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कीर्तिकलाहिन्दीभाषाऽनुवादसहितम् व्यवस्थितः=रहे हुए हैं। हकारेण= अहँ ' इस मन्त्रके हकाररूप वर्णसे, हरः=महेश्वर, प्रोक्तः कहे गये हैं। तस्य-उस हकाररूप वर्णके, अन्ते अन्त में-ऊपरमें रहा हुआ अर्धचन्द्रबिन्दु, परमम् =सर्वोच्च, पदम्प द - सिद्धशिला है ॥ ३९ ॥
भावार्थ - जिनेश्वर श्री अरिहन्त देवका 'अहँ, यह मन्त्र ब्रह्मा, विष्णु, महादेव तथा परमपद स्वरूप है । जैसे अकाररूप वर्णअच्युत आदि विष्णुवाचक शब्दोंमें अकार होनेसे - विष्णुका प्रतीक है। तथा रेफरूप वर्ण-ब्रह्माशब्दमें रेफ होनेसे - ब्रह्माका प्रतीक है। एवं हकाररूपवर्ण - हर आदि महेश्वरवाचक शब्दोंमें हकार रहनेसे - महेश्वरका प्रतीक है। तथा अर्धचन्द्रबिन्दु सिद्धाशिलाके आकारका होनेसे - परमपदका प्रतीक है। और 'अहं । इस मन्त्रके देवता तीर्थकर जिनेश्वर हैं। इसलिये जिनेश्वर, शब्दसे ब्रह्मा आदि स्वरूप हैं । गुणसे जिनेश्वरका ब्रह्मा आदि स्वरूप होनेका पूर्वमें प्रतिपादन किया जा चुका है ॥ ३९ ॥
अकार. आदि धर्मस्य मोक्षस्य च प्रदेशकः । स्वरूपं परमज्ञानमकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४० ॥
पदार्थ -- अकार:='अन्' इस पदके आदिका अकाररूप वर्ण, आदिधर्मस्य आदि - मुख्य तथा सर्व प्रथम उपदिष्ट होनेके कारण सभी धर्मोके आदिभूत धर्मका, च-तथा, मोक्षस्य-मोक्षका, आदि मोक्षका, प्रदेशकः प्रतिपादक है । तथा, स्वरूपम्-अरिहन्तके स्वरूपभूत, परमज्ञानम्=परम - सर्वोत्कृष्ट ज्ञान - केवलज्ञान • आदि