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- महादेवस्तोत्रम् चारित्रके बलसे) नाश किया है। इसलिये राग आदिके हननका सूचक हकाररूप अक्षर अर्हन् पदमें कहा जाता है ॥ ४२ ॥
सन्तोषेणाऽभिसम्पूर्णः प्रातिहार्याऽष्टकेन च । ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च नकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४३ ॥
पदार्थ - पुण्यम्-शुभकर्म, च-और, पापम् अशुभकर्मको, च-भी, ज्ञात्वा जानकर, सन्तोषेण सन्तोष - आत्मतृप्तिसे, अभि सम्पूर्णः सभी प्रकारसे भरे हुए-आत्मसुखमम, च-तथा, प्रातिहार्याऽष्टकेन-चैत्यवृक्ष, छत्र, दुन्दुभि आदि आठ प्रातिहार्योंसे ( अभिसम्पूर्णः विराजित ) हैं । तेन-इसलिये, नकारः अहंन् पदमें नकाररूप अक्षर, प्रोच्यते कहा जाता है ।। ४३ ॥
भावार्थ - अरिहन्त श्रीतीर्थकर देवने पुण्य तथा पाप ( एव उनके हेतुओं )को जानकर (तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेसे आस्रवोंका त्याग करके ) सन्तोष-उपशमसे युक्त हुए तथा अतिशयके प्रभावसे समवसरणमें चेत्यवृक्ष, छत्र, दुन्दुभि आदि प्रातिहार्यों से विराजित हुए । इसलिये अर्हन् पदमें नकार कहा जाता है। अर्थात् अर्हन् पदमें रहा हुआ नकार तीर्थंकरके पुण्य पापके तत्त्वज्ञान, उपशम तथा प्रातिहार्याऽष्टकका सूचक है ।। ४३ ॥
भववीजाऽङ्कुरजनना रागादयः क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ ४४ ॥
इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं श्रीमहादेवस्तोत्रं समाप्तम् ॥