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कलास्तोत्रम्
होड़ करनेवाले करुणारसरूपी जलसे, वः = आप भव्यों को, अनन्ताम् =शाश्वत, अखंड तथा अनन्त, सुखश्रियम् = सुखसम्पदा, प्रयच्छतु =देवें | अथवा - करुणारसवारिणा - करुणारसरूपी जलसे, स्वयम्भूरमणस्पर्धी = स्वयम्भूरमणनामक सागरके साथभी होड़ करनेवाले, अनन्तजित् स्वामी-इसप्रकार से भी पदार्थ सम्भव है । किन्तु इसप्रकार के अर्थके लिये 'स्वयम्भूरमणस्पर्धी ' इसप्रकार दीर्घ इकारान्त पाठ. समझना चाहिये ॥ १६ ॥
भावार्थ — जिनेश्वर श्रीअनन्तजित् नाथ, स्वयम्भूरमणनाम के समुद्र के रस - जलसे भी अधिक करुणारूपी रससे- असीम कृपासे आप भव्योंको अनन्त सुखसम्पदा देवें । (यहां जिनेश्वर असीम कृपासागर हैं, तथा कृपासे अधिक मात्रामें दान दिया जाता है, एवं अनन्तजितके लिये अनन्तसुखश्रीका दान योग्य हीं है - यह भाव है ।) अथवा - अपनी कृपारूपी रसके द्वारा स्वयम्भूरमण समुद्रको भी जीतनेवाले जिनेश्वर श्रीअनन्त जितस्वामी आप भव्योंको अनन्तसुखसम्पदा देवें । यहाँ - असीमदयालु तथा अनन्तजित् के लिये अनन्तसुख सम्पदाका दान हीं योग्य है - यह तथा उपर्युक्त भाव है ) ॥ १६ ॥
कल्पद्रुमसधर्माणमिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुर्धाधर्मदेष्टारं धर्मनाथमुपास्महे ॥ १७ ॥
पदार्थ — शरीरिणाम् = प्राणियोंकी, इष्टप्राप्तौ = अभिलषितकी प्राप्तिमें - मनोरथ पूर्णकरनेमें, कल्पद्रुमसधर्माणम् = कल्पदुम- कल्पवृक्ष, सधर्मा - समान, कल्पवृक्षसमान, तथा, चतुर्धाधर्मदेष्टारम्=