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________________ कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् तीर्थङ्कर श्रीमहावीरस्वामीके दोनों नेत्रोंका, भद्रम् = मंगल हो । श्रीवीरजिनके नेत्र सकल मंगलकी खान हैं ॥ १६॥ २५ भावार्थ - (जिनेश्वर श्रीमहावीरके ध्यानकी इन्द्रसे की गयी प्रशंसाकी परीक्षा करने के लिये पृथिवीपर आकर संगमनाम के सुरने उनका ध्यान तोड़नेकेलिये अनेकों भयंकर उपसर्ग किये, किन्तु असफल होकर लौटने के समय उस असुरके विषय में ' आततायी इस देवकी क्या गति होगी ? ' इस आशंका से श्रीवीर जिनकी आंखों में दयासे आंसू उमड़ आये तथा उसको स्थिरदृष्टि - एकटकसे देखने लगे - इस कथा के अनुसन्धानसे स्तुति करते हैं कि - ) अपराधकरनेवाले के ऊपरभी दयासे स्थिर तथा आंसूसे भरे जिनेश्वर श्रीमहावीर स्वामीके नेत्रका मंगल हो - वह सर्वमंगलकारक हैं । (यहां - जो नेत्र अपराधी के ऊपर भी दयापूर्णहों, वैसे नेत्रवाले हीं सकल मंगलकारक हैं, तथा जिनेश्वर अपराधी के प्रतिभी दयालुहीं होते हैं - यह आशय है ) ॥ २६ ॥ इति सकलाऽर्हत्स्तोत्रे तपोगच्छाधिपतिशासन सम्राट्कदम्ब गिरिप्रभृत्यनेकतीर्थोद्धारकबालब्रह्मचार्याचार्यवर्यश्रीमद्विजयने मिसूरीश्वरपट्टा - लङ्कारसमयज्ञशान्मूर्त्याचार्यवर्य श्री विजयविज्ञानसूरीपट्टधर सिद्धान्तमहोदधि - प्राकृत विद्विशारदचार्यवर्य विजयश्री कस्तूरसूरीश्वर शिष्यपन्यास श्री कीर्तिचन्द्र विजयगणिविरचितः कीर्तिकलाख्यहिन्दी भाषानुवादः समाप्तः ॥ -
SR No.002450
Book TitleStotratrayi Saklarhat Stotra Virjin Stotra Mahadeo Stotra
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorKirtichandravijay, Prabodhchandravijay
PublisherBhailalbhai Ambalal Petladwala
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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