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॥ श्रीवीरजिनस्तोत्रम् ॥ कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यने परिशिष्टपर्वनामके चरित्रप्रबन्ध का प्रारम्भ. करतेहुए मंगलकेलिये श्रीमहावीरस्वामीको प्रणाम करते हैं
श्रीमते वीरनाथाय सनाथायाऽद्भुतश्रिया । . महानन्दसरोराजमरालायाऽर्हते नमः ॥ १ ॥
पदार्थ - अद्भुतश्रिया अद्भुत - आश्चर्यकारक, श्री-अतिशयसम्पदा, आश्चर्यकारक अतिशयसम्पदाओंसे, सनाथाय=युक्त - विराजित, महानन्दसरोराजमरालाय-महानन्द महानन्दरूपी, सरस्. तालाब - सरोवर, राजमराल - मराल -हंसके राजा - राजहंस, महान्
आनन्दरूपी सरोवरके राजहंसस्वरूप, अर्हते-अरिहन्त - तीर्थङ्करजिनेश्वर, श्रीमते श्रीमान् , वीरनाथाय महावीरस्वामीको, नमः मेरा नमस्कार हो ॥ १॥
भावार्थ- (जैसे सरोवरमें राजहंस सर्वाधिक शोभासम्पन्न तथा यथेच्छ विहारकरनेवाला - सरोवरके कमल आदि सम्पदाओंका यथेष्ट उपभोग करनेवाला होता है, वैसेही जिनेश्वर अनेक अतिशयोंसे विराजित एवं मुक्त होनेसे अनन्त, शाश्वत तथा अखंड ऐसे महान् आनन्दका यथेष्ट उपभोग करनेवाले हैं। इसलिये) असाधारण तथा अलौकिक होनेसे आश्चर्यकारक सहज आदि अतिशयोंसे विराजित एवं महान् - अनन्त, शाश्वत तथा अखंड आनन्द - मोक्षसुखरूपी