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कीर्तिकला हिन्दीभाषाऽनुवादसहितम्
भावार्थ - तीर्थंकरने संसारी अवस्थामें मति, श्रुत तथा अवधि-ज्ञान से युक्त होने के कारण सभी पुद्गलोके यथार्थ तत्त्वको ज्ञानरूपी नेत्रसे जानकर, ( दीक्षा ग्रहण के बाद घातिकर्मों के क्षयसे केवलज्ञान होनेपर उस केवलज्ञानरूपी नेत्रसे) लोक तथा अलोकको देखे जाने थे । इसलिये अर्हत् पदमें प्रथम रूपी द्रव्यों के पश्चात् सभी पदार्थों के क्रमशः ज्ञानका सूचक रेफ कहा जाता है । ( क्योंकि रूपिशब्दमें भी रेफ वर्ण है, तथा अर्हन् तीर्थंकर केवलज्ञानी हैं। इसलिये दोनोंके क्रमका सूचन रेफके द्वारा किया जाता है ) ॥ ४१ ॥
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हता रागाश्च द्वेषाश्च हता मोहपरीषहाः । हतानि येन कर्माणि हकारस्तेन प्रोच्यते ॥ ४२ ॥
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पदार्थ - येन = चूंकि, रागाः = विषयासक्तियोंका, च = और, द्वेषाः = अनिष्ट विषयमें अप्रीतियोंका, हताः -नाश - त्याग किये, च = पुनः, मोहपरीपहा : = मोह - ममता, परीषह-भूख, प्यास, ठंढी, गरमी आदि बाईस परीषह - इन सभीका, हताः - नाश - त्याग तथा सहन किये हैं । तथा, कर्माणि शुभ तथा अशुभ कर्मोंका, हतानि क्षय किया है, तेन = इसलिये राग, द्वेष, मोह, परीषह तथा कर्मोंका नाश करने के कारण, हकारः = अर्हन् पदमें हकाररूप अक्षरं, प्रोच्यते = कहा जाता है ॥ ४२ ॥
भावार्थ - चूंकि तीर्थंकरदेवने सभीप्रकारके राग, द्वेष, मोह, परीषह तथा कर्मों का ( अपने असाधारण एवं अलोकिक ज्ञान तथा