे रूप, रस आदि गुणोंसे युक्त, सितध्यान - शुक्लध्यान, निर्मित - बनायी गयी, इव - जैसे, जैसे मूर्त ऐसे शुक्लध्यानसे बनायी गयी हो - इस प्रकारकी, तथा, चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला चन्द्र, मरीचि-किरण, निचय राशि, पुन, उज्ज्वल - चन्द्रकी किरणके पुंजोके समान चमकती, मूर्तिः = शरीर, बिम्ब, व आपभव्योंकी, श्रिये-सुखसमृद्धि केलिये, अस्तु हों, सुखसमृद्धि देवें ॥ १० ॥ ____भावार्थ-जैसे मूर्त ऐसे शुक्लध्यानसे बनायी गयी हो इस प्रकारसे सर्वथा निर्दोष एवं पवित्र तथा चन्द्रके किरणपुंजोके समान चमकती जिनेश्वरश्रीचन्द्रप्रभस्वामीकी मूर्ति आप भव्योंकी सुखसम्पदा बढ़ाये। (मनोहर, निदोष तथा पवित्र पदार्थ ही स्वयं श्रीसम्पन्न होनेके कारण दूसरेकी श्रीसम्पदा वढ़ाते हैं - यह तात्पर्य है)॥१०॥